चित्रलेखा upnyas भगवतीचरण वर्मा kathasar, sanxipt katha, bhasha, shaili, kathopkathan, mool samvedana

 चित्रलेखा

भगवतीचरण वर्मा

लेखक परिचय

भगवतीचरण वर्मा जी का जन्म 6 अगस्त, सन् 1903 में उत्तर प्रदेश के एक संभ्रांत परिवार में हुआ। इनके पिता अपने युग के प्रसिद्ध और सम्मानित वकीलों में से एक माने जाते थे। यह अपने पिता की सबसे बड़ी संतान थे। पर पितृ-सुख भोगना इनके भाग्य में अधिक नहीं बदा था। वर्मा जी अभी केवल पाँच ही वर्ष के थे कि इनके पिता का स्वर्गवास हो गया। पिता के स्वर्गवास के बाद इनका लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा अपने चाचा के स्नेह में ही हुई। अपने पिता के चरण चिह्नों पर चलते हुए उन्होंने भी प्रयाग विश्व- विद्यालय से बी० ए०, एल० एल० बी० की परीक्षा पास की और वकील बन गए। वर्मा जो वकील तो बन गए, पर वास्तव में वह क्षेत्र उनकी आंतरिक रुचियों और प्रवृत्तियों के अनुकूल नहीं था, अतः, उस क्षेत्र में अधिक दिनों तक न रह सके। जल्दी ही वे सब कुछ छोड़-छाड़ कर साहित्य-साधना के क्षेत्र में आ गए और यहाँ इनका मन खूब रमने लगा।

इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं पतन, चित्रलेखा (1934), तीन वर्ष, टेढ़े-मेढ़े रास्ते, अपने खिलौने, भूले-बिसरे चित्र, वह फिर नहीं आई, सामर्थ्य और सीमा ये सभी उपन्यास हैं। मधुकण इनकी कविता संग्रह है और वसीहत’, रुपया तुम्हें खा गया’, सबसे बड़ा आदमी ये इनके कुछ प्रसिद्ध नाटक हैं। इन्हें पद्मभूषण और साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।

इनका देहावसान 5 अक्टूबर 1981 को हुआ। 

 

संक्षिप्त कथा

चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में राजधानी पाटलिपुत्र के निकट ही महाप्रभु रत्नांबर का आश्रम था। रत्नांबर के दो शिष्य थे - श्वेतांक और विशालदेव। श्वेतांक तथा विशालदेव दोनों कुशल छात्र थे। एक दिन श्वेतांबर ने गुरु (रत्नांबर) से पूछा, पाप क्या है?” गुरु (रत्नांबर) ने कहा, यह विषय अध्ययन से नहीं अपितु अनुभव द्वारा जानी जा सकती है। यदि तुम दोनों - श्वेतांक और विशालदेव - इसे जानना चाहो तो एक वर्ष के लिए इस नगर के दो व्यक्तियों के पास जा कर रहना होगा। उनमें एक है भोगी बीजगुप्तदूसरा है योगी कुमारगिरियह सुनकर दोनों शिष्य गुरु के चरणों में गिरकर जिज्ञासामय दृष्टि से देखने लगे तथा अनुभव के अथाह सागर में बहने के लिए तैयार हो गए। रत्नांबर इससे बहुत प्रसन्न हुए तथा दूसरे दिन श्वेतांक को बीजगुप्त की सेवा में तथा विशालदेव को कुमारगिरि की शिष्यता में लगाकर स्वयं तपस्या में लग गए। बीजगुप्त हृदय का विशाल व्यक्ति था तथा स्वयं भी रत्नांबर का शिष्य रह चुका था। अतः गुरु की आज्ञानुसार श्वेतांक को अपने गुरुभाई तथा सेवक दोनों रूप से प्रेमभाव रखने लगा। वह सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का एक सामंत था; यद्यपि उसकी अवस्था अभी केवल पच्चीस वर्ष की थी। उसका प्रेम एक नर्तकी चित्रलेखा से हो गया था। वह उसे अपनी पत्नी रूप में स्वीकार करना चाहता था। चित्रलेखा भी बीजगुप्त के प्रेम में पगी हुई थी; दोनों नित्य सायंकाल मदिरा पान करते तथा रात्रि को चंद्रगुप्त श्वेतांक द्वारा उसे उसके घर पहुँचवा दिया करता। इस प्रकार यह प्रेम यद्यपि विधिवत् न था; तथापि दोनों का प्रेम सत्य की धारा में बहने लगा। लोग उन्हें वासनाओं के दास समझने लगे।

