Mera Chhota-sa Niji Pustakalay Dharmveer Bharti By Avinash Ranjan Gupta
MERA CHHOTA-SA NIJI PUSTAKALAY PAATH KA SHABDARTH click here
MERA CHHOTA-SA NIJI P USTAKAALAYa PAATH KA BHASHA KARYA click here
1 - लेखक का ऑपरेशन करने से सर्जन क्यों
हिचक रहे थे?
2 -
‘किताबों वाले कमरे’ में रहने के पीछे लेखक
के मन में क्या भावना थी?
3 - लेखक के घर कौन—कौन—सी पत्रिकाएँ आती थीं?
4 -
लेखक को किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक कैसे लगा?
5 - माँ लेखक की स्कूली पढ़ाई को लेकर
क्यों चिंतित रहती थी?
6 -
स्कूल से इनाम में मिली अंग्रेज़ी की दोनों पुस्तकों ने किस प्रकार
लेखक के लिए नई दुनिया के द्वार खोल दिए?
7 - ‘आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों
का। यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है’ - पिता के इस कथन से लेखक
को क्या प्रेरणा मिली?
8 -
लेखक द्वारा पहली पुस्तक खरीदने की घटना का वर्णन अपने शब्दों
में कीजिए।
9 - ‘इन कृतियों के बीच अपने को कितना
भरा—भरा महसूस करता हूँ’ - का आशय स्पष्ट
कीजिए।
1.
लेखक को तीन—तीन ज़बररदस्त हार्ट—अटैक आए थे
। एक तो ऐसा कि नब्ज़ बंद, साँस बंद, धड़कन बंद। डॉक्टरों ने लेखक को मृत घोषित कर दिया।
पर डॉक्टर बोर्जेस ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी, उन्होंने नौ सौ वॉल्ट्स के शॉक्स (Shocks) दिए। उनका
मानना था कि यदि यह मृत शरीर मात्र है तो दर्द महसूस ही नहीं होगा, पर यदि कहीं
भी ज़रा भी एक कण प्राण शेष होंगे तो हार्ट रिवाइव (Revive) हो सकता है। प्राण तो
लौटे, पर इस प्रयोग
में साठ प्रतिशत हार्ट सदा के लिए नष्ट हो गया। केवल चालीस प्रतिशत बचा। उसमें भी तीन
अवरोध
(Blockage) हैं। ऐसे में ओपेन हार्ट ऑपरेशन तो करना
ही होगा पर सर्जन हिचक रहे थे क्योंकि केवल चालीस
प्रतिशत हार्ट है और अगर ऑपरेशन के बाद न रिवाइव
हुआ तो लेखक की मृत्यु निश्चित है।
2.
अस्पताल
से घर जाने के बाद ‘किताबों वाले
कमरे’ में रहने के पीछे लेखक के मन में पुस्तकों का वह संकलन
था जो उन्होंने बचपन से लेकर अब तक संकलित
की थीं। उनका मानना था कि उनके प्राण इन हजारों किताबों में बसे हुए हैं। लेखक को किताबों
से बहुत प्यार था और अपने जीवन के अंतिम चरण में हर व्यक्ति यह चाहता है कि वह अपने
प्रिय वस्तु या परिजन से संलग्न रहे।
3.
लेखक के घर में घर में नियमित रूप से पत्र—पत्रिकाएँ
आती थीं जिनमें– ‘आर्यमित्र साप्ताहिक’, ‘वेदोदम’, ‘सरस्वती’, ‘गृहिणी’ शामिल थीं और दो बाल पत्रिकाएँ खास लेखक के लिए – ‘बालसखा’ और ‘चमचम’।
4.
लेखक के घर में बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ आती थीं
जिसकी वजह से पढ़ाई के प्रति उनकी चाह बलवती होती गई। लेखक के घर में उपनिषदें और उनके
हिंदी अनुवाद, ‘सत्यार्थ प्रकाश’, जैसे पठन सामग्री भी उपलब्ध थीं जो लेखक की पढ़ने
की इच्छा का पोषण कर रही थी। पाँचवीं कक्षा में प्रथम आने पर स्कूल की तरफ़ से लेखक
को दो अँग्रेजी की किताबें इनाम स्वरूप मिलीं।
इन दो किताबों ने लेखक के लिए एक नयी दुनिया का द्वार खोल दिया। पक्षियों से
भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र। लेखक के पिता ने भी अलमारी के एक खाने से अपनी
चीज़ें हटाकर जगह बनाई और लेखक की दोनों किताबें
उस खाने में रखकर कहा - “आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का हैं ।
यह तुम्हारी अपनी लाइब्रेरी है। इस प्रकार लेखक को किताबें पढ़ने और सहेजने का शौक लग
गया।
5.
लेखक स्कूल की किताबों के अतिरिक्त अन्य किताबें ज़्यादा पढ़ता था। इस वजह से माँ
चिंतित रहने लगी। लेखक की माँ को यह डर था कि इन किताबों के असर से कहीं यह साधु बनकर
घर से भाग गया तो? उनका यह भी मानना था कि इन किताबों से ज़्यादा स्कूल की किताबें भविष्य निर्माण
के लिए आवश्यक हैं।
6.
