जिंदगी और जोंक Jindagi Aur Jonk by Amarkant Full Explanation
जिंदगी और जोंक
(अमरकांत)
लेखक परिचय
अमरकांत
– (जन्म : 01-07-1925-17 फ़रवरी 2014) अमरकांत का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले
के नगरा कस्बे में हुआ था। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका
भी अदा की थी। इन्होंने अमृत पत्रिका, सैनिक,
भारत
तथा कहानी के संपादन विभाग में कार्य किया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ जिन्दगी और जोंक [ कहानियाँ ] सूखा
पत्ता, पराई डाल का पंछी,
ग्राम
सेविका (उपन्यास) आदि। भारत सरकार द्वारा इनके साहित्य सेवा के लिए इन्हें सन् 2007
में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार भी
प्राप्त है।
कहानी का संक्षिप्त सार
एक
गरीब,
दुबला-पतला, काला, नाटा, भिखमंगा रजुआ (मूल नाम गोपाल)
मोहल्ले के खंडहर में अचानक आकर रहने लगा और एक हफ्ते के भीतर ही शिवनाथ बाबू के यहाँ
से एक साड़ी चोरी हो गई। रजुआ को ही चोर समझ कर मोहल्लेवालों ने रजुआ की बुरी तरह पिटाई
की,
अंत
में शिवनाथ बाबू के पुत्र ने धीरे-से बताया कि साड़ी घर पर ही मिल गई। रजुआ को लगता
है कि मैं निर्दोष सिद्ध हो गया। इस घटना के बाद लोग उसे कुछ-न-कुछ खाने पीने को दे
ही देते और वह उन लोगों के हल्के-फुल्के काम कर दिया करता। कुछ लोग उसे पहुँचा हुआ
साधु-महात्मा समझने लगे। वह अब खंडहर छोड़ कर किसी के ओसारे या दालान में सोने लगा।
एक दिन शिवनाथ बाबू ने उसे बुला कर कहा, “दर-दर भटकता रहता है। कुत्ते - सूअर का जीवन
जीता है। आज से इधर-उधर भटकना छोड़, आराम से यहीं रह और दोनों जून भरपेट खा।” रजुआ
उन्हीं के यहाँ रहने लगा और उनके काम करने लगा। शिवनाथ बाबू के दादा का नाम गोपाल सिंह
था इसलिए उनके यहाँ उसे रजुआ नाम दे दिया गया।
मोहल्ले
वालों को रजुआ का इस तरह शिवनाथ बाबू के यहाँ ‘ही’ काम करना हजम नहीं हुआ, वे उसे मोहल्ले भर का नौकर
समझते थे। रजुआ दिखाई पड़ा कि कुछ पैसे या खाने पीने की चीज़ दे दिए और अपना काम कराया।
जिसका भी काम उसने नहीं किया या करने में देर हुई तो वह उसकी पिटाई कर देता था। इस
तरह वह मोहल्ले भर का नौकर बन गया। धीरे-धीरे रजुआ के भाव बढ़ने लगे। वह गाँव की स्त्रियों
के साथ हँसी-मजाक भी करने लगा। गाँव की छोटी जाति की स्त्रियों को वह भौजाई कहने लगा।
किसी भी जवान युवती को देखा, चाहे वह पहचान की हो या न हो, रजुआ हिचकी दे-देकर किलकने
लगता। उसकी इस हरकत के कारण गाँव वाले उसे ‘रजुआ साला’ कहने लगे। एक दिन रजुआ स्टेशन
की एक पगली औरत को अपने साथ ले आया तथा सड़क के दूसरी ओर क्वार्टर की छत पर ले गया
तथा वहीं पगली के खाने-पीने का इंतजाम करता था। वह किसी के यहाँ काम करने भी जाता तो
बार-बार क्वार्टर जाकर पगली की खबर ले-लेता। कुछ खाने-पीने को मिलता तो पगली को दे
आता। एक बार रात के समय जब रजुआ छत पर पहुँचा तो पगली के पास किसी दूसरे को सोता देख
कर आपत्ति करता है, तब वह लफंगा उसे खूब पीटता है तथा पगली को
लेकर कहीं और चला जाता है। इस घटना के बाद से रजुआ अनमना रहने लगता है तथा गंभीर भी
हो जाता है।
इस
बीच उसने दाढ़ी बढ़ा ली। पता चला कि रजुआ को काम के बदले जो पैसे मिलते थे उसमें कुछ
बचा कर वह बरन की बहू के पास जमा कर देता था। जब दस रुपए जमा हो गए तो रजुआ ने माँगा, पर बरन की बहू ने साफ़ मना
कर दिया कि तेरी एक पाई भी मेरे पास नहीं है। इससे भी रजुआ आहत हो गया, वह कहता है कि जब तक बरन
की बहू को कोढ़ न फूटेगा, वह दाढ़ी न मुड़ाएगा। इसी काम के लिए वह शनीचरी
देवी पर जल चढ़ाता है। अब लोग उसे ‘रज्जू भगत’ कहने लगे। वह लोगों को बजरंगबली
