Mujhe Samya Chahie By Avinash Ranjan Gupta

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मुझे समय चाहिए !
            17 अगस्त 2012 को  मैंने गूगल कंपनी के SEO(Search Engine Optimisation) के पद से त्याग कर दिया। मुझे वहाँ प्रति माह 38000/- रुपए  मिलते थे। इसके अलावा रहने को मकान, चिकित्सा भत्ता(Medical Allowance), मँहगाई भत्ता (Dearness Allowance), मोबाइल और पेट्रोल खर्च वगैरह –वगैरह। पर अब  कुछ ही दिनों के बाद मैं अपने शहर में नेट पार्लर खोलने वाला हूँ। मैं बहुत खुश हूँ और मुझसे भी कहीं ज़्यादा खुश कुछ और लोग हैं एक तो मेरे माता-पिता और मेरी प्रेमिका (Girlfriend). इस खुशी के पीछे एक हास्य मगर अर्थपूर्ण घटना है जो मेरे साथ तो नहीं घटी थी, बल्कि मेरे सहकर्मी के साथ घटी थी।
          हुआ यूँ कि एक दिन ऑफिस में काम करते-करते काफ़ी रात हो गई थी और मेरे सहकर्मी का घर वहाँ से कुछ ज़्यादा ही दूर था। देर हो जाने की वजह से उसे कोई बस या ऑटो नहीं मिली। मैंने आत्मीयता दिखाते हुए कहा कि अगर आपको कोई परेशानी न हो तो आप मेरे कमरे में रात बिता सकते है; मुझे खुशी होगी। स्थिति को समझते हुए उसने मेरे बात मान ली। हम दोनों कमरे में आ गए। कमरे में आते ही उसका मोबाइल बजने लगा। फ़ोन उठाते ही उसने जिस भाषा में बात कि वह ओडिया भाषा थी। एक बार के लिए मैं तो खुश ही हो गया कि चलो कोई तो मिला अपने राज्य का । उस दिन मैं जान पाया कि वह भी ओडिशा का ही है। हालाँकि, उसे इस बात का इल्म भी नहीं था कि मैं भी ओडिशा का ही हूँ। उसने फ़ोन के कॉल खत्म कर जैसे ही मेरे तरफ़ मुड़ा, वैसे ही मैं उसे यह बताने वाला था कि मैं भी ओडिशा का हूँ। पर इससे पहले ही उसका फ़ोन फिर से बज उठा। और इस बार वह जिस प्रकार बातें कर रहा था, उसे देखकर मुझे यही लगा कि ठीक हुआ मैंने उसे अपने बारे में नहीं बताया। उसकी बातें उसकी प्रेमिका से हो रही थीं  जो उसे यह कहकर डाँट रही थी कि दुर्गापूजा की छुट्टियों में तुम घर क्यों नहीं आए। स्थिति को जानकर वह बाहर जाकर डाँट  खाना उचित समझ रहा था, पर ऐसा संभव नहीं था क्योंकि कमरा छोटा था और बाहर नवरात्रि के गाने ज़ोर-ज़ोर से बज रहे थे। मजबूरन उसे कमरे के अंदर ही रहना पड़ा।  दोनों में काफ़ी बहस हो रही थी। ये महाशय अपने आपको दोषी मान चुके थे और तरह-तरह के दलीलें देकर अपनी प्रेमिका को मनाने की  कोशिश कर रहे थे। पर लड़कियों को समझाना कितना मुश्किल काम है यह मुझसे बेहतर और कौन जानता होगा ?  अंत में कॉल उसकी प्रेमिका की तरफ़ से ही गुस्से में काट दिया गया। उसने मेरी तरफ़ देखा। हालाँकि, उसकी निरीहता की पूरी कहानी मुझे पता चल गई थी, मगर मैंने मानवता दिखाते हुए उसे इस बात का आभास भी नहीं होने दिया की उसके  दुखभरे वार्तालाप का मैं एकमात्र चश्मदीद गवाह हूँ। थोड़ी देर बाद उसने अपने पिता को फ़ोन किया पता चला कि माँ की तबीयत थोड़ी खराब है यह सुनकर वह जितना दुखी हुआ होगा उतना ही दुखी मैं भी हुआ। क्योंकि मुझे पता है जब माँ बीमार होती है तो कैसा लगता है?
          मुझे चाणक्य के कहे हुए कुछ कथन बहुत अच्छे लगते हैं। उन्हीं में से एक था,“हमें दूसरी की गलतियों से सीखना चाहिए और  उसे अपने जीवन में होने से रोकना चाहिए।” बहुत आत्म मंथन करने की बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि आज इसके दो, एक इसकी प्रेमिका और दूसरा इसके पिता के कॉल ने इसे विचलित कर दिया। इसकी स्थिति और मेरे स्थिति में कोई खास अंतर नहीं है। हो सकता है कि कल मेरे पास भी ऐसे ही कॉल आए जो मुझे विचलित कर दे। अगर मेरी माँ बीमार पड़ती है तो मेरे पास इतने पैसे हैं कि मैं उसे दवा दिला सकूँगा। पर मुझे यह भी पता है कि दवा में कोई भी हँसी-मज़ाक नहीं है, मगर हँसी-मज़ाक में दवा है। मेरे माता- पिता मेरे बिना खुश नहीं है। उनका बेटा होने के नाते उन्होंने मुझपर कोई भी पाबंदी नहीं लगा रखी है। मैं जो चाहता हूँ, मुझे करने देते हैं। लेकिन मैं उनके लिए समय ही नहीं निकाल पा रहा हूँ। उम्र के इस पड़ाव में उन्हें इस वक्त मेरी बहुत ज़रूरत है। अब तो मेरा यह मानना है कि अगर आप अपने परिवार को कुछ देना ही चाहते हैं तो आप उन्हें अपना समय दीजिए। मेरी प्रेमिका भले ही मुझसे कुछ नहीं कहती है पर अब मैं यह जान गया हूँ कि प्यार उपहार नहीं उपस्थिति चाहता है।
