शकुंतला नाटक Shakuntala Natak by Kalidas Ka Sampoorn Adhyyan

  

शकुंतला नाटक

कालिदास

कालिदास

संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध कवि एवं लेखक

कालिदास (संस्कृत: कालिदासः) तीसरी- चौथी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएँ की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्त्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं।

कालिदास की भाषा संस्कृत, प्राकृत है। ये वैदर्भी रीति के कवि हैं इनकी लेखन अवधि चौथी–5वीं सदी मानी जाती है। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- कुमारसंभवम्, अभिज्ञानशाकुन्तलम्, रघुवंशम्, मेघदूतम्, विक्रमोर्वशीयम्, अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है।

इनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिए जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है।

 

नाटक की संक्षिप्त कथा -

 

राजा दुष्यंत वन में शिकार खेलने गए हैं, वन के पास जाकर एक मृग का पीछा करते हैं, पास आकर राजा बाण चलाना ही चाहते हैं  कि सहसा दो ऋषि श्राकर उसे मृग मारने से रोकते हैं। राजा के प्रत्यंचा से तीर उतार लेने पर वे उन्हें आशीर्वाद देते हैं और आश्रम में आने का निमंत्रण देते हैं।

राजा रथ को तपोवन की ओर बढ़वाते हैं। आगे जाकर रथ से उतर पड़ते हैं, सादे वेश में आश्रम में प्रवेश करते हैं, उसी समय उन्हें तीन कन्याएँ वृक्ष और पौधे सींचती हुई दिखाई देती हैं। राजा वृक्ष की ओट में खड़े होकर उनके  व्यापार देखते हैं और बातें सुनते रहते हैं। सहसा एक भौंरा शकुंतला को तंग करता है, उससे पिंड छुड़ाने के लिए वह दुहाई मचाती है। राजा सहसा आगे पहुँच जाते हैं। सखियाँ उन्हें शिलापट्ट पर बिठाकर स्वागत-सत्कार करती हैं। राजा बातों ही बातों में शकुंतला का परिचय तथा उसके जन्म की कथा जान लेता है। इस प्रकार पूर्ण परिचय होते ही सहस्राधिक नगरवासी उन्हें ढूँढ़ते पहुँच जाते हैं। राजा उनसे विदा होते हैं। यह प्रथम अंक की कथा है।

दूसरे अंक में माढव्य जो उनका सेवक है राजा के शिकार खेलने से तंग आकर मन ही मन में कोसता है और राजा के आने पर प्रयत्न करके उन्हें शिकार से रोकना चाहता है। राजा स्वयं भी अनिच्छा होने के कारण उसका कहना मान लेते हैं। सेनापति के आने पर उसे भी अपना शिकार न करने का निश्चय सुना देते हैं सबको विदा कर राजा माढव्य को शकुंतला का रूप-वर्णन व उसके प्रेम व्यवहार को पूरी तन्मयता से सुनाते हैं। वे आश्रम में जाने का उपाय सोचते हैं कि तभी दो ऋषिकुमार यज्ञ में पड़ने वाले विघ्न दूर करने के लिए उन्हें निमंत्रण देते हैं। राजा उनका निमंत्रण स्वीकार कर उन्हें विदा ही करते हैं, तभी नगर से राजमाता को दूत आकर उन्हें उपवास के उत्सव में सम्मिलित होने का संदेश देता है। राजा द्विविधा में पड़कर माढव्य को ही उस कार्य के लिए सेना सहित नगर लौटा देता है।

 

