Apni Marzee Se Jeena By Avinash Ranjan Gupta


जीना अपनी मर्ज़ी से
          आज मेरे आँखों की लालिमा देखकर कुछ ने कहा, “शायद तुम्हें एलर्जी हो गई है।” किसी ने भौंहें बनाते हुए कहा, “रात भर जागे रहे क्या?” तो किसी ने कहा, “क्या बाबा सुबह-सुबह ही मार लिए क्या?” पर सच्चाई कुछ और ही थी। मेरे आँखों से निकलने वाले आँसुओं को मैंने अपने पुरुष होने के बल के कारण निकलने से रोक दिया था और इसी वजह से मेरी आँखें लाल पड़ गईं थीं। स्त्री आरोपित लक्षण का मुझ पर हावी होने की वजह यह नहीं थी कि मेरे बॉस ने मुझे छुट्टी नहीं दी बल्कि यह थी कि आज मैं यह जान गया था कि मेरे जीवन का संचालक मैं नहीं बल्कि कोई घटिया-सा इंसान है जिसने चाटुकारिता के बल पर ऊँचा ओहदा हासिल कर लिया है।
          मैं क्षण भर के लिए यह सोचने लगा कि त्याग-पत्र दे दूँ और अपने आत्म-सम्मान की लाज रख लूँ पर तुरंत ही मेरे नज़रों में अपने बूढ़े माता-पिता, पत्नी और बच्चों की तस्वीरें तैरने लगीं। मैंने अपने आत्म-सम्मान को फिर से ताख पर रखकर झूठी मुसकान लाने की चेष्टा करने लगा और यह सब हुआ बॉस के चेंबर से निकलने और अपने टेबल पर पहुँचने के बीच में। सचमुच ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबा आदमी कितनी जल्दी और कितना ठीक सोच लेता है। मैंने कल्पना की कि इस नौकरी (गुलामी) के बिना मैं कुछ भी नहीं कर सकता। मेरे पास तो इतना समय भी नहीं है कि इसे छोड़कर दूसरे की तलाश में लगूँ और मेरी दूसरी तलाश भी तो गुलामी ही होगी।
          कहते है जब मनुष्य बहुत डिप्रेशन में हो तो उसे कुछ अच्छा सोचकर मन बहला लेना चाहिए। इस बात की सीख भी हमें कंपनी द्वारा आयोजित  ट्रेनिंग में ही सिखाया गया था। सो बस मैं अपने बॉस से जूते पॉलिश और बर्तन मँजवाने की सुखद कल्पना करके खुश हो रहा था कि तभी मेरा मोबाइल बजा। देखा तो मेरी पत्नी थी और यह जानना चाहती थी कि छुट्टी मिली या नहीं। मैंने तुरंत ही कहा मरा बॉस छुट्टी दिया नहीं। (यहाँ मेरा की जगह मरा शब्द का प्रयोग पूरी सूझ-बूझ के साथ किया गया है क्योंकि मरा बॉस में संवेदना खत्म हो चुकी है उसे किसी दूसरे की परवाह नहीं है। मेरे लाख कहने पर कि मेरे चाचा अस्पताल में हैं और मुझे उन्हें देखने जाना है, उन्होने मुझे छुट्टी नहीं दी। वे तो सिर्फ कंपनी के सीईओ और बोर्ड ऑफ डिरेक्टर्स की खुशी की ही चिंता करते हैं।) और यह बात भी सही है कि मरा बॉस छुट्टी कैसे दे सकता है? दुख, अपमान और परेशानियों की जितनी भी अनुभूति हमने महसूस की उसे अपने बॉस को रसीद कर दी।
          बात यहीं समाप्त नहीं होती। सचमुच यह चिंतन का विषय है कि हमारी ज़िंदगी को कोई दूसरा कैसे नियंत्रित कर सकता है और उससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि एक व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता और अपनी चाहत को दूसरों को कैसे सौंप सकता है। यह तो निरी गुलामी है। और यही गुलामी का पाठ हमें स्कूल कॉलेजों में बड़े एहतियात से नाना प्रकार के टास्क पूरे करवाकर कराए जाते हैं। हमें यह शिक्षा दी जाती है कि कैसे हमें एक अच्छी नौकरी मिले। नौकरी तो नौकरी ही है, यह कभी भी अच्छी हो ही नहीं सकती है। आखिर होते तो हम नौकर ही हैं और नौकरों का जीवन भी कहीं उन्नत हुआ है? और इस बात का अंदाज़ा मुझे उस वक्त पूरा हो गया जब मैंने अपने बॉस से कहा कि काम के साथ-साथ परिवार भी ज़रूरी है। उत्तर में मरा बॉस उत्तर देता है, “काम छोड़कर परिवार के साथ ही रहो फिर।” मैंने कहा, “मेरी जगह पर जो आएगा, क्या उसे छुट्टी नहीं चाहिए होगी?Don’t argue with me, I will not sanction your leave. You may go now? अंग्रेज़ी में ये वाक्य कहकर मरा बॉस ने लॉर्ड मैकाले की क्लर्क पैदा करने वाली शिक्षा व्यवस्था और भारत मे बढ़ती नौकरों की संख्या की तरफ़ इशारा किया।   
          मैं यह नहीं जानता कि आपकी फॅमिली बेकग्राउंड क्या है, मुझे न ही आपने आर्थिक, शैक्षिक, जन्म, वर्ग, धर्म, जाति, के बारे में ही पता है। पता है तो सिर्फ इतना कि लाइफ किंग साइज़ की होनी चाहिए। ऊपरवाले के अलावा न ही किसी का भय होना चाहिए न ही किसी का नियंत्रण।  आज की दुनिया में अपनी मर्ज़ी से जीना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। आपको ये उपलब्धि कैसे हासिल करनी है, ये आपको तय करना है। मेरे इस विचार से हो सकता है, आप सहमत न हो और मैं किसी प्रकार का ज़ोर भी नहीं डालना चाहता क्योंकि एक समय मैं भी इन सारी बातों को दक़ियानूसी माना करता था। आज पछतावा होता है कि दसवीं में फ़र्स्ट डिवीज़न, आई.ए. में 73%, ग्रेजुएशन में डिसटिंक्शन और पोस्ट ग्रेजुएशन में गोल्ड मेडलिस्ट होने पर ही मेरी स्थिति आज ऐसी है। इन सबका मैं ही जिम्मेदार हूँ।     
     

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