Main A.R.Gupta Banna Chahta Hoon By Avinash Ranjan Gupta



मैं अविनाश रंजन गुप्ता बनना चाहता हूँ।
            परिजनों से बहुत कुछ सुनता आया हूँ कि जब मैं छोटा था तो बंदूकों का मुझे बहुत शौक था। ये देख कर दादाजी ने कहा था, इसके सेना में जाने के गुण तो अभी से ही दिख रहे हैं। ये तो जरूर सैनिक ही बनेगा। इस बात पर माताजी नाराज़ हो गईं थीं। उन्हें अपने लाल को सेना में भेजना  मंजूर नहीं था। वो तो मुझे डॉक्टर बनाने के सपने देख रही थीं। पिताजी को यह पता था कि एयर पायलट की तन्खाव बहुत अधिक है, सो वे बचपन से मुझे खिलौने में हवाई जहाज़ लाकर देते थे। इन सब योजनाओं से अनजान मैं अपने होश संभालने के चरण में था। जब से मैंने होश संभाला है, तब से तीन वर्ष पूर्व  तक विविध पेशों के बारे में सुन-सुन कर विरक्त हो चुका था। कोई कहता सेना में जाओ तो कोई कहता बैकिंग क्षेत्र में, किसी ने लोक सेवा आयोग (Civil Service) तो किसी ने  कर्मचारी चयन आयोग (SSC) में भाग्य आजमाने की बात कही। यह सिलसिला यहीं नहीं रुका किसी ने विदेश जाने तक की बात कह दी। मेरे जीवन में सगे-संबंधियों का एक वर्ग ऐसा भी था, जो मुझे कुछ अलग तरीके से समझाने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने मुझे कचहरी या पुलिस में भर्ती हो जाने की सलाह दी। इनके पीछे उनकी सोच यह थी कि जब कोई अपना कचहरी या पुलिस में होता है तो इनसे जुड़े हुए काम जल्दी ही निपट जाते हैं। अपनी इस सोच को दमित रखते हुए उन्होंने मुझसे यह कहा कि इस पेशे में  ऊपरी कमाई बहुत है। आज यही लोग मुझसे इस पेशे में जाने को प्रोत्साहित कर रहे हैं, मगर आने वाले दिनों में जब मैं उनकी कसौटी पर खरा न उतरा तो वे ही मेरी तारीफ़ों (विरोधाभास) के पुल बाँध देंगे। सचमुच, इस दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं, जो अपने विचारों और परामर्शों को ही श्रेष्ठ मानते हैं और मनवाते भी हैं। मैं भी अपने विचारों को ही श्रेष्ठ मानता हूँ पर मनवाता नहीं, बल्कि सोचने पर ज़ोर देता हूँ। मेरे माता-पिता, भाई-बहन मेरी पत्नी मेरे बच्चे क्या यह जान कर खुश होंगे कि मैं किस तरीके से पैसे कमा रहा हूँ। क्या मेरी अवेद्य कमाई से उनके आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगेगी। मैं आप सभी पाठकों से पूछता हूँ क्या यह सही है आपकी नज़र मेँ?