तीसरे अंक में शकुंतला के आश्रम में एक ब्राह्मण कुमार कुशा लिए प्रवेश करता है और राजा के प्रभाव का वर्णन करता है, इसी समय आकाश-भाषित से शकुंतला की विरहव्यथा की सूचना मिलती है। उसी समय राजा विरही की-सी अवस्था में प्रवेश करता है। अपनी विरह व्यथा का वर्णन करता हुआ शकुंतला का पता लगाना चाहता है। बालू में उसके पैरों के चिह्न देख कर वेतस (बेंत) कुंज की ओर जाता है। शकुंतला अपनी सखियों सहित उसी कुंज में शिलापट्ट पर लेटी दिखाई देती है। सखियाँ उसकी व्यथा का उपाय करती हुई कारण पूछती हैं। बहुत संकोच के बाद शकुंतला बताती है कि राजा को उसने जब से देखा है, यह दशा हुई है, शीघ्र कोई उपाय करो अन्यथा जीवन दुर्लभ है। सखियाँ उसकी सराहना करती हुईं  उपाय सोचती हैं और शकुंतला को प्रेम-पत्रिका के योग्य छंद बनाने को कहती हैं। शकुंतला छंद बनाकर कमल के पत्ते पर नखों से लिखकर सखियों को सुनाती है, तभी राजा आगे बढ़कर स्वयं पहुँच जाता है। सखियाँ उसका स्वागत करती हैं। प्रियंवदा राजा से शकुंतला के सम्मान के बारे में आश्वासन माँगती हैं। राजा के वचन देने पर हरिण के बच्चे को माता से मिलाने के मिस (बहाना) दोनों सखियाँ बाहर चली जाती हैं। शकुंतला जाने लगती है पर राजा रोक लेता है। वह उसका चुंबन करना ही चाहता है, तभी नेपथ्य से गौतमी (कण्वाश्रम की वरिष्ठतपस्विनी) के आने की सूचना मिलती है। राजा वृक्ष की ओट में हो जाता हैतभी गौतमी उसकी कुशल पूछने आती है और साथ ले जाती है। थोड़ी देर में राजा के लिए आश्रम से राक्षसगण से रक्षा की पुकार आती है, राजा उधर ही चले जाते हैं।

चौथे अंक में विष्कंभक द्वारा राजा और शकुंतला के गंधर्व विवाह का तथा उनके नगर लौटने का पता लगता है।

कण्व ऋषि जो शकुंतला के दत्तक पिता है उस समय आश्रम में उपस्थित नहीं थे। उनकी अनुपस्थिति में राजा दुष्यंत के साथ चले जाना शकुंतला को ठीक नहीं लगा इसलिए शकुंतला आश्रम में अकेली रह जाती है तभी दुर्वासा ऋषि आश्रम में आते हैं पर उनका अतिथि सत्कार न होने के कारण वे अत्यंत क्रोधित हो उठते हैं और शकुंतला जो अपने स्वामी दुष्यंत की स्मृतियों में विचारमग्न थी उसे  शाप देते हैं कि तू जिसके ध्यान में बैठी है, वह तुझे भूल जाएगा। याद दिलाने पर भी स्मरण न करेगा। इधर सखियाँ जो फूल बीन रही थीं ऐसी स्थिति देखकर दौड़ कर आती हैं। प्रियंवदा दुर्वासा को मनाने चली जाती हैं और फिर उन्हें मना कर आती है। दोनों कुटी पर पहुँच जाती हैं। उधर आश्रम के भाग में एक कण्वशिष्य समय देखने आता है, तभी प्रियंवदा आकर शकुंतला के विदा होने की सूचना देती है। उसी समय यह भी पता लगता है कि कण्व को शकुंतला के गंधर्व विवाह का पता लग गया और वे उसे आज ही पति के घर भेज देंगे। इस पर दोनों विदा के मंगल की सामग्री एकत्रित करती हैं। दोनों शकुंतला के नहा कर नीचे बैठने की सूचना देती हैं। अगले दृश्य में तपस्विनियाँ उसे आशीर्वाद देती हैं। सखियाँ जाकर उसका शृंगार करती हैं। उसी समय ऋषि-कुमार सुंदर वस्त्र और आभूषण लेकर आते हैं। पूछने पर पता लगता है कि ऋषि के प्रभाव से ये वस्त्राभूषण वनदेवियों ने भेंट किए हैं। तभी सखियाँ आभूषण पहनाती हैं और कण्व ऋषि आते हैं। शकुंतला के प्रणाम करने पर आशीर्वाद देते हैं और अग्नि की परिक्रमा कराते हैं। शारंगरव और शारद्वत दोनों मुनि-शिष्य आते हैं, शकुंतला को उनके साथ जाने को कहते हैं। शकुंतला वन के वृक्षों और लताओं तक से विदा माँगती है। पुनः सखियों और पिता से भेंट कर और आशीर्वाद लेकर विदा होती है। कण्व ऋषि उसे उपदेश देकर विदा करते हैं। सबके चले जाने पर ऋषि आश्रम को लौट आते हैं।

