Kallu Kumhaar Ki Unakoti By Avinash Ranjan Gupta

1. ‘उनाकोटीका अर्थ स्पष्ट करते हुए बतलाएँ कि यह स्थान इस नाम से क्यों प्रसिद्ध है?
2. पाठ के संदर्भ में उनाकोटी में स्थित गंगावतरण की कथा को अपने शब्दों में लिखिए।
3. कल्लू कुम्हार का नाम उनाकोटी से किस प्रकार जुड़ गया?
4. ‘मेरी रीढ़ में एक झुरझुरीसी दौड़ गई- लेखक के इस कथन के पीछे कौनसी घटना जुड़ी है?
5. त्रिपुराबहुधार्मिक समाजका उदाहरण कैसे बना?
6. टीलियामुरा कस्बे में लेखक का परिचय किन दो प्रमुख हस्तियों से हुआ? समाजकल्याण के कार्यों में उनका क्या योगदान था?
7. कैलासशहर के ज़िलाधिकारी ने आलू की खेती के विषय में लेखक को क्या जानकारी दी?
8. त्रिपुरा के घरेलू उघोगों पर प्रकाश डालते हुए अपनी जानकारी के कुछ अन्य घरेलू उघोगों के विषय में बताइए?








1.  उनाकोटी का मतलब है एक कोटि, यानी एक करोड़ से एक कम। दंतकथा के अनुसार उनाकोटी में शिव की एक कोटि से एक कम मूर्तियाँ हैं।     पहाड़ों को अंदर से काटकर यहाँ विशाल आधारमूर्तियाँ बनी हैं। यह भारत के सबसे बड़े शैव तीर्थों में से एक है। यहाँ आदिवासी धर्म फलते-फूलते हैं। यह स्थान जंगल के काफी भीतर है।  यहाँ के  मूर्तियों के निर्माता कल्लू कुम्हार माने जाते हैं। वह पार्वती का भक्त था और शिवपार्वती के साथ उनके निवास कैलाश पर्वत पर जाना चाहता था। पार्वती के जोर देने पर शिव कल्लू को कैलाश ले चलने को तैयार हो गए लेकिन इसके लिए शर्त यह रखी कि उसे एक रात में शिव की एक कोटि मूर्तियाँ बनानी होंगी। कल्लू अपनी धुन के पक्के व्यक्ति की तरह इस काम में जुट गया। लेकिन जब भोर हुई तो मूर्तियाँ एक कोटि से एक कम निकलीं। कल्लू नाम की इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने पर अड़े शिव ने इसी बात को बहाना बनाते हुए कल्लू कुम्हार को अपनी मूर्तियों के साथ उनाकोटी में ही छोड़ दिया और चलते बने।

2.  पहाड़ों को अंदर से काटकर यहाँ विशाल आधारमूर्तियाँ बनी हैं। एक विशाल चट्टान ऋषि भगीरथ की प्रार्थना पर स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण के मिथक को चित्रित करती है। गंगा अवतरण के धक्के से कहीं पृथ्वी धँसकर पाताल लोक में न चली जाए, लिहाज़ा शिव को इसके लिए तैयार किया गया कि वे गंगा को अपनी जटाओं में उलझा लें और इसके बाद इसे धीरेधीरे पृथ्वी पर बहने दें। शिव का चेहरा एक समूची चट्टान पर बना हुआ है और उनकी जटाएँ दो पहाड़ों की चोटियों पर फैली हैं। भारत में शिव की यह सबसे बड़ी आधारमूर्ति है। पूरे साल बहने वाला एक जल प्रपात पहाड़ों से उतरता है जिसे गंगा जितना ही पवित्र माना जाता है।  

3.  यह पूरा इलाका ही शब्दशः देवियोंदेवताओं की मूर्तियों से भरा पड़ा है। इन आधारमूर्तियों के निर्माता अभी चिह्नित नहीं किए जा सके हैं। स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि इन मूर्तियों का निर्माता कल्लू कुम्हार था। वह पार्वती का भक्त था और शिवपार्वती के साथ उनके निवास कैलाश पर्वत पर जाना चाहता था। पार्वती के जोर देने पर शिव कल्लू को कैलाश ले चलने को तैयार हो गए लेकिन इसके लिए शर्त यह रखी कि उसे एक रात में शिव की एक कोटि मूर्तियाँ बनानी होंगी। कल्लू अपनी धुन के पक्के व्यक्ति की तरह इस काम में जुट गया। लेकिन जब भोर हुई तो मूर्तियाँ एक कोटि से एक कम निकलीं। कल्लू नाम की इस मुसीबत से पीछा छुड़ाने पर अड़े शिव ने इसी बात को बहाना बनाते हुए कल्लू कुम्हार को अपनी मूर्तियों के साथ उनाकोटी में ही छोड़ दिया और चलते बने। इस प्रकार उनाकोटि की मूर्तियों के निर्माता के रूप में कल्लू कुम्हार को प्रसिद्धि मिली और उसका नाम उनकोटि से जुड़ गया। 