            अंत में मैंने पेशे का चुनाव करने में अपने सिवा किसी की भी न मानी क्योंकि मैंने अपने पेशे को लेकर जो सोच रखा था 25 साल की उम्र तक वैसा सुझाव मुझे किसी ने नहीं दिया था। मैं अविनाश रंजन गुप्ता बनना चाहता हूँ । जी हाँ, आपने सही पढ़ा, मैं अविनाश रंजन गुप्ता ही बनना चाहता हूँ। और अविनाश रंजन गुप्ता ही बनने के लिए मैंने शिक्षक का माध्यम अपनाया। आज मैं शिक्षक हूँ, अविनाश रंजन गुप्ता बनने के लिए मुझे कई साल लगेंगे। मुझे प्रकृति सदा से अपनी ओर खींचती आई है। प्रकृति के सारे काम धीरे-धीरे होते हैं और जिस किसी ने भी इस नीति का पालन पूरे संयम से किया है वो इतिहास के पन्नों में अपने सुकर्म के लिए अमर हो चुका है, महावीर, गौतम बुद्ध, महात्मा गाँधी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। जिस प्रकार सूर्य से उसकी किरणों को अलग नहीं किया जा सकता, फूलों से सुगंध  को अलग नहीं किया जा सकता, आग से ताप को अलग नहीं किया जा सकता ठीक उसी प्रकार महात्मा गाँधी से सत्य और अहिंसा को अलग नहीं किया जा सकता, सचिन तेंदुलकर से क्रिकेट को अलग नहीं किया जा सकता, पेले से फुटबॉल को अलग नहीं किया जा सकता, न्यूटन से गुरुत्वाकर्षण को अलग नहीं किया जा सकता ठीक उसी प्रकार आने वाले दिनों में अविनाश रंजन गुप्ता से शिक्षक को अलग नहीं किया जा सकेगा। लोग अपनी पहचान अपने पेशे से बनाते हैं मगर ऊपर उद्धृत नाम से उनके पेशे का पता चलता है। यानि, जब हम हम बनते हैं तो हमारे नाम से ही व्यापक स्तर तक हमारे पेशे का पता चलता है। तो आप भी नाम बनने की धुन मे रहिए। तुलसीदास की प्रशंसा में लिखा गया है –
कविता कर तुलसी न लसे,
                                                     कविता लसी पा  तुलसी की कला ।                            
अर्थात काव्यों की रचना करके तुलसीजी प्रसिद्ध नहीं हुए बल्कि काव्य इसलिए प्रसिद्ध हुआ  क्योंकि तुलसीजी ने काव्यों की रचना की।
            आप भी जिस किसी काम में संलग्न हैं। उसे इस सोच से पूरा करने का संकल्प ले कि इस पेशे को शीर्ष तक ले जाने की ज़िम्मेदारी मुझ पर ही है। इस पेशे से पूरे जन समुदाय का उपकार होने वाला है। ऐसी भावना से ओत-प्रोत होकर अपने कर्मक्षेत्र में आगे बढ़िए।  फिर देखिये वो आपको काम की तरह नहीं बल्कि आपके जीवन के लक्ष्य की तरह प्रतीत होगी। अंतत:, आप  सफल होंगे।
            मगर समस्या यह है कि ऐसी भावना का संचार लोगों में कौन करेगा? कौन उनमें मानवीय गुणों का विकास करेगा? कौन उन्हें सही दिशा-निर्देश देगा? इसका जवाब बहुत ही सरल है शिक्षक। और मैं बनूँगा  ऐसा शिक्षक जो केवल अपने पाठ्यक्रम को पूरा करना ही अपनी ज़िम्मेदारी नहीं मानेगा बल्कि अपने छात्रों में मानवीय गुणों के विकास हेतु सही दिशा-निर्देश देगा, जिसका एक छोटा-सा नज़ारा यहाँ प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है –
