कफन Kafan By Munshi Premchand Sampoorn Adhyyan

 

https://youtu.be/6pTapZGqRoA

कफन

प्रेमचंद

पाठ का उद्देश्य

सामंतवादी प्रथा के बारे में जानकारी।

समाज में दलितों की दयनीय स्थिति का ज्ञान।

शोषण के प्रति एक विशेष आंदोलन।

जीवन के खुरदरे सच्चाई से अवगत होंगे।

गरीबी आपको सीधे नहीं चलने देती।

भूख की वेदना असह्य होती है।  

 

लेखक परिचय

धनपत राय श्रीवास्तव (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) जो प्रेमचंद नाम से जाने जाते हैं, वो हिंदी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं।

“युगद्रष्टा” और “उपन्यास सम्राट” प्रेमचंद के साहित्य की मूल चेतना समष्टिगत और यथार्थवादी है। इसके साथ ही मनुष्य में छिपे मानवत्व, प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, परोपकार जैसी उदात्तवृत्तियों में प्रेमचंद की पूरी निष्ठा है। अत: प्रेमचंद का व्यापक यथार्थबोध उनके यथार्थ और आदर्श के समन्वय की चेतना है। आदर्श और यथार्थ के समन्वय की यही चेतना उनके संपूर्ण कथा साहित्य में उद्भूत हुई। उनकी कहानियों के सभी तत्त्वों में यह व्याप्त है। प्रेमचंद कथा साहित्य की पृष्ठभूमि अत्यंत व्यापक है। हिंदी के किसी कहानीकार ने इतने व्यापक फलक को नहीं अपनाया। इनकी  कहानियाँ मानसरोवर के आठ खंडों में संगृहीत हैं।

 

कफन और प्रेमचंद का महत्त्व

जब प्रेमचंद जी ने कथा-साहित्य की दुनिया में कदम रखा उस समय तिलस्मी, जासूसी और ऐतिहासिक रोमांस लिखे जा रहे थे। ऐसे में प्रेमचंद का समाज-दृष्टा व्यक्तित्व हिंदी कथा साहित्य में एक क्रांति के समान थी। इनकी कहानियाँ कथा-साहित्य की तिलिस्मी और जादुई दुनिया पर पूर्ण विराम लगाकर, कथा-साहित्य के लिए यथार्थ का दरवाजा खोल कर, व्यक्ति और समाज से परिचित करवाता है। प्रस्तुत कहानी कफन भी सामाजिक विसंगतियों को बड़े ही करीने से उजागर करती है और पाठकों के लिए अनेक प्रश्न उपस्थापित करती हैं कि वे उन प्रश्नों पर विचार करें और अपनी प्रतिक्रिया दें।

 

पाठ की मूल संवेदना

जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत माधव और घीसू हालत से बहुत कुछ ज़्यादा अच्छी न हो और उसी समाज के किसानों की हालत ऐसी हो जो सबका पेट भरे पर अपना ही न भर पाए ऐसे में मेहनत करने वाले और कामचोर दोनों की गति लगभग एक-सी ही हो ऐसे में माधव और घीसू की तरह निकम्मे बने रहना ही कहीं ज़्यादा श्रेयस्कर है। सामंतवादी प्रथा और वे लोग जो किसानों की दुर्बलताओं से बेजा लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा संपन्न थे। वहाँ इस तरह कामचोर बन जाने की मनोवृति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान था, जो किसानों के विचारशून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मंडली में जा मिला था। अगर वह फटेहाल है, तो कम से कम उसे किसानों की सी - जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती। उनकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते।

पात्र और  चरित्र-चित्रण –

कफनकहानी में मुख्य रूप से घीसू, माधव और घीसू की पत्नी बुधिया ये ही मुख्य किरदार हैं। इसमें प्रेमचंद ने मानवीय दुर्बलताओं का सफल एवं यथार्थ चित्रण किया है। इसके पात्र स्वाभाविक हैं और उनका आधार मनोवैज्ञानिक है। घीसू और माधव समाज की आर्थिक विषमता में शोषित वर्ग के प्रतिनिधि हैं। उनके चरित्रों में शोषितवर्ग की विपन्नता और उपजीविता साकार हो गई है। बुधिया, घीसू और- माधव का चरित्र विकसित करने के लिए कहानी में दी गई है, क्योंकि उसके निधन से ही उनके चरित्र का निखार होता हैं-

