वापसी Vaapasi By Usha Priyamvada Complete Learning
https://youtu.be/BECq56efFnU
वापसी
उषा प्रियंवदा
पाठ का उद्देश्य
संवेदनशीलता का शून्य पर आ जाना।
स्वाभिमान के खंडित होने की दशा।
मतलबियों की बढ़ती संख्या।
समाज की सच्चाई से रू-ब-रू होंगे।
वापसी के दो अर्थों का बोध।
अपनों के बीच पराएपन का एहसाह।
लेखिका परिचय
उषा प्रियंवदा अंग्रेजी और हिंदी दोनों में समान रूप से लिखती हैं।
उन्होंने उपन्यास और कहानियाँ दोनों लिखे हैं। “पचपन खंभे लाल दीवारें” तथा “रुकोगी नहीं राधिका” उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं। वे
आजकल विदेश में रहकर अध्यापन कार्य कर रही हैं। उनका कहना है कि विदेश में रहकर हिंदी
लेखन के माध्यम से वे भारत से जुड़ी रहती हैं। वे अत्यंत संवेदनशील कलाकार हैं।
उनकी कहानियाँ अनुभूतिजन्य हैं। अपने लेखन के संबंध में उन्होंने कहा है-“मेरी
कहानियों के पीछे एक बीज ज़रूर होता है-एक विचार, एक इमेज, एक अनुभव या एक अनुभूति का।” आप
सहज अनुभूतिजन्य होने के कारण अकृत्रिमता से दूर कला का मनोरम रूप प्रस्तुत करती
हैं तथा यह कलापूर्ण सहजता ही उनकी कहानियों को हृदयस्पर्शी बनाती है। आप
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कथा-साहित्य की श्रेष्ठ लेखिका हैं।
कथानक की समीक्षा
गजाधर बाबू 35 वर्ष रेलवे में नौकरी करने के बाद रिटायर होकर अपने घर जाते हैं, चैन का जीवन बिताने। 35 वर्ष तो काम तथा तबादलों के
धकापेल में बीते थे। नौकरी के दौरान उन्होंने अनुभव किया था कि उनके बच्चे और
पत्नी उनका बड़ा सम्मान और सेवा करते हैं। परंतु रिटायर होकर घर आने के बाद उनकी
यह खुशी क्षणिक ही रहती है। वे अनुभव करते हैं कि वे घर के लिए एक अनचाहे मेहमान
हैं। पुत्र-पुत्री, पुत्र वधू सभी उनसे कटते हैं। पत्नी काम-धंधों में व्यस्त रहती है।
इस असहाय स्थिति से ऊब कर वे नई नौकरी खोजते हैं और पुनः अकेले घर छोड़कर चले जाते
हैं। गजाधर बाबू के जीवन की विडंबना हमारे आधुनिक मध्यवर्गीय समाज पर ऐसा व्यंग्य
है कि वह हमारी आस्था को हिला देती है। उषा प्रियंवदा ने इस सत्य को सहज-स्वाभाविक
भाषा के माध्यम से हृदयस्पर्शी बना दिया है। आज हमारे समाज में अनेक ऐसे उपेक्षित
वृद्ध हैं जो अंत समय तक ऐसे ही जीते हुए अपना समय बिताते हैं।
कथासार
पैंतीस बर्ष के लंबे अंतराल तक रेलवे में नौकरी के बाद गजाधर बाबू
सेवानिवृत होकर घर लौटते हैं। लेकिन परिवार से लंबी अनुपस्थिति उन्हें परिवार के ढाँचे
से बाहर कर देती है। परिवार में आने की जिस सुखद जीवन की कल्पना उन्होंने की थी
वही परिवार उन्हें एक अवांछित बोझ महसूस करता है।
स्वभाव से बहुत स्नेही व्यक्ति गजाधर बाबू ने नौकरी के उन पैंतीस
वर्षों को अपने परिवार के हित में अधिकांश समय स्टेशनों पर अकेले रहकर काटा था। उनके
अकेले क्षणों में ही उन्होंने परिवार के साथ रहने की मधुर कल्पना की थी। उसी
उत्साह से जब वह लौटकर आते हैं तो उस छोटे से घर में ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि
उसमें गजाधर बाबू के रहने का कोई स्थान न बचा था, जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ
अस्थायी प्रबंध कर दिया जाता है उसी प्रकार बैठक में कुर्सियों को दीवार से सटाकर
बीच में गजाधर बाबू के लिए पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। कहने भर को पत्नी के पास
अंदर एक छोटा कमरा ज़रूर था पर वह भी घर के सामान से भरा रहता था।
गजाधर बाबू परिवार को अपने ढंग से देखना चाहते हैं और परिवार है कि
उनका कैसा भी दखल सहन नहीं करता। उनकी पत्नी-बेटा, बहू-बेटी सभी को लगता है, बाबूजी हर चीज में दखल देते हैं।
सभी उनके विचारों का खंडन करते हैं और उन्हें अस्तित्वहीन कर देते हैं। अपने घर
में गजाधर बाबू की क्या स्थिति है, उनकी ‘चारपाई’ जैसे उस स्थिति को स्पष्ट करती है। कुछ दिन तो वह चारपाई बैठक में
पड़ी रही फिर एक दिन पत्नी के उसी छोटे-से कमरे में डाल दी जाती है।
परिवार में एक ओर आर्थिक तंगी, लड़कों- बेटी और बहू का
उपेक्षापूर्ण रवैया, उनके आदेशों और सुझावों के प्रति रुखापन, घर के खर्च को लेकर चिंता करते
पति-पत्नी, उनके बीच अपने-अपने ढंग से जीने के इच्छुक बच्चे, ऐसे में अमर के अलग रहने का
प्रस्ताव, अपने ही परिवार में असंगत एवं विस्थापित जिंदगी जीते गजाधर बाबू को
इस बात का एहसास कराते हैं कि वह जिंदगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा, उसमें से एक बूँद भी न मिला। अचानक
ही उनका यह निर्णय कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। अपने ही घर में परदेशी
की तरह पड़े रहेंगे और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोलें हताशा ओर
विवशता से लिए गए अपने निर्णय को वह व्यवहार में लाते हैं। इस परिवर्तन को भले ही
घर के अन्य लोग अनदेखा करें लेकिन उन्हें सबसे बड़ा गम यह था कि उनकी पत्नी ने भी
उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्य नहीं किया। उनका अहं फिर चोट खाता है। उनका आहत अहं यह
अनुभव करता है कि वह पत्नी और बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त मात्र हैं।
उनकी पत्नी तक का उनके प्रति बदलता रवैया उन्हें कहीं गहरे पीड़ा-बोध का एहसास
देता है।
पत्नी से सर्वथा उपेक्षित भाव गजाधर बाबू को पलायन की ओर उन्मुख
करता है। अपनों से परायेपन की स्थिति में वह एक नई नौकरी खोज लेते हैं। और अपना घर
छोड़कर बाहर जाने का निर्णय करते हैं। गजाधर बाबू चाहते हैं कि उनकी पत्नी भी उसके
साथ चले लेकिन उनके इस प्रस्ताव से पत्नी का सकपका जाना और यह कहना - “मैं चलूँगी तो यहाँ का क्या होगा? इतनी बड़ी गृहस्थी फिर सयानी
लड़की”–उन्हें गहरे तक आहत करता है। पत्नी उस बड़ी गृहस्थी और स्वतंत्र रुचि
संतानों के साथ रहना पसंद करती है। अस्वीकृत
और बहिष्कृत हो जाने की स्थिति को कहानी की अन्तिम अभिव्यक्ति और उजागर करती है जब
उसकी पत्नी अपने बेटे नरेंद्र दे कहती है – “अरे नरेंद्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल
दें। उसमें चलने तक की जगह नहीं” कहानी में आदमी की अंतरंगता का साक्षात्कार न
कराकर आदमी के ही अनुपस्थित हो जाने का बोध कराती है।
पात्र -परिचय
गजाधर बाबू – गजाधर बाबू कहानी के केंद्रीय पात्र हैं और स्वभाव से
बड़े ही स्नेही हैं। अपना सारा जीवन उन्होंने अपने परिवार के भरण-पोषण में लगा दिया
और अब सेवानिवृत होने के बाद अपने परिवार के साथ अपना शेष जीवन बिताना चाहते हैं
पर उनके परिवार के सदस्य उन्हें बोझ मानने लगे हैं। उनकी पत्नी से भी उन्हें
उपेक्षा ही प्राप्त होती है।
गनेशी – रेलवे में कार्य करने के दौरान गजाधर बाबू का सहायक जिसने
पूरी निष्ठा से गजाधर बाबू की सेवा की और उन्हें अपना अभिभावक मानता है।
गजाधर की पत्नी – ये कहने को तो गजाधर बाबू की पत्नी है और उनके
नाम का सिंदूर अपने माँग में भरती है पर पूर्ण रूप से ये अपने बच्चों के प्रति
समर्पित हो चुकी है। इन्हें अपने पति गजाधर बाबू के स्वाभिमान की तनिक भी चिंता
नहीं रही। बदलते समय के साथ इन्होंने ने अपने बच्चों की तरह गजाधर बाबू के बिना
सीख लिया है।
अमर – उनका बड़ा बेटा जिसकी शादी हो चुकी है और वह अपनी पत्नी के
रंग में पूरी तरह से डूब चुका है। वह अपने पिता के दख़लअंदाज़ी को स्वीकार नहीं कर
पाता और अलग रहने का प्रस्ताव भी अपनी माँ के सामने रखता है।
बसंती – उनकी बेटी जो काफी
उच्छृंखल हो चुकी है। माँ के मना करने पर भी वह पड़ोस में शीला के यहाँ जाती है
जहाँ बड़े-बड़े लड़के हैं। जब उसे खाना बनाने के लिए कहा जाता है तो वह जान-बूझकर ऐसा
खाना बनाती है कि उसे दुबारा खाना बनाने को न कहा जाए।
नरेंद्र - गजाधर बाबू का दूसरा बेटा जो पढ़ाई कर रहा है और जब
पिताजी को सेठ रामजी लाल के चीनी मील में नौकरी मिल जाती है तो नरेंद्र उनका सामान
बड़ी तत्परता से बाँध देता है।
कांति – कांति गजाधर बाबू की बड़ी बेटी है और उसकी शादी हो चुकी
है।
चारपाई और गजाधर बाबू
‘चारपाई’ को एक ऐसे सांकेतिक चित्रात्मक
धरातल पर कहानी में प्रस्तुत किया है, जैसे वह उस घर में गजाधर बाबू की स्थिति का आभास कराती है। पहले
चारपाई का बैठक में पड़ा रहना - “जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबंध कर दिया जाता है। फिर
पत्नी के उस छोटे से कमरे में, जहाँ घर भर का पूरा सामान ठसाठस भरा पड़ा है और अंत में उनके ‘वापस’ जाते समय बड़े व्यंजक तरीके से
उनकी पत्नी का कहना – “अरे नरेंद्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दें।” - जैसे उनके अस्तित्व को ही
नकार दिया जाता है।
सामंजस्य
‘वापसी’ कहानी का कथानक कमोबेस प्रेमचंद ने ‘बूढ़ी काकी’ और ‘सुजान भगत’, भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ नरेंद्र कोहली की ‘शटल’ आदि से मिलती है जिसमें परिवार के
किसी एक महत्त्वपूर्ण सदस्य की उपेक्षा होती है।
विडंबना
इस कहानी में ऐसे सत्य का उद्घाटन हुआ है जिसे आज लगभग हर परिवार
में कमोबेस लक्षित किया जाता है। गजाधर बाबू जिन्होंने अपने जीवन के 35 वर्षों की
कमाई अपने बच्चों के पढ़ाई-लिखाई और उनके लिए शहर में मकान बनवाने में खर्च कर दिए