1.      मैं अपने छात्रों को सबसे पहले अपना नाम बनने की ही सलाह दूँगा। उन्हें यह भी बताऊँगा कि आप लोगों ने अपने-अपने जीवन का जो भी लक्ष्य बनाया हो उसे माध्यम और लक्ष्य बनाइए अपने नाम को। आपके पेशे से आपके नाम का पता नहीं चलना चाहिए बल्कि आपके नाम से आपके पेशे का पता चलना चाहिए। आपका नाम पहचान पाने के लिए किसी भी प्रोफेशन का मोहताज नहीं होना चाहिए। आज बिल गेट्स मतलब माईक्रोसोफ्ट, एपीजे (APJ) मतलब मिसाइल मेन’, आइन्स्टाइन मतलब एक महान वैज्ञानिक आप भी ऐसा ही एक नाम बन जाइए। और यह भी जानकारी अपने साथ रखें कि यह सफ़र बहुत लंबा और मुश्किलों से भरा पड़ा है। अपने नाम को अमरता का अमृत पिलाने के लिए अभी से बिना किसी डर और देर के लग जाइए।
2.       मैं अपने छात्रों में पारदर्शी चिंतनशक्ति का विकास करने हेतु उन्हें यह भी बताऊँगा कि इतिहास के पन्नों का सिकंदर (ALEXENDER) जिसे आज भी अलेक्ज़ेंडर दि ग्रेट कहा जाता है, बिलकुल बकवास है। उसने विश्वविजयी होने का सपना देखा था और इसमें उसने काफी हद तक सफलता भी पाई थी। यहाँ तक सुनने में कानों को अच्छा लगता है मगर इसके पीछे का सच जान कर आप दंग रह जाएँगे। मैं पूछता हूँ विश्वविजयी होने का सपना देखने वाला सिकंदर अपने इस सपने को पूरा करने के लिए लाखों  सैनिकों को मौत के मुख में भेज दिया । नजाने कितनी ही माताओं की गोद सूनी हुई होगी, कितने ही सुहागिनों का सुहाग उजड़ गया होगा, कितने ही बहनों से उसके भाई का साथ हमेशा हमेशा के लिए छूट गया होगा। इस रक्तपात के मूल में बसने वाला सिकंदर भला कैसे महान हुआ? क्या इतिहासकारों को इस त्रुटि का निराकरण नहीं करना चाहिए। किसी ने सच ही कहा है “जिसके लिए पूरी दुनिया कम पड़ती थी आज 4/8 फुट की समाधि ही उसके लिए पर्याप्त है।”  
3.       मैं अपने छात्रों में पठन में रुचि  का विकास  करने हेतु उन्हें यह भी बताऊँगा कि पुस्तकें व्यक्ति कि सबसे अच्छी मित्र होती हैं। आज हमारे बीच कबीर, तुलसी , शेक्स्पीयर नहीं हैं, मगर उनकी लिखी रचनाओं को पढ़कर हम उनसे बातें कर सकते हैं, उनसे रू-ब-रू हो सकते हैं। उनके सोच-विचार उनके गुणों को अपने जीवन में उतार कर अपने जीवन को नए आयाम दे सकते हैं। इतना जानने के बाद भी अगर आपको पढ़ाई में रुचि नहीं आती है तो इसका इलाज़ भी मेरे पास मौजूद है।  आपको चाहिए कि एक ऐसी पुस्तक आप अपने पास सदैव रखिए जिसमें आपको थोड़ी-सी भी रुचि हो। विश्वास कीजिये कुछ दिनों के बाद वही पुस्तक आपका ध्यान आकर्षित करेगी और आप उस पुस्तक को जरूर पढ़िएगा।
4.       मैं अपने छात्रों को यह भी बताऊँगा कि आज समाज में जितने  भी उत्पात जितनी भी समस्याएँ उभर रही हैं, इसके पीछे कहीं न कहीं निरक्षरता एक बड़ा कारण है। आपको अगर मैं यह कहूँ कि शिक्षित व्यक्तियों पर शासन करना अशिक्षित व्यक्तियों पर शासन करने से कहीं आसान है, तो शायद आपको इतनी जल्दी यकीन न हो, मगर सच तो यही है।  आज भी जितनी समस्याएँ आए दिन हमारे सामने आ रही हैं उसे अंजाम देने वालों में अशिक्षित व्यक्तियों की भागीदारी ज्यादा होती हैं। कुछ भागीदारी शिक्षित व्यक्तियों की भी होती हैं, मगर ऐसा इसलिए होता है कि शिक्षित व्यक्ति भी अशिक्षित व्यक्ति का गलत उपयोग करते हैं। इस समस्या का रामबाण इलाज़ है, पूर्ण साक्षारता । जहाँ पूर्ण साक्षारता होगी वहाँ के नागरिक सभी काम सोच-समझ के साथ करेंगे। किसी भी ऐसे काम के प्रति कभी भी आकृष्ट नहीं होंगे जो उनके साथ-साथ समाज के लिए भी घातक हो। साथ ही साथ शासक वर्ग भी ऐसे ही नियम कानून बनाएगा जो सर्वसाधारण के लिए अनुकूल एवं मान्य हो।