चित्रलेखा पाटलिपुत्र की अद्वितीय सुंदर नर्त्तकी है। परंतु उसकी भी एक कहानी है। वह ब्राह्मण विधवा है जो अठारह वर्ष में सौभाग्य-हीना हो जाती है। यौवन की मस्ती में कृष्णदित्य नामक वर्णशंकर युवक से प्रेम हो जाता है; गर्भ रह जाने के कारण दोनों घर से बाहर निकाल दिए जाते हैं। परंतु अभाग्यवश कृष्णदित्य को मृत्यु हो जाती हैं; कुछ दिनों बाद बच्चा भी मर जाता है। रह गई चित्रलेखा, उसे एक नर्तकी ने अपने यहाँ आश्रय दिया।अब वह नर्त्तकी थी परंतु वेश्या नहीं। बीजगुप्त का कड़ा विरोध करके वह पहले-पहल प्रेमदान नहीं देती है परंतु प्रेम एक स्वाभाविक वस्तु है; वह हो ही गया। अब दोनों- चित्रलेखा तथा बीजगुप्त - प्रेम-मंदिर के पुजारी हैं। श्वेतांक इन्हीं दोनों प्रेम-पुजारियों का सेवक, सखा तथा गुरुभाई सब कुछ है।

दूसरी ओर विशालगुप्त अपने नए गुरु में श्रद्धा तथा विश्वास रखता है। उसके दृष्टिकोण से कुमारगिरि वासनाओं पर विजय पा चुका था; उसे संयम और नियम में विश्वास था। विशाल गुप्त ऐसे गुरु को पाकर धन्य हो गया है।

आगे चलकर दोनों विरोधी धाराओं का संघर्ष होता है। भोग और योग की टक्कर होती है; पात्रों में अंतर्द्वन्द्व चल पड़ता है। एक दिन चंद्रगुप्त अपने दरबार में दर्शन पर तर्क करने के लिए सभी सामंतों, पंडितों तथा योगियों को बुलाता है। वहाँ चाणक्य तथा कुमारगिरि का वाद-विवाद चलता है। चाणक्य हार जाता है: कुमारगिरि विजयी होकर भी चित्रलेखा से हार जाते हैं। विजयमुकुट चित्रलेखा के सिर पर रखा जाता है। चित्रलेखा उस मुकुट को कुमारगिरि को पहना देती है तथा दरबार में ठुमक कर नाच पड़ती है। कुमारगिरि स्तंभित रह जाते हैं तथा हर्ष, शोक: जय, पराजय दोनों को साथ लिए आश्रम चले आते हैं।

यहीं से परिस्थितियों का चक्र तेजी से घूमता है; उसी चक्र के फेर में ये दोनों - कुमारगिरि तथा चित्रलेखा - पड़ जाते हैं।चित्रलेखा विलास के लोभ में बीजगुप्त की ओर से तटस्थ तथा कुमारगिरि के निकट होती जा रही हैबीजगुप्त इस कारण उदास-सा रहने लगता है। इस बीच पाटलिपुत्र के एक वयोवृद्ध सामंत मृत्युंजय अपनी पुत्री यशोधरा के जन्मोत्सव पर बीजगुप्त, चित्रलेखा, कुमारगिरि आदि को आमंत्रित कर के बीजगुप्त से अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव करते हैं। बीजगुप्त चित्रलेखा को अपनी पत्नी बताकर प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है। चित्रलेखा और कुमारगिरि बीजगुप्त को विवाह कर लेने के लिए बल देते हैं। इन दोनों का विचार है कि बीजगुप्त का विवाह यशोधरा से हो जाने पर विलास-मार्ग की रुकावट जाती रहेगी परंतु बीजगुप्त विवाह सदैव के लिए अस्वीकार करके अपने घर चला आता है।

अब कुमारगिरि व चित्रलेखा मिल जाते हैं परंतु दोनों अपने-अपने ढोंग बनाए हुए हैं। प्रेम होते हुए भी अपने प्रेम की वार्तालाप तथा क्रिया नहीं कर पाते। बीजगुप्त दोनों की इस मैत्री पर बड़ा दुखित होता है तथा काशी में मन बहलाने के लिए आ जाता है; साथ ही श्वेतांक तथा मृत्युंजय भी काशी आते हैं।