माधव बोला,“लकड़ी तो बहुत है, अब कफन लेना चाहिए।

तो चलो, कोई हल्का-सा कफन ले लें।

हाँ और क्या, लाश ढोते-ढोते रात हो जाएगी, रात को कफन कौन देखता है।

कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते-जी तन ढँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन चाहिए।

 

 

प्रारंभ और अंत

“कफन” कहानी का आरंभ और अंत प्रेमचंद की कला- कुशलता का परिचायक है। इसके आरंभ में ही समस्या का प्रस्तुतीकरण है। घीसू और माधव प्रयत्न करके हार गए हैं, परंतु बुधिया के दवादारू के लिए कहीं से कोई पैसा नहीं मिलता। इससे उनका मन हताश और दिमाग चिड़चिड़ा हो गया है। समस्या के उस मार्मिक पक्ष का उद्घाटन द्रष्टव्य है-

“झोंपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे अलाव के समाने चुपचाप बैठे हैं और अंदर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे।

एक निर्धन बिना दवा या नर्स की सहायता के किस प्रकार तड़प रही है, इसका संपूर्ण वातावरण सजीव हो गया है।

इस प्रकार अंत में कथा का विकास जीवन के एक भयानक व्यंग्य पर समाप्त होता है। घर पर बुधिया मरी पड़ी है और उसका पति व ससुर- “मदिरा-पान कर रहे हैं, पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं। ये दोनों अपने दिल से मस्त गाए जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। मटके भी, उछले भी कूदे भी, गिरे भी, भाव भी बताए, अभिनय भी किए और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।”

 

भाषा शैली

कफनकी भाषा सरल, सहज अभिव्यक्तिपूर्ण और मुहावरेदार है। इसमें आमफहम-साधारण बोल-चाल के शब्दों का प्रयोग किया गया है। शैली भी कलात्मक है। छोटे वाक्यों और व्यास प्रधान शैली में प्रेमचंद ने भावों की अनूठी व्यंजना की है। इस अभिव्यंजनापूर्ण भाषा का एक उदाहरण द्रष्टव्य है -

यहाँ के वातावरण में सरूर था और हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी।

 

उद्देश्य

कफनयथार्थवादी कहानी है। मनोवैज्ञानिक यथार्थ की रचना होने के कारण इसका उद्देश्य है - शोषण और गरीबी से उत्पन्न अकर्मण्यता और लापरवाही - उपजीविका का सच्चा चित्रण। प्रेमचंद यहाँ शोषण और अन्याय के विरुद्ध हैं। दो गहनेमें भी वह कहते हैं कि, जितने धनी हैं, वे सबके सब लुटेरे हैं, पक्के लुटेरे, डाकू। कल मेरे पास रुपये हो जाएँ और मैं एक धर्मशाला बनवा दूँ तो देखिए, मेरी कितनी वाह-वाह होती है। कौन पूछता है कि मुझे दौलत कहाँ से मिली?”

मानवता का यही शाश्वत प्रश्न कफनकहानी में व्यक्त हुआ है। पाठ में सर्वहारा वर्ग के दो व्यक्ति - घीसू और माधव के द्वारा नैतिक पतन का बोध कराया गया है। दुखों को सहते-सहते दोनों ही अकर्मण्य बन गए। इसलिए मेहनती न होकर उपजीवी हो गए हैं। घर पर बुधिया मरी पड़ी है, पर उन्हें उसकी चिंता नहीं, कफन के लिए एकत्र किए गए रुपयों से पहले वे पूरी-कचौड़ी खाते हैं, शराब पीते हैं। जीवन में पहली बार मिलने वाली तृप्ति को वे छोड़ नहीं पाते, एतदर्थ सब कुछ भूलकर वर्तमान में ही रम जाते हैं। इसलिए प्रेमचंद कहानी को चरमसीमा पर पहुँचाकर वहीं अंत कर देते हैं इससे करुणा का और साथ ही उसके मार्मिक जीवन का सहज ही स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है।