5.      मैं अपने छात्रों में मानवीय गुणों के विकास हेतु  यह भी बताऊँगा कि विज्ञान ने लोगों के जीवन को सुखद बनाने वाली बहुत-सी मशीनों का आविष्कार कर दिया है। नजाने ऐसे कितने ही उपकरण आज मौजूद हैं जिसके प्रयोग से घंटों का मिनटों में और महीनों के काम दिनों में ही निपट जाते हैं। मगर आज के दौर में विज्ञान बिना नकेल के उस बैल की तरह है जो लगातार धमाचौकड़ी मचा रहा है। आज सुविधा ही दुविधा बन चुकी है। विज्ञान हमें किसी भी चीज के उत्पादन की विशद जानकारी मुहैया करवा सकता है, यहाँ तक की उत्पादन क्षमता कैसे बढ़ाई जाए, यह भी भली-भाँति ज्ञात करा सकता है। मगर विज्ञान ने  हमें  मानवीय गुणों के विकास हेतु आज तक ऐसा कोई भी उपकरण ईजाद कर कर नहीं दिया है। मानवीय गुणों के विकास हेतु  हमें साहित्य के शरण में जाना ही होगा। विज्ञान हमें भौतिक सुख की तरफ ले जाता है यह तो साहित्य ही है जो हमें आध्यात्मिक सुख की तरफ ले जाता है। हमें जीवन एक ही बार मिला है इसे हमें ऐसे जीना चाहिए जिससे हमारे बाद भी हमारे  नाम की सुकीर्ति बनी रहें। लोग हमारे नाम को आस्था से लें।
6.      एक शिक्षक होने के नाते  यह मेरा परम कर्तव्य है कि  छात्रों के उज्ज्वल मार्गदर्शन में मेरी भूमिका सदैव मुख्य बनी रहे। उनके आचरण में नम्रता और शालीनता लाने के साथ-साथ उनके भविष्य के लिए भी उन्हें तैयार करूँ। आजकल की शिक्षा नीति में स्कूल के प्राचार्य महोदय हमें हमारे छात्रों को 90% अंक दिलवाने के लिए सदा दबाव डालते रहते हैं। मैं कहता हूँ- सी. वी. रामन, गेलीलियो, हार्डी ये सब भी तो पेशे से शिक्षक ही थे, मगर इन्होंने कितने सी. वी. रामन, गेलीलियो, हार्डी निकाले। जब तक छात्र पाठ में खुद रुचि नहीं दिखाएगा तब तक उसका शैक्षिक विकास संभव नहीं है। शिक्षण अध्यापन कार्य में  शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण है।  किसी एक के भी रुचि में कमी हुई तो शिक्षण प्रक्रिया पूर्ण नहीं होगी।
7.      मैं अपने छात्रों को यह भी बताऊँगा कि आज के युग में जितनी भी समस्याएँ हमारे सामने आए दिन आती रहती हैं, उसके मूल तीन ही कारण है- काम, अर्थ और धर्म (Sex, Money & Religion) काम से बड़ा कोई रोग नहीं, धन लोलुपता मानव को दानव बनाने के लिए पर्याप्त है और आज के दौर में तो धर्म की परिभाषा ही पूर्णत: बदल चुकी है । अपने छात्रों से मैं सदा यही कहूँगा कि कभी भी किसी भी धर्म का गुलाम न बनें। इन तीन बीमारियों से सदा अपने आप को बचाए रखें।

                                                                                                            अविनाश रंजन गुप्ता 


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