पाँचवें अंक में राजा राजकार्य करके भीतर एकांत में बैठे हैं, तभी नेपथ्य से गीत सुनाई देता है। राजा विदूषक को रानी के पास भेजता है। इसी समय कंचुकी आकर कण्व ऋषि के शिष्यों के पहुँचने की सूचना देता है। राजा उसे पुरोहितों को स्वागत सत्कार करने की आज्ञा सुनाने को भेजता हैं और स्वयं प्रतिहारी के साथ यज्ञशाला पहुँच जाते हैं। वैतालिकों (राजा के लिए होने वाला प्रातः स्तुति पाठ) की की हुई स्तुति-वंदना के बाद पुरोहित शकुंतला सहित मुनिशिष्यों को लेकर पहुँचते हैं। दोनों शिष्य आशीर्वाद देकर मुनि का संदेश सुनाते हैं। राजा शकुंतला से विवाह होने में संदेह प्रकट करता है। दोनों शिष्य व गौतमी पर्याप्त उपालंभ  देते हैं। शकुंतला का घूँघट उठाने पर भी वे नहीं पहचानते हैं। ये सारी प्रतिकूल स्थितियाँ ऋषि दुर्वासा के अभिशाप के फलीभूत होने के कारण हो रहा था। राजा दुष्यंत की शकुंतला को लेकर विस्मृति हो गई थी वह परस्त्री को ग्रहण करने का पाप नहीं लेना चाहते थे। इस पर तर्क वितर्क होता है। शकुंतला उन्हें उनके ही द्वारा दी गई अँगूठी दिखाना चाहती है, तभी पता लगता है कि शचीतीर्थ में पानी पीते समय हाथ से निकल गई होगी। अनेक वाद-विवाद के बाद राजा पुरोहित से सम्मति माँगता है। पुरोहित कहते हैं कि प्रसव तक यह नारी मेरे घर पर रहे, यदि प्रसव में चक्रवर्ती लक्षणों वाला पुत्र उत्पन्न हुआ तो इसे आप ग्रहण कर लें, यदि ऐसा न हुआ तो यह पिता के घर चली जाएगी। राजा के इस युक्ति को स्वीकार करने पर सब चले जाते हैं। थोड़ी देर में पुरोहित सूचना देता है कि अप्सरातीर्थ के पास जाते ही एक ज्योति आकाश से आकर रोती हुई उसको उठा ले गई। तभी सभा विसर्जित हो जाती है।

छठे अंक में कोतवाल एक धीवर को पकड़कर लाता है। उसके पास राजा की अँगूठी पकड़ी जाती है। पूछ-ताछ करने पर कोतवाल अँगूठी लेकर राजा के पास सूचना लेकर जाता है। थोड़ी देर में राजा के पास से कंकण लेकर लौटता है जो कि धीवर को पुरस्कार रूप में राजा ने दिया था।