आज सेवानिवृत होने पर अपने ही घर में उपेक्षित हैं। उनकी पत्नी जो गजाधर बाबू के अस्तित्व से माँग में
सिंदूर भरने की अधिकारिणी है। उसके सामने वह दो वक्त भोजन की थाली रख देने से सारे
कर्तव्यों से छुट्टी पा जाती है।” बेटे-बेटियाँ और बहू उन्हें अब व्यर्थ की वस्तु मान बैठे हैं। जब
तक वे धनोपार्जन के माध्यम थे तब तक उनकी अच्छी इज्ज़त थी पर जैसे ही वे एसेट से
लाइबिलिटी बन चुके हैं उनका वर्चस्व भी जाता रहा। अपनों के बीच रहकर जब उन्हें पराएपन
का एहसास होने लगा तो उन्होंने फिर से वापसी का मन बना लिया और चीनी मील में नौकरी करने के उद्देश्य से घर से चले गए।
वापसी की सार्थकता
कहानी का शीर्षक ‘वापसी’ अपने में दो अर्थ लिए हुए है परंतु यह पाठकों की विचारधारा पर
निर्भर है कि वे किस संदर्भ में वापसी का अर्थ स्वीकार करते हैं। पहला अर्थ ‘वापसी’ का तो यह है कि 35 वर्षों के बाद
गजाधर बाबू सेवानिवृत होकर अपने परिवार में वापसी करेंगे। दूसरा अर्थ ‘वापसी’ का यह है कि अपने घर में अनचाहे
मेहमान की तरह रहना उनके अहं को क्षत-विक्षत करता है और वे यह मन बना लेते हैं कि
फिर से अपने कर्मक्षेत्र में वापसी करेंगे।
भाषा तथा संवाद योजना
इस पाठ
में सरल-सहज और व्यावहारिक भाषा का प्रयोग हुआ है और जहाँ तक संवाद योजना की बात
है वह तो इस कथा की जान है। उदाहरण के लिए-
नरेंद्र ने
थाली सरकाकर कहा, “मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।”
बसंती तुनककर
बोली, “तो न खाओ”, कौन तुम्हारी खुशामद करता है?”
“तुमसे
खाना बनाने को कहा किसने था?” नरेंद्र चिल्लाया।
“बाबूजी
ने।”
“बाबूजी
को बैठे-बैठे यही सूझता है।”
इस संवाद
से पात्रों की मन:स्थिति का परिचय सहज रूप से ही हो जाता है।
प्रश्न
गजाधर बाबू कौन थे और उनकी इच्छा क्या थी?
‘वापसी’ का अर्थ इस पाठ में कितने अर्थों
में लिया गया है?
गनेशी कौन था? वह किसका बिस्तर बाँध रहा था?
गजाधर बाबू को अकेले क्यों रहना पड़ता था?
गजाधर बाबू को अपनी पत्नी की कौन-कौन सी बातें याद आती थीं?
गजाधर बाबू के आने से पहले अमर ने अलग होने की बात क्यों नहीं सोची
थी?
गजाधर बाबू ने अपने व्यवहार में क्या परिवर्तन लाने का निश्चय किया
और क्यों?
गजाधर बाबू को ऐसा क्यों लगा कि वह जिंदगी द्वारा ठगे गए हैं?
निष्कर्ष
प्रस्तुत कहानी बदलती परिस्थितियों में बदलते पारिवारिक संबंधों पर
आधारित है। यह प्रवृत्ति व्यक्ति के परस्पर संबंधों में दरार उत्पन्न करती है।
पुरानी और नई पीढ़ी का संघर्ष, पति और पत्नी, पिता और पुत्र, भाई और बहनों के संबंधों की टूटन और शिथिलता परिलक्षित होती है।
बौद्धिक विकास, पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति का क्रेज, दिनों-दिन जीवन में संघर्ष को
बढ़ोत्तरी, आत्मकेंद्रित चिंतन आदि के कारण पुरानी मान्यताएँ और लिहाज समाप्त
हो रही हैं। अब ज़िंदगी का यही उसूल बन गया है कि दाता बने रहोगे तो पूछे जाओगे और
जैसे ही विधाता बनने की सोचोगे तो धकिया दिए जाओगे।
Comments
Post a Comment