बीजगुप्त पाटलिपुत्र छोड़कर काशी इसलिए आया है कि चित्रलेखा के प्रति प्रेम-भाव को पाल सके तथा नगर के लोग चित्रलेखा और बीजगुप्त पर उनके प्रेम छूटने पर हँसी न उड़ा सके परंतु साथ में यशोधरा और मृत्युंजय का रहना उसे खल उठाइधर यशोधरा और श्वेतांक एक दूसरे के बहुत निकट आ गए हैं, दोनों एक दूसरे पर मोहित हो चले हैंइस प्रकार उसके मन का अंतर्द्वन्द्व और भी तीव्र हो उठता है; वह बेचैन हो जाता है। अंततः इस अशांति से छुटकारा पाने के लिए यशोधरा से विवाह करने का निश्चय मन ही मन कर लेता है। सभी काशी से पाटलिपुत्र वापिस आ जाते हैं।

 

दूसरी ओर कुमारगिरि और चित्रलेखा दूसरे शब्दों में योगी और नर्तकी प्रेम की एक ही नाव पर चढ़कर भी अभी अपने अपने ढोंग बनाए हुए हैं। मन दोनों का डिग चुका है परंतु अब नर्तकी कुछ उदास-सी रहती है। यह देख कुमारगिरि नर्तकी चित्रलेखा को बीजगुप्त और यशोधरा की शादी की झूठी बात सुनाकर उसे आत्म समर्पण को बाध्य कर देता दोनों रात्रि में भोग करते हैं। इस प्रकार कुमारगिरि जैसा योगी का बुरी तरह पतन हो जाता हैरही चित्रलेखा : सो बात की वास्तविकता को जानकर कुमारगिरि से घृणा करने लगती है; उसे झूठा, पापी, स्वार्थी तथा घृणित समझकर छोड़ देती है और पुनः अपने घर पर आ जाती है। उसे अपने किए पर पछतावा है। अतः अब बीजगुप्त के यहाँ नहीं जाती।

इधर काशी से लौटने पर श्वेतांक यशोधरा के साथ विवाह करना चाहता है और इस प्रस्ताव को बीजगुप्त द्वारा उसके पिता मृत्युंजय के पास रखने की इच्छा प्रकट करता है। इस पर बीजगुप्त क्रोधित हो उठा क्योंकि वह स्वयं यशोधरा से विवाह करने के लिए निश्चय कर चुका था। एतदर्थ श्वेतांक को बुरा भला कह कर वह अपने विवाह का प्रस्ताव लेकर मृत्युंजय के पास आया; परंतु रास्ते ही में उसका हृदय त्याग, दान तथा परोपकार से भर गया। श्वेतांक को डाँटकर पछताने लगा और मृत्युंजय से श्वेतांक तथा यशोधरा के परिणय का प्रस्ताव रख दिया। मृत्युंजय ने श्वेतांक को निर्धन समझकर इस प्रस्ताव को अस्वीकृत किया। इस पर बीजगुप्त अपनी सारी संपत्ति तथा सामंत की पदवी देने का प्रण करके दोनों के विवाह की स्वीकृति मृत्युंजय से ले ली। ऐसा ही हुआ; बीजगुप्त ने सम्राट के पास जाकर अपना सामंत पद श्वेतांक को दिलवाया तथा समस्त वैभव उसे देकर उसका विवाह धूमधाम से किया, परंतु उसी रात को नगर छोड़कर भिखारी वेश में निकल पड़ा। नगर के बाहर होते ही चित्रलेखा उससे मिली और अपनी सस्मित देकर लौटाना चाही परंतु वह अस्वीकार कर दिया।

अंतत: चित्रलेखा की क्षमा प्रार्थना पर वह उसके घर गया। परंतु दूसरे ही दिन प्रातः की लाली में वे दोनों प्रेम के लाल इस विश्व के विभव को लात मारकर भिखारी रूप में निकल पड़े।

इधर एक वर्ष की अवधि समाप्त हुई। श्वेतांक तथा विशालदेव गुरु की आज्ञानुसार उसी निश्चित स्थान पर पहुँच कर रत्नाम्बर से मिलते हैं। आज देखो पाप, पुण्य का अनुभव लेकर गुरु चरणों में झुके हुए हैं। विचित्रता तो इस बात की है कि दोनों शिष्यों के दृष्टिकोणों में महान अंतर है। श्वेतांक बीजगुप्त को त्यागी - देवता तथा परोपकार की मूर्ति मानते हुए कुमारगिरि को स्वार्थी, घृणित एवं पापी समझता है। दूसरी ओर विशालदेव बीजगुप्त को विलासी, कामी तथा पाप की प्रतिमूर्ति समझता है और कुमारगिरि को महान योगी, समर्थ तथा अजित मानता है।

महाप्रभु - रत्नाम्बर के मुख पर एक स्मित - रेखा झलक जाती है और निष्कर्ष बताते हैं कि, विश्व में न तो पाप है और न पुण्य। मानव परिस्थितियों का दास है; स्वतंत्र नहीं फिर पाप-पुण्य कैसा? अतः मेरा मत है कि हम न पाप करते हैं और न पुण्य; केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता हैयही मेरी अंतिम शिक्षा है। तुम्हें आशीर्वाद है।बस, यही उपन्यास का अंत है।