इधर अँगूठी पाकर राजा को शकुंतला की सुधि आ जाती है। वह उसके विरह में वसन्तोत्सव मनाना बंद कर देता है। उधर मेनका जो अपनी पुत्री शंकुतला के दुख में दुखी है वह सानुमती को बाग में भेजती है। वह आकर बाग में बैठ जाती है और देखती है कि राजा की दशा बुरी है। विदूषक के साथ वे उद्यान में आते हैं। प्रतिहारी को मंत्री के पास जाकर राजकार्य के कागज पत्र भेजने को कहते हैं। इधर विदूषक के साथ संवाद में अँगूठी के द्वारा राजा शकुंतला के स्मरण आने की बात कहते हैं। इसी समय एक दासी राजा का बनाया चित्र लेकर आती है। राजा उसे पुनः चित्र बनाने की सामग्री लाने को भेजते हैं। इसी प्रकार संवाद में दासी सूचना देती है कि रानी वसुमती ने डब्बा छीन लिया। इसी समय मंत्री का पत्र मिलता है जिसमें समाचार लिखा है कि एक सामुद्रिक व्यापारी धनमित्र नामक सेठ नदी में डूबकर मर गया। उसका कोई पुत्र नहीं है, उसका धन राज भंडार में आना चाहिए। राजा यह जान कर कि उसकी स्त्री गर्भवती है, आज्ञा देता है कि गर्भ का बालक पिता के धन का अधिकारी होगा। साथ ही वह घोषणा करता है कि नगर में घोषणा करा दो पाप संबंध के अतिरिक्त दूसरा जो कोई बंधु हमारी प्रजा का मर जाए, उसके स्थान पर दुष्यंत को ही उसके परिवारवाले भाई और पिता समझे। इधर राजा पुत्र के प्रभाव का विचार कर मूर्च्छित हो जाते हैं। बड़ी कठिनाई से राजा को होश आता है। तभी पुकार सुनाता है कि बचाओ-बचाओ किसी भूत ने मुझे पकड़ लिया। राजा माढव्य का स्वर पहचानकर उसे बचाने दौड़ते हैं। उसके तीर चढ़ाते ही मातलि जो इंद्र के सारथी हैं, प्रकट होकर राजा को इंद्र का निमंत्रण देते हैं। राजा स्वीकार कर लेते हैं।

सातवें अंक में दानवों पर विजय पाकर राजा इंद्र के रथ से आकाश मार्ग देखता हुए आते हैं। मार्ग में हेमकूट पर्वत पर उतर पड़ते हैं। तभी एक बालक सिंह के बच्चे से खेलता दीखता है।

एक तपस्विनी राजा से सिंह छुड़ाने को कहती है। राजा के कहने से लड़का सिंह को छोड़ देता है। राजा उसका परिचय जानना चाहते हैं, तभी एक तपस्विनी मिट्टी का खिलौना लाती है। उसका नाम सुनकर पुनः लड़के को चौंकता देखकर राजा कुछ शंकित होते हैं। तभी गंडे (मंत्र पढ़कर बाहु में बाँधा जाने वाला सुता) को उठा लेने से तपस्विनियाँ चकित होती हैं। एक शकुंतला को बुलाती हैं। राजा लड़के को गोद में ले लेता है। तभी शकुंतला से मिलन होता है उसके अनंतर दोनों पुत्र के साथ कश्यप ऋषि के दर्शन करके घर लौट जाते हैं।

समालोचना

शकुंतला नाटक संस्कृत साहित्य के सर्वोत्तम नाटकों में माना जाता है। आज कालिदास की प्रतिभा, जो विदेशी भी मान रहे हैं, सो इसी के कारण। इसके हिंदी में अनुवाद और भी हुए हैं जैसे, नेवाज कवि कृत अनुवाद जो कि 18वीं शताब्दी में लिखा गया था। राजा लक्ष्मणसिंह का अनुवाद सर्वोत्तम है। इसका गद्य और पद्य बहुत सरस है। श्लोक का अनुवाद पद्य में और गद्य का गद्य में हुआ है। पद्य ब्रजभाषा में गद्य सुंदर व्यावहारिक खड़ीवोली में है। पद्य की सरसता बहुत ही आकर्षक है। गद्य में यह त्रुटि अवश्य है कि आगरे की बोली के शब्द कहीं-कहीं आ गए हैं। वैसे अनुवाद बहुत सफल है। मूल ग्रंथ का भाव नष्ट नहीं हुआ है। मूल पद्य के अलंकार अनुवाद में भी आ गए हैं।