सामाजिक मान्यताओं के प्रति विद्रोह की यह भावना देखिए-

वह न बैकुंठ जाएगी तो क्या यह मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों लूटते हैं, अपने पाप को धोने के लिये गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं।

कथासार

ऐसा माना जाता है कि चमार स्वभावतः वैसे ही आलसी एवं अकर्मण्य होते हैं और घीसू तथा माधव तो उनमें भी सरनाम थे। घीसू एक दिन काम करता और तीन दिन आराम। माधव घीसू का लड़का इतना कामचोर था कि आधे घंटे काम करता और घंटाभर चिलम पीता। इसलिए उसे कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। गाँव में काम की तो कमी नहीं  थी, पर कामचोरों को काम कौन दे। उसे कोई काम तभी देता, जब कोई और न मिलता तथा एक आदमी का काम दो जनों से कराना मंजूर होता। वे दूसरों के खेतों से मटर- आलू चुरा लाते और भूनकर खा जाते। घीसू ने अपने जीवन के साठ साल इसी तरह निकाल दिए थे और माधव भी पिता के कदमों पर चल रहा था, बल्कि कहिए कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था।

पिछले साल उसका विवाह न जाने कैसे हो गया था। लड़की भली थी। उसने उस माधव और घीसू की व्यवस्था की -पिसाई करके या घास छीलकर वह दो जून आटे का जुगाड़ करती और उनके पेट भरती। तब से वे दोनों और भी आरामतलब हो गए थे, कहीं काम पर जाते ही नहीं थे।

साल भर बीतते-बीतते वह प्रसव वेदना से कराहने लगी। एक दिन उसको प्रसव की अपार वेदना हो रही थी, पर उनमें इतना आलस्य भरा हुआ था कि उसे देखने भी नहीं गए लेटे-लेटे ही उसकी कराह सुनते रहे-न बाप उठा, न बेटा दोनों कहीं से आलू चुरा कर लाए थे और उन्हें भून रहे थे। माधव को भय था कि अगर वह उठा तो घीसू काफी आलू अकेले खा जाएगा। उन्हें यह भी संभावना थी कि वेदना से कहीं वह मर न जाए। पर इसकी भी उन्हें कोई चिंता नहीं थी। यदि एक और खाने वाला आ गया तो क्या होगा, इससे अच्छा है, दोनों ही मर जाएँ।

आलू खाकर दोनों ने पानी पीया और वहीं अलाव के पास अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो गए।  बुधिया के कराहने की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया और इसी प्रसव वेदना में तड़पते हुए उसके प्राण निकल गए। सुबह देखा तो पाया कि बुधिया के मुँह पर मक्खी भिनक रही थी और बच्चा उसके पेट में ही मर गया था। सारा शरीर लहू से सना हुआ था।

माधव और घीसू- दोनों ही हाय-हाय करके छाती पीटने लगे। पड़ोंसियों ने सुना तो दौड़े आए और उन्हें समझाया। और तब वे उसके लिए · कफन और लकड़ी के बारे में सोचने लगे। घर में एक पैसा भी न था। दोनों जमींदार के पास गए। हालाँकि वह उनसे घृणा करता था, पर उनकी दीनता, रोना और गिड़गिड़ाना देखकर दो रुपये उनकी ओर फेंक दिए। फिर तो दोनों ने जमींदार के नाम की दुहाई देकर गाँव के बनिये महाजनों से भी पैसे लिए। जब जमींदार साहब ने पैसे दिए तो भला वे कैसे मना कर-सकते थे। थोड़ी ही देर में घीसू और माधव की जेब में पाँच रुपये हो गए। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। दोपहर को दोनों बाजार से कफन लाने चल दिए।