लेखक को स्कूल से इनाम में दो अंग्रेज़ी किताबें
मिली थीं। एक में दो छोटे बच्चे घोंसलों की खोज में बागों और कुंजों में भटकते हैं
और इस बहाने पक्षियों की जातियों, उनकी बोलियों, उनकी आदतों की जानकारियाँ उन्हें मिलती हैं। दूसरी
किताब थी ‘ट्रस्टी द रग’ जिसमें पानी के जहाजों की कथाएँ थीं – जहाज कितने प्रकार के होते हैं, कौन—कौन—सा माल लादकर
लाते हैं, कहाँ से लाते हैं, कहाँ ले जाते हैं, नाविकों की ज़िंदगी कैसी होती है, कैसे—कैसे द्वीप
मिलते हैं, कहाँ ह्वेल होती है, कहाँ शार्क
होती है? देखा जाए तो पक्षियों से भरा आकाश और रहस्यों से भरा समुद्र से स्ंबंधित इन दो
किताबों ने लेखक के लिए एक नई दुनिया के द्वार खोल दिए।
7.
‘आज से यह खाना तुम्हारी अपनी किताबों का है। यह तुम्हारी अपनी
लाइब्रेरी है’ - पिता के इस कथन ने लेखक में पुस्तकों के संकलन की चाह पैदा कर दी। यहाँ से आरंभ
हुई उस लेखक की लाइब्रेरी। लेखक किशोर हुआ, स्कूल से कॉलेज, कॉलेज से युनिवर्सिटी
गया, डॉक्टरेट हासिल
की, युनिवर्सिटी
में अध्यापन किया, अध्यापन छोड़कर इलाहाबाद से बंबई आया, संपादन किया। उसी अनुपात में अपनी लाइब्रेरी का
विस्तार करता गया।
दूसरी तरफ़ ईस्ट इंडिया द्वारा स्थापित पब्लिक
लाइब्रेरी, महामना मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित
भारती भवन , विश्वविघालय की लाइब्रेरी, लेखक के
मुहल्ले की लाइब्रेरी – ‘हरिभवन’, वकीलों
की निजी लाइब्रेरियाँ तथा अध्यापकों की निजी
लाइब्रेरियों ने बचपन से ही लेखक के मन में उनकी खुद की लाइब्रेरी स्थापित करने की
नींव डाल दी थी।
8.
पिता के देहावसान के बाद तो आर्थिक संकट इतना
बढ़ गया कि फीस जुटना तक मुश्किल हो गया। लेखक के लिए अपने शौक की किताबें खरीदना संभव
ही नहीं था। एक ट्रस्ट से योग्य पर असहाय छात्रों को पाठ्य पुस्तकें खरीदने के लिए
कुछ रुपए सत्र के आरंभ में मिलते थे। लेखक उन पैसों से प्रमुख पाठ्य पुस्तकें सेकेंड-हैंड खरीदता था बाकी अपने
सहपाठियों से लेकर पढ़ता था और नोट्स बना लेता था। जिस साल लेखक ने इंटरमीडिएट पास किया,अपनी पुरानी
पाठ्यपुस्तकें बेचकर बी - ए - की पाठ्यपुस्तकें
लेने एक सेकंड—हैंड बुकशॉप पर गया। उस बार जाने कैसे पाठ्यपुस्तकें खरीदकर भी दो रूपये बच गए
थे। उन्होंने बचे हुए रुपयों से फ़िल्म ‘देवदास’ देखना चाहा पर तभी किसी परिचित के किताब की दुकान
पर लेखक शरत्चंद्र चट्टोपाध्याय की लिखी ‘देवदास’ दिखी और उन्होंने वह किताब खरीद ली। बचे हुए
पैसे उन्होंने अपनी माँ को लौटा दिए। इस प्रकार लेखक ने अपनी पहली पुस्तक खरीदी।
9.
लेखक का यह कथन इन वाक्यों से शुरू होता है, “आज जब अपने
पुस्तक संकलन पर नज़र डालता हूँ जिसमें हिंदी—अंग्रेजी के उपन्यास, नाटक, कथा—संकलन, जीवनियाँ, संस्मरण, इतिहास, कला, पुरातत्त्व, राजनीति की
हज़ारहा पुस्तकें हैं, तब कितनी शिद्दत से याद आती है अपनी वह पहली पुस्तक
की खरीदारी! रेनर मारिया रिल्के, स्टीफ़ेन ज़्वीग, मोपाँसा, चेखव, टालस्टाय, दास्तोवस्की, मायकोवस्की, सोल्जेनिस्टिन, स्टीफेन स्पेण्डर, आडेन एज़रा
पाउंड, यूजीन ओ नील, ज्याँ पाल
सात्र, ऑल्बेयर कामू, आयोनेस्को
के साथ पिकासो, ब्रूगेल, रेम्ब्राँ, हेब्बर, हुसेन तथा हिंदी में कबीर, तुलसी, सूर, रसखान, जायसी, प्रेमचंद, पंत, निराला, महादेवी और जाने कितने लेखकों, चिंतकों की
इन कृतियों के बीच अपने को कितना भरा—भरा महसूस करता हूँ।” इन किताबों के बीच लेखक
अपने आपको अकेला महसूस नहीं करता है। उन्हें किताबों को देखकर संतोष होता है। उनका
मानना है कि यही किताबें उनके पूरे जीवन की उपलब्धि है।
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