कथा

ग्रंथ की कथावस्तु प्रागैतिहासिक है। महाभारत में राजा दुष्यंत और सर्वदमन, जिसका नाम प्रजापालक होने के कारण पीछे भरत पड़ गया था, इनकी कथाविस्तार से वर्णित है। नाटक में कवि ने उसमें राजा के धीरोदात्त की रक्षा के लिए कुछ कल्पना से भी काम लिया है, जैसे- महाभारत में तो राजा शकुंतला को लोकापवाद के भय से जान बूझ कर स्वीकार नहीं करता। आकाशवाणी होने पर ही वह उसे महल में बुलाता है। साथ ही उसमें सर्वदमन का जन्म कण्व के आश्रम में ही होना लिखा है। राजा को इस कलंक से बचाने के लिए कवि ने दुर्वासा के वृतांत और अँगूठी ही कल्पना की है। इसी सामंजस्य के लिए सर्वदमन का जन्म भी भरत के आश्रम में कराया है। बाकी उसका विकास स्वाभाविक ढंग से क्रिया है। शकुंतला की दृष्टि में राजा को निर्दोष सिद्ध करने के लिए सानुमती को उसकी विरह-दशा प्रत्यक्ष दिखाई है। हेमकूट पर्वत पर कश्यप के मुख से दुर्वासा के शाप का वृतांत सुनकर शकुंतला के हृदय से भी राजा की दोषिता का भार मिटा दिया। इस प्रकार चिर संयम के वृक्ष के पुष्प और फल का एक साथ मिलन कराया है। पहला मिलन कण्व के आश्रम में हुआ, वहाँ पर चंचलता दिखाई गई थी, उस प्रेम में वासना थी, उसका परिणाम दुख हुआ। अतः पुनर्मिलन में उस प्रकार का उतावलापन नहीं दिखाया गया है।

 

पात्र चरित्र-चित्रण

दुष्यंत

नाटक का प्रधान पात्र दुष्यंत है। जो नायक है। नायिका शकुंतला है।

दुष्यंत

नाटक का प्रधान पात्र दुष्यंत है।  राजा वैसे धीरोदात्त है। धीरगम्भीर है । नायक ऋषियों के गौरव को मानता है। उसके कष्ट का ध्यान रखता है। चारित्र्य - बल को मुख्य मानता है। उसे अपने मन की शुद्धि पर पर भी विश्वास है। वह कलाविद् भी है, शकुंतला का सुंदर चित्र बनाता है। इसी कारण आधुनिक समीक्षाकार उसे धीरललित नायक मानते हैं। नाटक शृंगार रस का है। अतः चार प्रकार के नायकों में वह दक्षिण नायक है। नवीन प्रेम के साथ-साथ दूसरी रानियों के प्रति पहला प्रेम निभाता है। प्रजापालन उसका धर्म है। इसलिए विरहावस्था में भी उससे असावधान नहीं रहता। अपने किए का उसे पश्चात्ताप है। वह आतुर के रक्षण के लिए सदा सन्नद्ध रहता है। उस दशा में भी माढव्य की रक्षा के लिए तुरंत उद्यत हो जाता है। धर्मभीरु है। शकुंतला का अपूर्व रूप देखकर भी उसे सहसा कहने पर भी स्वीकार नहीं करता। पराक्रमी होने पर भी निरभिमानी है। कृतघ्न नहीं है। इंद्र के शत्रुओं का दमन करने पर भी उसे अपने पराक्रम का फल न मानकर इंद्र का प्रभाव मानता है, उसके किए सत्कार को अपनी योग्यता से अधिक मानता है। उसे सबकी मर्यादा का ज्ञान है। इस प्रकार राजा का चरित्र वैसा ही आदर्श है, जैसे प्राचीन नाटककार दिखाया करते थे।