 

पात्र परिचय चरित्र

चित्रलेखा

चित्रलेखा एक असाधारण सुंदरी है। इसके सौंदर्य में वह मादकता है जो कुमारगिरि जैसे योगी और विरक्त को मस्ती के संसार में लाती है। श्वेतांक जैसा भोला ब्रह्मचारी उसके सौंदर्य के जाल में फँस जाता है; बीजगुप्त जैसा महान सामंत भी उसके सौंदर्य में जी भरकर डुबकी लगाना चाहता है।

चित्रलेखा संयम और कुसंयम का उसके जीवन में अद्भुत मिश्रण है। वह विधवा थी; संयम किया परंतु उसे कृष्णादित्य ने तोड़ा, पुनः संयम किया जिसे बीजगुप्त के सौंदर्य और शब्द -माधुर्य ने असंयम में परिवर्तित किया।

वह सच्ची कलाकार है; कला का अनादर वह अपना अनादर समझती है यथा मृत्युंजय के उत्सव में जब कुमारगिरि आता है तो संगीत बंद कर देने पर वह अत्यंत क्रुद्ध हो उठती है। उसके विचार से कुमारगिरि के स्वागत में नृत्य कला का बंद करा देना कला का अपमान करना है

उसका सौंदर्य समाज की वस्तु है; व्यक्ति को स्थान नहींवह असाधारण नर्तकी है; भरी सभा में जब वह ईमन की गति पर थिरक उठती है तो ऐसा ज्ञात होता है; मानो नृत्य कला ही साकार हो गई हो।

उसका व्यक्तित्व कला और दर्शन का सुंदर समन्वय है। उसकी विद्वत्ता के आगे चाणक्य और कुमारगिरि जैसे योगी और दार्शनिक पराजित हो जाते हैं।

विदुषी एवं दार्शनिक होते हुए भी उसमें स्थिरता की भारी कमी है। वह बीजगुप्त जैसे प्रेमी को छोड़कर भोग की लालसा में कुमारगिरि की शिष्या बनती हैएक भ्रष्टा स्त्री जो कुछ कर सकती है; उससे कहीं अधिक चित्रलेखा कर सकती है। उसने अपनी भोग- लिप्सा की वेदी पर अपने सहज प्रेमी बीजगुप्त के सुखमय जीवन का बलिदान किया है।

गर्व एवं आत्मसम्मान दोनों ही उसके व्यक्तित्व के अनिवार्य अंग हैं। वह कुमारगिरि जैसे योगी को भी अपनी सम्मान - रक्षा में प्रकाश पर लुब्ध पतंग को अंधकार का प्रणाम हैकह बैठती है।

इसके चरित्र में एक मनोवैज्ञानिक सत्य है जब तक मनुष्य का अनुभव ठोकरों से नहीं होता; वह अधूरा रहता है। चित्रलेखा भी अपने जीवन भर भोग की ठोकरें खाकर अंत में प्रेम की वास्तविक परिभाषा बन जाती है। सब कुछ करने के पश्चात् वह बीजगुप्त के साथ प्रेम के वशीभूत भिखारिन बन जाती है।

बीजगुप्त

वह एक दीप्तिमान सामंत है। अवस्था के दृष्टिकोण से अभी वह केवल 25 वर्ष का नवयुवक है। उसमें अध्ययन और अनुभव का सामंजस्य है। वह अपनी छोटी अवस्था में अपने गुरु रत्नांबर के साथ देश के विभिन्न भागों का भ्रमण कर चुका है। यही कारण है कि उसमें  हिमालय-सी अचलता है, स्थिरता है तथा पाटलिपुत्र के सामंतों में उसका एक विशेष स्थान है।  

वह एक विनम्र, मृदुल तथा सरल प्रकृति का व्यक्ति है। उसमें अभिमान नहीं है। वह श्वेतांक जैसे छात्र को अपने भाई के रूप में अपनाता है। वह कला का प्रेमी है। चित्रलेखा की कला ही उसकी ओर उसे अधिक आकर्षित करती है।

वह दूरदर्शी तथा दार्शनिक व्यक्ति है। जब चित्रलेखा अपने को व्यक्ति न मान कर समाज की वस्तु मानती है तो वह उसे वहीं परास्त कर देता है, “व्यक्ति से समुदाय का भाग बनता है व्यक्ति को वर्जित करके समुदाय का भाग बनना अपना अपमान करना है।वह अर्धनिशा में छलकता हुआ मदिरा पात्र अधरों से लगाता हुआ भी यही पूछता है, “जानती हो जीवन का सुख क्या है ?