4.  त्रिपुरा के हिंसाग्रस्त मुख्य भाग में प्रवेश अंतिम पड़ाव टिलियामुरा ही है। राष्ट्रीय राजमार्ग – 44 पर अगले 83 किलोमीटर यानी मनु तक की यात्रा के दौरान ट्रैफिक सी.आर.पी.एफ़ की सुरक्षा में काफ़िले की शक्ल में चलता है।  काफ़िला दिन में 11 बजे के आसपास चलना शुरू हुआ। मैं अपनी शूटिंग के काम में ही इतना व्यस्त था कि उस समय तक डर के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं थी जब तक निचली पहाड़ियों पर इरादतन रखे दो पत्थरों की तरफ़ मेरा ध्यान आकृष्ट नहीं किया।  दो दिन पहले हमारा एक जवान यहीं विद्रोहियों द्वारा मार डाला गया था”, सुरक्षा कर्मी ने लेखक से कहा यह सुनते ही लेखक की  रीढ़ में एक झुरझुरी सी दौड़ गई। मनु तक की अपनी शेष यात्रा का यह खयाल लेखक अपने दिल से निकाल नहीं पाया कि हमें घेरे हुए सुंदर और अन्यथा शांतिपूर्ण प्रतीत होने वाले जंगलों में किसी जगह बंदूकें लिए विद्रोही भी छिपे हो सकते हैं।।

5.  त्रिपुरा में लगातार बाहरी लोगों के आने से यह राज्य बहुधार्मिक समाज का उदाहरण बना है। त्रिपुरा में उन्नीस अनुसूचित जनजातियों और विश्व के चारों बड़े धर्मों का प्रतिनिधित्व मौजूद है। अगरतला के बाहरी हिस्से पैचारथल में एक सुंदर बौद्ध मंदिर है जिससे पता चलता है कि त्रिपुरा के उन्नीस कबीलों में से दो, यानी चकमा और मुघ महायानी बौद्ध हैं। ये कबीले त्रिपुरा में बर्मा या म्यांमार से चटगाँव के रास्ते आए थे। दरअसल इस मंदिर की मुख्य बुद्ध प्रतिमा भी 1930 के दशक में रंगून से लाई गई थी।

6.  टीलियामुरा शहर में लेखक की मुलाकात हेमंत कुमार जमातिया से हुई जो यहाँ के एक प्रसिद्ध लोकगायक हैं और जो 1996 में संगीत नाटक अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी हो चुके हैं। हेमंत कोकबारोक बोली में गाते हैं जो त्रिपुरा की कबीलाई बोलियों में से है। जवानी के दिनों में वे पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के कार्यकर्ता थे। लेकिन जब उनसे मेरी मुलाकात हुई तब वे हथियारबंद संघर्ष का रास्ता छोड़ चुके थे और चुनाव लड़ने के बाद ज़िला परिषद् के सदस्य बन गए थे । टीलियामुरा शहर के वार्ड नं. 3 में लेखक की  मुलाकात एक और गायक मंजु ऋषिदास से हुई। ऋषिदास मोचियों के एक समुदाय का नाम है। लेकिन जूते बनाने के अलावा इस समुदाय के कुछ लोगों की विशेषज्ञता थाप वाले वाद्यों जैसे तबला और ढोल के निर्माण और उनकी मरम्मत के काम में भी है। मंजु ऋषिदास आकर्षक महिला थीं और रेडियो कलाकार होने के अलावा नगर पंचायत में अपने वार्ड का प्रतिनिधित्व भी करती थीं। वे निरक्षर थीं। लेकिन अपने वार्ड की सबसे बड़ी आवश्यकता यानी स्वच्छ पेयजल के बारे में उन्हें पूरी जानकारी थी। नगर पंचायत को वे अपने वार्ड में नल का पानी पहुँचाने और इसकी मुख्य गलियों में ईंटें बिछाने के लिए राज़ी कर चुकी थीं

7.  ज़िलाधिकारी केरल के एक नौजवान थे। वे तेज़तर्रार, मिलनसार और उत्साही व्यक्ति थे। उन्होंने बताया कि टी.पी.एस. (टरू पोटेटो सीड्स) की खेती को त्रिपुरा में, खासकर उत्तरी ज़िले में किस तरह सफलता मिली है। आलू की बुआई के लिए आमतौर पर पारंपरिक आलू के बीजों की ज़रूरत दो मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर पड़ती है। इसके बरक्स टी.पी.एस की सिर्फ़  100 ग्राम मात्रा ही एक हेक्टेयर की बुआई के लिए काफ़ी होती है। त्रिपुरा से टी.पी.एस. का निर्यात अब न सिर्फ़  असम, मिज़ोरम, नागालैंड और अरूणाचल प्रदेश को, बल्कि बांग्लादेश, मलेशिया और विएतनाम को भी किया जा रहा है।

8.  त्रिपुरा में आलू की खेती के साथ-साथ यहाँ की लोकप्रिय घरेलू गतिविधियों में से एक है अगरबत्तियों के लिए बाँस की पतली सींकें तैयार करना। अगरबत्तियाँ बनाने के लिए इन्हें कर्नाटक और गुजरात भेजा जाता है । अन्य घरेलू उद्योगों में माचिस, साबुन, प्लास्टिक, स्टील,लकड़ी आदि के घरेलू उद्योग सर्वप्रसिद्ध है । घरेलू आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है जिससे उद्योगों में भी प्रतिद्वंद्विता की भावना बढ़ती जा रही है।









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