·

शकुंतला -  नाटक की नायिका शकुंतला है। यह मुग्धा नायिका है। वन की हरिणियों में पली है। सांसारिक छल और प्रवंचना का उसे ज्ञान नहीं। लता, वृक्ष सभी से उसकी आत्मीयता है। वह लोक व्यवहार नहीं जानती, वैसे शिक्षिता है। कविता करना जानती है। लोक-लज्जा से वह दबी हुई है। एकांत में राजा को पाकर भी स्त्री-सुलभ लज्जा और शील को सहसा नहीं छोड़ सकती। उसका यह कहना कि, “मैं कामपीड़ित होने पर भी कुल - मर्यादा नहीं तोड़ सकती, मैं स्वतंत्र नहीं हूँ।” अपने कर्तव्य और कुमारी व्रत की रक्षा का ध्यान भी है। वह पतिव्रता व सत्य प्रेम वाली है। तभी उसके द्वारा ठुकराई जाने पर भी उसे नहीं कोसती, अपना ही दुर्भाग्य मानती है। इसीलिए पुनर्मिलन के समय उसे कुछ भी कटु वचन नहीं कहती है। संयोग और वियोग दोनों शृंगार उसमें बहुत अनुकूल हुए हैं।

विदूषक : - यह राजा का सखा है परंतु ऐसा चतुर नहीं है जैसे राजा के समीप रहने वाले हुआ करते हैं। इसका विशेष चरित्र नहीं हैं !

अनुसूया - प्रियम्वदा -- ये दोनों सखियाँ प्रेम से पूर्ण हृदय वाली हैं। लोक व्यवहार में निपुण हैं चित्र-विद्या जानती हैं। शकुंतला की सच्ची हितैषिणी हैं।

कण्व : -- वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का लालन पालन हुआ था। सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कंडाकोट नाम से जानी जाती है। इनका चरित्र यद्यपि विशेष प्रकाश में नहीं आया, तथापि शकुंतला की विदाई के समय उनके उद्गार उनके स्निग्ध हृदय को प्रकट करते हैं। यह पद्य इसके साक्षी है -

आज शकुंतला जाएगी मन मेरो अकुलात।

रुकि आँसू गद्गद् गिरा, आँखिन कछु न लखात ।।

मोसे वन वासीन जो इतो सतावत मोह ।

तो गेही कैसे सहें, दुहिता प्रथम विछोह ।।

 

कथोपकथन -

नाटक के संवाद बड़े सजीव हैं। उनमें स्वाभाविकता और सरसता कूट-कूट कर भरी हुई है। कवि की भावुकता बड़े सुंदर रूप में व्यक्त हुई है। पात्रों के विचार उसके द्वारा सर्वथा स्पष्ट हो जाते हैं। अपनी पद - मर्यादा, कुलीनता, घनिष्ठता और नाटकीय नियमों के आधार पर संवादों का विधान किया गया है।

रस : -

नाटक का प्रधान रस शृंगार है। उसमें भी संयोग प्रधान है जिसका परिपाक वियोग द्वारा होता है। वियोग शृंगार तो दोनों प्रेमियों की मनोदशा का मार्मिक चित्र खींचने के लिए बहुत ही पुष्ट है। शकुंतला इस शृंगार का आलंबन है। तपोवन का मुग्ध वातावरण उद्दीपन है। दुष्यंत और शकुंतला द्वारा परस्पर मिलन की चेष्टाएँ अनुभाव हैं, उनकी वियोग- दशाएँ सात्विक भावों और संचारी भावों की अभिव्यक्ति करती हैं। राजा की वियोग- दशा के पोषण के लिए वसंत ऋतु का आगमन भी आकस्मिक साधन है।