वह एक सच्चा व्यक्ति है। उसके विचार में छिपकर चोरी करने से खुलकर डकैती करना अच्छा है। वह भरी सभा में निस्संकोच चित्रलेखा को अपनी पत्नी स्वीकार कर लेता है। श्वेतांक के चौंकने पर भी वह शांत भाव से अपना, मदिरा का तथा चित्रलेखा का संबंध स्पष्ट कर देता है; छिपाता नहीं।

वह एक सच्चा प्रेमी है। प्रेम की परिभाषा को समझता है। वह सौंदर्य और शरीर के प्रेम को प्रेम नहीं विलास समझता है। उसके दृष्टिकोण से एक दूसरे से प्रगाढ़ सहानुभूति और एक दूसरे के अस्तित्व को एक कर देना ही प्रेम है।प्रेम का संबंध आत्मा से है; शरीर से नहींइस प्रकार वह प्रेम को एक पवित्र रूप देता है। वासना से पृथक होकर वह आध्यात्मिक धरातल पर पहुँचता है। मृत्युंजय की पुत्री यशोधरा का चंद्रमा-सा सौंदर्य भी उसके प्रेम को विचलित नहीं कर पाता। अंत में प्रेम की वेदी पर अपने सभी वैभव, सुखादि का बलिदान करके भिखारी बन जाता है

  वह मानव हृदय का पारखी है। मनोविज्ञान का श्रेष्ठतम अनुभव रखता है। चित्रलेखा और कुमारगिरि के प्रथम मिलन एवं बातचीत ही में भविष्य के नग्न-भूत को पहचान जाता है।

वह एक उदार, गंभीर तथा विशाल हृदय का व्यक्ति है। श्वेतांक के विनय पर वह अपना धन ही नहीं अपितु सामंत पदवी भी दे डालता है। उसके हृदय में दूसरों के प्रति परोपकार की भावना है। वह दो प्राणियों श्वेतांक और यशोधरा के सुख के लिए अपना सारा सुख बलिदान करता है। वास्तव में बीजगुप्त देवता है, संसार में वे त्याग की प्रतिमूर्ति हैं; उनका हृदय विशाल है।

कुमारगिरि

चित्रलेखा के शब्दों में कुमारगिरि योगी है और उनमें शक्ति है। उनका सत्य और ईश्वर दोनों ही कल्पना जनित थे; पर साथ ही साथ मनुष्य में इतनी उत्कृष्ट कल्पना का होना भी असंभव है। कुमारगिरि में सृजन की शक्ति है।

महाप्रभु, रत्नांबर के शब्दों में कुमारगिरि योगी है; उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है। संसार से उसकी विरक्ति है और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है; उसमें तेज है और प्रताप है; उसमें शारीरिक बल है और आत्मिक शक्ति है। जैसा कि लोगों का कहना है, उसने ममत्व को वशीभूत कर लिया है। कुमारगिरि युवा है पर यौवन और विराग से मिलकर उसमें एक अलौकिक शक्ति उत्पन्न कर दी है। संयम उसका साधन है और स्वर्ग उसका लक्ष्य।”

सत्य तो यह है कि कुमारगिरि एक महान तत्त्वदर्शी, योगी, विरक्त तथा इन्द्रियजित् व्यक्ति है। वह संसार के वैभव और भोग-विलास से दूर उपवन की एकांत भूमि में तपस्वी है।

उसकी शरीर-तपस्या में तप है। उसकी आत्मिक शक्ति गहन-चिंतन से परिपुष्ट हुई है; तभी तो चंद्रगुप्त के दरबार में उसकी श्रेष्ठता सभी स्वीकार कर लेते हैं; चाणक्य भी हार मान लेता है।

उसमें अनुभव-हीनता एक बड़ी दुर्बलता है। स्त्री को माया और अंधकार समझता है और इसी के आकर्षण से उसका पतन होता है।

वह अपने संयम पर घमंड करता है। विशाल देव से अपनी कुटिया को पाप से रिक्त बतलाता है। पुनरपि च अति संघर्षण करे जो कोई अनल प्रकट चंदन ते होईवाली, तुलसी की उक्ति सत्य हो जाती है। ऐसे महान योगी का संघर्ष एक विलासिनी नर्त्तकी से होता है। संयम और योग के द्वंद्व में संयम पराजित होता है। बेचारा योगी हिमालय की चोटी से नारकीय कुंड में गिर पड़ता है। वह भी बुरी तरह; नर्त्तकी उसके जले पर और भी नमक छिड़कती है, “वासना के कीड़े ! तुम प्रेम क्या जानो।वास्तव में यहाँ हम योगी की अनुभव-हीनता को पाते हैं, वह उन्मादवश भोग ही को प्रेम समझ बैठता है।