पर बाजार पहुँचकर घीसू की नीयत बदल गई। उसने माधव को सुझाया कि जो मर गया उस पर अच्छा कफन डालने से क्या फायदा, इसलिए कोई घटिया-सा कपड़ा देख लिया जाए। पर शाम तक घूमते-फिरते रहने के बाद भी उन्हें कुछ पसंद न आया। वास्तव में वे दोनों रुपये हजम कर जाना चाहते थे और इसी प्रेरणा से वह एक शराब की भट्टी के सामने जा खड़े हुए। घीसू ने भट्टी के सामने जाकर एक बोतल शराब का आर्डर दिया। थोड़ी देर बाद चिखौना आया, तली हुई मछलियाँ आईं। दोनों कुज्जियों में डाल-डाल कर शराब पीने लगे और सरूर में आकर बकने लगे। मृतक बुधिया को आशीर्वाद देते हुए कहने लगे कि आज उसी के कारण यह खाना मिला है, इसलिए उसे स्वर्ग मिलेगा। वह बड़ी पुण्यात्मा है। लेकिन फिर उसके सामने चिंता थी कि वे लोगों से क्या कहेंगे कि कफन क्यों नहीं लाए-पैसे तो सभी समाप्त हो गए थे।

माधव की बात पर घीसू बड़ी काइयाँ हँसी सी हँसा और उसने सुझाया कि कह देंगे कि जेब से खिसक गए। उन्हीं को देखने में इतनी देर भी लग गई। उसकी तरकीब सुनकर माधव भी दिल खोलकर खूब हँसा। उसने सोचा कि बुधिया तो मर गई पर उसके बहाने आज खाने को खूब मिला।

आधी बोतल समाप्त हो जाने पर माधव सामने की दुकान से गरमागरम पूरियाँ, चटनी, अचार और कचौड़ियाँ ले आया। दोनों दो सेर पूरियाँ खा गए। उन्होंने सोच लिया था कि पड़ोसी कफन का प्रबंध तो करेंगे ही, हाँ,अब के उन्हें पैसे न मिलेंगे। मरे को कौन ऐसे छोड़ देता है, भला ! भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूरियों की पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दी जो काफी देर से वहीं खड़ा उसकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। उसने इस देने के आनद और उल्लास का अनुभव जीवन में पहली ही बार किया।

खा-पीकर दोनों बकने लगे। घीसू तो दार्शनिकों जैसी बातें करने लगा। प्रलाप और उन्माद दोनों ही उनपर छा रहे थे। पहले तो बुधिया की दयालुता और सहृदयता का वर्णन करते हुए उसे सीधे बैकुंठ को पहुँचाते रहे और नशे की हालत में उसके दुख की कल्पना करके दोनों आँखों पर हाथ रखकर चीखें मार-मारकर रोने लगे।

घीसू ने उसे बाद में समझाया कि रोने से क्या लाभ, खुश होना चाहिए कि मरते-मरते भी वह हमें इतना आनंद दे गई। इससे माधव प्रफुल्लित हो उठा और दोनों खड़े होकर नाचने लगे। फिर मस्ती में भरकर गाने लगे-

“ठगिनी, क्यों नैना झमकावै ! ठगिनी।”

पियक्कड़ों की आँखें उनकी ओर लगी हुई थीं। घर पर रात से मरी पत्नी का शव भी भिनक रहा था। पर उसकी चिंता से दूर अपनी मस्ती के आलम में घीसू और माधव शराब के नशे में धुत्त प्रलाप कर रहे थे और जब अधिक सहा न गया तो आखिर नशे से बदमस्त होकर वहीं गिर पड़े। उधर पड़ोसी उनकी आने की बाट जोह रहे थे, और वे खरीदकर लाने की अपेक्षा स्वयं ही नशे में चूर, सड़क पर पड़े हुए थे।

संभावित प्रश्न

माधव और घीसू किन वजहों से निकम्मे बन गए थे?

बुधिया की मृत्यु किस प्रकार हुई?

पाठ के अंत में माधव और घीसू की बुधिया की प्रशंसा क्यों की?

पाठ की मूल संवेदना क्या है?

सर्वहारा वर्ग के प्रति क्या किसी भी प्रकार का अन्याय इस पाठ में दिखाया गया है?

पाठ की भाषा-शैली कितनी प्रभावी है इस पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।

अकर्मण्य माधव और घीसू तथा मज़बूर किसानों में कोई खास अंतर नहीं जान पड़ता है आइस पाठ के आधार पर प्रमाणित कीजिए।

पैसे के अभाव में बुधिया की जान गई और उसकी मृत्यु के बाद पैसे मिल गए।

 ये समाज की किस विसंगति को दर्शाता है?

 

 

 

 

 

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