इसके अतिरिक्त अन्य रसों में वीर, करुण, अद्भुत, रौद्र, शांत, भयानक और वत्सल सभी रस यथा-स्थान अंग रूप में अच्छे स्पष्ट हुए हैं। वीभत्स का इसमें अभाव है।

 

उद्देश्य --

भारतीय संस्कृत का चरम लक्ष्य आनंद से है। ऐहिक जीवन को चिर संघर्ष से निकाल कर शांति की ओर ले जाना ही उनकी कला का चरम विकास होता है। उनके पात्रों की सृष्टि आदर्शमयी होती है जो कि उस शांति और आनंद का वातावरण बनाने में सहायक होती है। कालिदास को रचना में तो आदर्श कूट-कूट कर भरा है। ऐसा आदर्श किसी और साहित्य में मिलेगा कि -

केवल पापिन के बिना मम परजा के लोग।

जा-जा प्यारे बन्धुकों विधिवस लहें वियोग ।।

गिने नृपति दुष्यंत को ताही ताकी ठौर।

नगर ढिंढोरा देहु यह कहो कछु मति और ।।

राजा घोषणा करता है कि प्रजा का जो भी बंधु मर जाए उसके स्थान वह दुष्यंत को समझे। जिसका पिता, पुत्र, भाई मरे वे दुष्यंत को अपना पिता पुत्र या भाई समझ लें, किंतु पाप संबंध के लिए दुष्यंत नहीं। किसी का पति मर जाए  तो दुष्यंत उसके पति का स्थान नहीं ले सकता। ऐसी आदर्श सृष्टि समाज के सम्मुख उपस्थित करना ही इसका उद्देश्य है। वैसे सामाजिक समस्याओं पर भी कुछ प्रकाश पड़ता है। अपनी इच्छा से लड़के लड़कियों के द्वारा किये गए गंधर्व विवाह या अनुचित सम्बंधों का परिणाम भी इससे ही स्पष्ट हो जाता है।

 

शैली : --

नाटक की शैली अनुपम है। प्रायः वैदिक रीति बरती गई है जो कि कालिदास की विशेष रीति थी। रस के अनुरूप शब्द योजना है। माधुर्य, प्रसाद और ओज तीनों गुण हैं। सात अंक हैं। उनमें भी सूच्य कथावस्तु के लिए विषकंभकों और प्रवेशकों की सृष्टि की गई है। दृश्य नगर, वन, पर्वत और आश्रम सभी स्थानों के हैं। प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण हुआ है। शकुंतला के साथ प्रकृति को आत्मीयता, उसकी विदा के समय उनका शोक आकर्षक है। मानस विज्ञान का अनूठा निरूपण है। काव्य की विशेष रुढ़ियों का यथानियम पालन है। ये सभी गुण अनुवाद में भी सुरक्षित हैं। आधुनिक समीक्षा के अनुसार अंतर्द्वन्द्व और चरित्र विकास की सामग्री इसमें नहीं है। ये बातें आधुनिक युग की देन हैं। छठे अंक में कोतवाल और उसके सिपाहियों की वृत्ति से पता लगता है कि पुलिस की प्रकृति जिसके लिए वह बदनाम है, आरंभ से ही ऐसी है।

नाटक के कुछ पारिभाषिक शब्द :

रंग-भूमि - स्टेज, जहाँ नाटक खेला जाता है।

नेपथ्य - स्टेज के पिछले भाग में अभिनेताओं के वस्त्र बदलने का स्थान।

विष्कम्भ -- पहले अंक के बाद किसी घटना को जो स्टेज पर दिखाने योग्य न हो, सूचित करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।

प्रवेशक - विष्कंभक का ही एक प्रकार। इसमें दो या तीन पात्र होते हैं जो नीच श्रेणी के रहते हैं। छठे अंक के आरंभ में धीवर और सिपाहियों से प्रवेशक बना है। 

Comments