कुमारगिरि के चरित्र का ऐसा पतन, श्री वर्मा ने बीजगुप्त के चरित्र को उठाने के लिए किया है। वे यथार्थवादी हैं; उन्हें अकर्मण्यता से गहरी चिढ़ है; उसी चिढ़ के पोषण में हम यहाँ योगी का भीषण पतन पाते हैं, इसमें हमारी भारतीयता के प्रति अन्याय हुआ।

श्वेतांक

 एक अध्ययनरत् ब्रह्मचारी, जिसके जीवन का 25 वाँ वर्ष चल रहा है, चित्रलेखा उपन्यास का सूत्रधार है। इतनी बड़ी कथा को समस्या का रूप देना श्वेतांक की ही जिज्ञासु प्रवृत्ति है। वह यौवन- सागर की लहरों से अनजान युवक, पवित्र एवं मृदुल वातावरण से पुष्ट अचानक बीजगुप्त के विलासी क्षेत्र में आता है; वह अनुभव के दानों का लालची पक्षी, विलास की जाल में पैर रख देता है।

वह अनुभव-हीन हैं। उसके गुरु रत्नांबर ने उसे उसके क्षेत्र का परिच दिया था। उसका स्वामी और सखा बीजगुप्त भी उसे समझाता है तुम्हें कर्तव्याकर्तव्य का विचार करना पड़ेगा। इच्छाएँ प्रबल रूप धारण करके तुम्हें सतावेंगी, तुम्हें उनका दमन करना पड़ेगा।

वह स्पष्टवादी है। चित्रलेखा के प्रति अपने पिघलते हुए - प्रेम को एक अक्षम्य अपराध मानता है। बहुत समझाने पर भी वह दंड चाहता है। जब बीजगुप्त पूछता है यदि चित्रलेखा तुम्हें आत्म-समर्पण कर देती तो क्या करते?” वह झट उत्तर देता है, “तो मैं स्वामी के साथ गुरुतर अपराध कर देता।”

वह कृतज्ञता को मानने वाला व्यक्ति है। अपने प्रथम प्रेम को प्रफुल्लित हुए देखकर जब वह बीजगुप्त से यशोधरा के पिता से विवाह-प्रस्ताव के लिए कहता है और उसे जब यह ज्ञात होता है कि बीजगुप्त स्वयं उससे विवाह करना चाहता है तथा उसके इस बात पर क्रोधित है तो वह रो पड़ता है नहीं नहीं स्वामी ! मैं कितना पापी हूँ। मैं जाता हूँ। मैंने आपके जीवन को नष्ट किया है।

सत्य तो यह है कि श्वेतांक ही चित्रलेखा उपन्यास का एक जीवित मनुष्य है। वह सब के सम्मान का पात्र है। इस उपन्यास के सभी पात्रों में वही एक पात्र है जिसका सभी आदर करते हैं। वह हृदय से विशाल है; परंतु धन से हीन। उसकी धनहीनता के कारण मृत्युंजय उससे अपनी पुत्री का विवाह नहीं करना चाहता था।

वह परिस्थितियों का जितने अंश में दास हैं; उतने ही अंशों में परिस्थितियों का स्वामी भी। जब उसे अपनी भूल ज्ञात होती हैं; झट संभल जाता हैं। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है।

 

कथावस्तु

चित्रलेखा नामक उपन्यास एक समस्या-मूलक उपन्यास” है। इसका मुख्य विषय समस्या का विश्लेषण है कि घटनाओं का वर्णन। समस्या प्रधान तथा कथा गौण है पुनरपि च लेखक ने कथा ही में अपने विचारों को वेष्टित करके

मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का विश्लेषण किया है। जीवन की एक छोटी से छोटी भूल भी लेखक की लेखनी के नोक पर आई है, जिस पर हम अपने दैनिक जीवन में ध्यान नहीं देते।

- अतः कथा वस्तु का अंश थोड़ा है और मनोवैज्ञानिक विश्लेपण अधिक। कथा कौतूहल-वर्धक नहीं; फिर भी रोचक है। रोचकता प्रायः कथोपकथन द्वारा सम्पन्न हुई है। घटनाओं का कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं; पुनरपि च कथानक का वातावरण ऐतिहासिक है। इसमें चंद्रगुप्त- मौर्य के शासन काल का वैभवशाली वर्णन है। लेखक ने कथानक का वातावरण बड़ा ही उपयुक्त चुना है क्योंकि ऐसे ही धन-धान्यपूर्ण वातावरण में पाप क्या है?जैसे दार्शनिक सिद्धांतों पर विचार किया जा सकता है। जब जनता भूखी रहेगी; रोटी कपड़े को तरसेगी; उस समय भला उसे ऐसे विषयों पर विचार का अवकाश कहाँ?

अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि लेखक ने अपने इन समस्यामूलक - दार्शनिक उपन्यास की कथावस्तु का वातावरण बड़े ही सुंदर स्थल से लिया है; इसमें स्वाभाविकता सहज सम्पन्न हुई है।

पात्रों की दुरूहता

चरित्र-चित्रण की दृष्टि से चित्रलेखाउपन्यास को कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता। इसके सभी पात्र परिस्थितियों के दास हैं; वे साधन हैं, कर्ता नहीं। ऐसी दशा में उनका चरित्र कैसा हो सकता है? यह तो हम पहले ही कल्पना कर बैठते हैं।

सत्य तो यह है कि उपन्यासकार ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए पात्रों को परिस्थितियों की कठपुतली बना दिया है। इस उपन्यास में कोई भी ऐसा पात्र नहीं, जो संघर्ष के थपेड़े में अपने पथ से भ्रष्ट न हुआ हो। कुमारगिरि योगी और विरक्त होते हुए भी वासना का कीड़ाहै। बीजगुप्त चित्रलेखा का अनन्य प्रेमी होते हुए अपने सुख की इच्छा से यशोधरा पर आसक्त हो जाता है और विवाह के लिए तैयार हो जाता है, यहाँ उसे केवल एक दूसरी परिस्थिति ही उसकी मनोकामना में बाधक होती है और वह अपने विवाह का प्रस्ताव न करके श्वेतांक के विवाह का प्रस्ताव रख देता हैचित्रलेखा, बीजगुप्त से प्यार करती हुई भी कुमारगिरि के आश्रम में केवल भोग की लालसा में जाती है। मृत्युंजय महावैभवशाली होते हुए भी महालोभी है। यशोधरा का चरित्र तो कुछ अस्वाभाविक-सा हो गया है। क्या वह इतनी भोली है जो विवाह योग्य होती हुई भी और अपने को बीजगुप्त द्वारा तिरस्कृत हुई जानकर भी एक चार साल की बच्ची-सी बात करती है! हमें तो उसके यौवन की दृष्टि से उसकी शान्ति-प्रियता और भाव- शून्यता बहुत कुछ अस्वाभाविक प्रतीत होती है। ऐसी ही दशा विशालदेव की है; वह सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं जानता।

- रत्नाम्बर, परिस्थितियों से दूर हैं, अतः चक्कर में नहीं आए। अपने शिष्यों के अनुभव एवं अपने ज्ञान का समन्वय करके समस्या को सुलझाने में सफल हैं। उनको महात्मा मानने में कोई आक्षेप नहीं। पुनरपि च उनका चरित्र पूर्णरूप से हमारे सामने नहीं आ पाया है जिससे उनके विषय को कोई स्थिर मत दिया जा सके।

कथोपकथन

कथोपकथन की दृष्टि से उपन्यासकार सफल हुआ है। इसके द्वारा उसने ऐसी गति उत्पन्न कर दी है कि कथावस्तु में कौतुहल का अभाव नहीं अखरता। वास्तव में कथोपकथन ही इस उपन्यास का प्राण है; यही वह अमोघ शस्त्र है जिसने लेखक के हाथ में विजय पताका दी है; ध्यान इस बात का रखा गया है कि पात्र कहीं वक्तृता न झाड़ने लग जाए। जहाँ कहीं लेखक ने कथोपकथन को लंबा बनाया है; वहाँ उसने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन आनंद और अनुराग के रंग में रंगने के लिए किया है। चित्रलेखा का एक चुभता हुआ व्यंग लीजिए, “प्रकाश पर लुब्ध पतंग को अंधकार का प्रणाम है।अब कुमारगिरि को स्वाभाविक अनुरागमय उत्तर देखिये तुम्हारे कवित्व की कर्कशता पर उन्माद का आवरण है; तुम्हारे विष को सौंदर्य छिपाए हुए हैं।सत्य तो यह है कि लेखक ने कथोपकथन में अप्रत्याशित सफलता पाई है; यह इसी बात का प्रमाण है कि उसे बार-बार उपन्यास के पृष्ठों पर अपना मुँह खोलने की आवश्यकता नहीं पड़ी।

 

