Astitvaheen By Avinash Ranjan Gupta



अस्तित्वहीन
मैं क्या दूँ समाज को?
जिसको जैसा मिलता है,
वो वैसा ही देता है।
जैसे शिक्षक शिक्षा देता,
बदले में पैसे है लेता,
क्योंकि उसने भी शिक्षा,
पैसे देकर पाई है,
अब पैसे लेने की,
उसकी बारी आई है।   
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पर मैं क्या दूँ समाज को?
न मेरी कोई हस्ती है,
न मेरी कोई पहचान,
मेरा कहीं ज़िक्र नहीं,
नहीं कहीं सम्मान।  
नहीं समझ पाए अब भी तो
सुन लो ए नादान,
मैं हूँ एक अंजान
मैं हूँ एक अंजान ...
पता नहीं मुझको खुद भी,
है मेरी क्या पहचान?
पता नहीं है जन्म का,
पर मालूम है श्मशान।  
मेरी भी एक संज्ञा है,  
जिसकी बड़ी अवज्ञा हैं,  
न ही कोई उसका रुत्बा,
न ही किसी मे जानने का जज़्बा,
लोग मुझे कहते हैं -
लावारिस ...  लावारिस ... लावारिस...
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खून के आँसू रोता हूँ ,
जब लोगों से सुनता हूँ ,
सोचता हूँ तो दिल फटता है,  
आदमी आदमी से यह कैसे कहता है?
सिर्फ़ इसलिए कि तुमहरी पहचान है
और मेरा अस्तित्व अनजान है।
अब मैं पूछता हूँ आपसे,  
क्या दूँ मैं इस समाज को?
कुत्तों के संग सोता हूँ ,
गालियों का बोझा ढोता हूँ,
न पढ़ पाया न लिख पाया,
गली-ग्लौज़लौज ही सीख पाया।  
तो क्या मैं दूँ इस समाज को,
जो अभी तक है मैंने पाया।
कुछ तो सोचो मेरे बारे में,
मैं भी एक इंसान हूँ।  
न आगे न पीछे मेरे कोई,  
इसीलिए अनजान हूँ,
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पेट की भूख बहुत कठोर है,  
मुझे बनाती दिन का चोर है,  
फँसना - बचना यही दो छोर है,
पर बचने पर कब तक ज़ोर है,  
पकड़ा गया तो यही चोर है।
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मैं न ही लक्ष्मी का लाड़ला हूँ,  
मैं न ही सरस्वती का कृपापात्र,  
पर मुझे एक बीमारी है,
जिसका नाम भूख और लाचारी है
और यही मेरी ज़िम्मेदारी है।  
सुनता हूँ कि एक धारा है,  
जिसने कइयों को सुधारा है,  
इसी आस में मैं भी हूँ,  
कि मेरा भी होगा कल्याण,  
लेकिन कब तक, हूँ अनजान।  
जान पाया कि मुझसे भी,  
बुरी स्थिति में हैं इंसान,  
वो जो सरकारी घरों में रहते हैं,
सरकारी नौकरियाँ करते हैं,
पगार सरकार से लेते हैं,  
और बकसीस हमलोगों से।   
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अब मैं पूछता हूँ आपसे,
क्या मैं दूँ समाज को?  
वही जो मैंने पाया है,
या वो जो अब तक नहीं पाया है,
क्या? क्या? क्या?
                   अविनाश रंजन गुप्ता



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