          अगले ही दिन मैंने कंपनी के जनरल मेनेजर को अपना त्यागपत्र दे दिया। त्यागपत्र देखकर वे भी हैरान रह गए। वह यह समझ ही नहीं पा रहे थे कि अचानक इसे क्या हो गया? उसने मुझसे कहा कि कल तक तो सब ठीक था। कल ही आपने अपना प्रोजेक्ट पूरा किया। इसके लिए आपको  एम्प्लोयी ऑफ द इयर का अवार्ड भी मिलने वाला है। फिर भी आपने इस्तीफ़ा दे दिया, ऐसा क्यों? मेरा जवाब था,“सर, मुझे समय चाहिए।” और मुस्कराते हुए मैं उनके केबिन से बाहर चल आया। वास्तव में, इस कंपनी ने मुझे मनुष्य से मशीन बना दिया था। दिन-रात जब ज़रूरत पड़े मुझे बुला लिया जाता। बिना इस बात की चिंता किए कि मैं अभी आना भी चाहता हूँ या नहीं। मेरी तबीयत ठीक है या नहीं। मेरे और भी कुछ ज़रूरी काम हो सकते हैं। और यह सब किसलिए दूसरी कंपनी कहीं हमसे आगे न निकाल जाए इसलिए। हमें स्पीड काम करना हैं। मुझे तो यह समझ में नहीं आता आप भले ही जितना स्पीड काम कर लो कहीं न कहीं तो रुकना ही पड़ेगा। फिर क्यों न एक रिलेक्स  लाइफ बिताई जाए। हम अपने जीवन में भले ही कितने ही गंभीर क्यों न हो जाएँ, कितने ही तेज़ काम क्यों न करें मौत से कभी नहीं बच सकते। तो ये अफरा-तफरी क्यों रहे हमारे जीवन में? आज भले ही मैं यहाँ काम करके काफी पैसे संचय कर सकता हूँ। मगर इन पैसों का मूल्य मेरे माता-पिता की खुशी से बढ़कर नहीं है। मेरे माता-पिता ने मुझसे कभी भी नहीं कहा कि मुझे लंदन और अमेरिका देखना है। वे तो सिर्फ मुझे देखना चाहते हैं। मुझसे बातें करना चाहते हैं। मेरे साथ समय बिताना चाहते हैं। क्या उनके इस सपने को पूरा करना मेरा कर्तव्य नहीं है? बचपन में पंछियों को देखकर अकसर सोचा करता था कि इनके पास तो पंख है चाहें तो उड़ कर कहीं भी जा सकते हैं और बस सकते हैं फिर भी ये क्यों नहीं जाते? आज मुझे इसका उत्तर मिला है।
          आज परिवारों में जितने भी मतभेद होते हैं, उसका एक कारण है, “समय का अभाव।” किसी भी रिश्ते को मजबूत होने में समय, महत्त्व और संवेदना का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। आज पैसा और पोजीशन पाने की होड़ में बाप के पास बेटे के लिए पर्याप्त समय नहीं है। बेटे के पास बाप के लिए समय नहीं है। परिवार के सदस्यों के पास एक दूसरे के लिए समय नहीं है। ऐसे में रिश्तों का कमजोर होना आम बात है। और इतिहास के पन्ने इस बात से भरे  हुए  हैं कि जिस परिवार में सहयोग और आपसी मजबूती न हो वह बिखर ही गई है। आज जो भी व्यक्ति पैसा और पोजीशन पाने की होड़ में बेतहाशा भागा जा रहा है, मानवीय संबंधों को अपने लक्ष्य का बाधा मान रहा है, एक दिन वह इसी मानवीय संबंधों के लिए तरसेगा। और चाह कर भी वह इसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर पाएगा। फ़िल्म दीवार का संवाद “ आज मेरे पास बंगला है, पैसा है,  बैक बैलेंश है। क्या है तुमारे पास? मेरे पास माँ है।” मेरे कथनों को सिद्ध करने के लिए यह काफी है। 
          ये केवल माता-पिता के संदर्भ में ही नहीं बल्कि अन्य रिश्तों के भी संदर्भ में सटीक बैठता है। भले ही वो आपका दोस्त हो, आपके परिजन हो या फिर  आपकी प्रेमिका रिश्ते की मजबूती के लिए समय, महत्त्व, संवेदना, विश्वास और इज्ज़त का होना परम आवश्यक है।
          बड़े-बड़े साधु-संत अपने-अपने तरीके से जीवन को परिभाषित करते हैं। पर मेरा मानना है कि जीवन और कुछ नहीं बल्कि समय ही है। समय,  ठीक जन्म लाभ करने से लेकर काल के गाल में समाने तक। तो जब जीवन ही समय है तो उसके लिए हमें समय निकालना चाहिए। और जीवन जीवन बनता है हमारे परिवार वालों से, हमारे परिजनों से हमारे दोस्तों से।  
देना है यदि किसी को उपहार अनमोल।
तो दे दो उसे अपना समय और मीठे बोल।

                                                                                                लेखक
                                              अविनाश रंजन गुप्ता 

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