भाषा

उपन्यास की भाषा में सारल्य को महत्ता है परंतु विषय के अनुसार भाषा यदि कुछ क्लिष्ट भी हो जाए तो उसे भाषा की असफलता नहीं भाषा की आवश्यकता ही कहा जा सकता है। प्रस्तुत उपन्यास समस्यामूलक है और समस्याएँ भाषा के गूढ़त्व में ही प्रतिपादित होती हैं। इसके अतिरिक्त इस उपन्यास के सभी पात्र उच्च- वर्ग तथा शिक्षित - समुदाय के हैं। अतः उनकी भाषा में परिमार्जन आवश्यक है। इस प्रकार इन दोनों दृष्टिकोणों से लेखक की भाषा शुद्ध साहित्यिक होनी चाहिए थी; जिसे लेखक ने निस्संकोच अपनाया है। इसे हम पात्रों के अनुरूप कहें तो उपयुक्त है। कुमारगिरि का एक तत्त्व  पूर्ण जीव और ब्रह्म का विश्लेषण लीजिए :-

ईश्वर! ईश्वर और मनुष्य में कोई भेद नहीं। भेद केवल बाह्य है- सांसारिक है। माया और ब्रह्म के संयोग को ही ममत्व कहते हैं और माया वास्तव में ब्रह्म का अंश होते हुए भी बाह्य दृष्टि से उससे पृथक है।”

शैली

लेखक ने अपने उद्देश्य के अनुरूप ही शैली को भी रखा है। उसका विषय मनोविज्ञान और दर्शन की समस्या लेकर चला है; अतः उसकी शैली भी विवेचनात्मक है परंतु लेखक ने अपने कवि - हृदय से उसे आकर्षक, सजीव तथा कवित्वपूर्ण परिधान में लपेटकर पाठक के समक्ष रखा है जिससे पाठक आनंद में ओत-प्रोत हुआ उसकी समस्या पर विचार करता है। कहीं-कहीं लेखक अपनी भावुकता के प्रवाह में बह गया है; वहाँ उसकी शैली भावात्मक हो गई है।

 

उद्देश्य

लेखक इस उपन्यास के परिधान में एक महान् उद्देश्य लेकर हमारे सामने आए हैं। उनका अभीष्ट है, कि इस विश्व में कोई बुरा भला, उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट नहीं। ये सभी रूप परिस्थिति के हैं। पाप-पुण्य कोई वस्तु मानव के लिए नहीं हो सकती, क्योंकि उसे वही करना पड़ता है जो परिस्थितियाँ कराती हैं। फिर पाप और पुण्य कैसा? - पाप तो केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। मनुष्य अपना स्वामी नहीं है, वह परिस्थितियों का दास है - विवश है वह कर्ता नहीं, केवल साधन है, मनुष्य में ममत्व प्रधान हैकोई भी संसार में अपनी इच्छानुसार यह काम न करेगा जिसमें दुख मिले। संसार में इसीलिए पापों की एक परिभाषा नहीं हो सकती। हम न तो पाप करते हैं और न पुण्य; हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है।

यही नहीं; लेखक अपने इस उद्देश्य की पूर्ति पर गर्व नहीं करता; वह रत्नांबर के मुख से कहलवाता है यह मेरा मत है, तुम लोग इससे सहमत हो या न हो, मैं तुम्हें बाध्य नहीं करता और न कर सकता हूँ........

पाठक के विचार

यदि हम इसके पर्दे में देखें तो लेखक स्वयं रत्नांबर के रूप में खड़ा हुआ दृष्टिगोचर होता है। रत्नांबर का चरित्र भगवती प्रसाद वर्मा का अपना चरित्र है। उन्होंने श्वेतांक और विशालदेव के रूप में पाठकों को देखा है और अंत में पाठकों को शिक्षा देते हुए दिखाई पड़ते हैं। कला की दृष्टि से यहाँ पर लेखक गिर गया है। उपन्यास की महत्ता, उसकी अंतिम पृष्ठ पर व्याख्या से नहीं बढ़ती। उसने तो हमें (पाठकों को) निरा मूर्ख ही समझ रखा है। क्या जिस बात का निर्णय लेखक ने किया है, इसका सुंदर निर्णय पाठक नहीं कर सकता था? निर्णय करना कलाकार का कार्य नहीं; वह पाठक का कार्य है। कलाकार का अधिकार चित्र निर्माण तक ही सीमित है: आगे नहीं। इस दृष्टि से भगवती जी कुछ अनधिकार चेष्टा करते दिखाई पड़ते हैं परंतु यह तो निर्विवाद सत्य है कि वह अपने उद्देश्य की पूर्ति में पूर्णतया सफल हैं।

 

 

 

 

 

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