से लेकर महात्मा गांधी तक के ऐसे किस्से सुनाता है जो किसी ने नहीं सुने होंगे।
एक
बार रजुआ को हैजा हो गया। वह कै और दस्त से पस्त हो गया। जिनके यहाँ वह काम करता था
उन सबने उसे भगा दिया, इस डर से कि उनके घर में भी बीमारी फैल सकती
है। वह खंडहर में पड़ा मौत से जूझता है। शिवनाथ बाबू तो यहाँ तक कहते हैं कि - यह बच
नहीं सकता। लेखक अस्पताल के अधिकारियों को सूचित करते हैं, वहाँ से गाड़ी में बैठकर
साथ आते हैं और जब मेहतर उसे खींच कर गाड़ी में लाद कर चले जाते हैं तब लेखक संतोष
की साँस लेते हैं। रजुआ बच जाता है। वह बेहद कमजोर हो जाता है, पेट भरने के लिए कुछ न कुछ
काम करने का प्रयत्न करता है। एक दिन वह फिर खंडहर में पड़ा मिला। इस बार उसे जबरदस्त
खुजली हो गई। शिवनाथ बाबू ने साफ़ कह दिया कि मेरे घर आएगा तो पैर तोड़ दूँगा। रजुआ
अब नर-कंकाल हो गया था। एक दिन एक लड़के ने आकर अचानक लेखक को बताया कि रजुआ मर गया, साथ ही एक कार्ड दिया और
कहा कि उसके परिवारवालों को मृत्यु की सूचना लिख दीजिए। लेखक ने सूचना लिखकर लड़के
को कार्ड सौंप दिया। गाँव में रजुआ की मृत्यु की सूचना फैल गई। तीन-चार दिन बाद अचानक
रजुआ की छाया देख कर लेखक डर जाते हैं। इतने में रजुआ कहता है कि सरकार मैं मरा नहीं, जिंदा हूँ। वह बताता है कि
मैंने ही उस लड़के को भेजा था। हुआ यह कि मेरे सिर पर एक कौवा बैठ गया था। कौवे का
सिर पर बैठना बहुत अशुभ माना जाता है, उससे मौत आ जाती है। कहा जाता है कि ऐसे में
अपने रिश्तेदार को मृत्यु की सूचना भेज देने से मौत टल जाती है। वह एक और कार्ड लेखक
को देते हुए कहता है कि - मालिक इस पर लिख दें कि गोपाल ज़िंदा है, मरा नहीं। लेखक समझने की
कोशिश करते हैं कि रजुआ जोंक की तरह जिंदगी से चिमटा था कि जिंदगी जोंक की तरह उससे
चिमटी थी।
पात्र परिचय
गोपाल
उर्फ रजुआ
रजुआ
जाति का बरई, रामपुर का रहने वाला अब
बलिया में रहता है। उसका पिता और दो बहनें टाउन में मर गए थे। वह दरिद्रता का कोई
संबंधी जान पड़ता है क्योंकि पूरे पाठ में उसे परजीवी के रूप में दिखाया गया है।
उसमें साहस अदम्य है तभी तो तीन बार मौत उसको निगलने आती है पर वह मौत को भी मात
दे देता है। बदले की भावना भी उसमें इतनी है कि वह बरन की बहू के कोढ़ फूटे
इसलिए वह अपनी दाढ़ी नहीं कटवाता। प्रवचन
देने की कला में भी उसकी कुशलता साफ नज़र आती है जब वह महात्मा गाँधी और बजरंगबली
के किस्से सुनाता। इसलिए लोग उसे रजुआ भगत कहने लगे थे। इस तरह बहुव्यक्तित्व का
स्वामी रजुआ इस कहानी का मुख्य पात्र है।
लेखक
लेखक
जो स्वयं रजुआ के जीवंत व्यक्तित्व को अनुभव करते हैं वे भी इस कहानी के मुख्य
पात्रों में से एक है। यह बात अवश्य है कि वे सहृदय व्यक्ति होते हुए भी रजुआ से
कमोबेस घृणा ही करते थे यद्यपि जब रजुआ को हैजा हुआ था तो उन्होंने ही उसे अस्पताल
में भर्ती करवाने का बीड़ा उठाया था। इस तरह तो उन्होंने रजुआ की जन बचाई थी। पूरे
पाठ में लेखक का रजुआ से बहुत ही कम वार्तालाप दिखाया गया है और हाँ लेखक की पत्नी
के माध्यम से लेखक को रजुआ की हर गतिविधि का पता चलता रहता था। यही कारण था कि
लेखक को उसके ऊपर यह कहानी लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा।
शिवनाथ
बाबू
कहानी
की शुरुआत में ही शिवनाथ बाबू के घर से साड़ी चोरी हो जाने के इल्ज़ाम में रजुआ की
पिटाई उनकी ही दया के कारण हो रही थी। ये समाज में सभ्य बनने का ढोंग करते हैं पर
वास्तव में कपटी और मौकापरास्त इंसान है। सच पूछा जाए तो मोहल्ले के प्राय: लोग
थोड़े-मोड़े अंशों में शिवनाथ बाबू की तरह ही मतलबी थे। एक निरीह प्राणी रजुआ को
बेदर्दी से मार खिलवाते हैं और पीटते हैं और पता चलता है कि साड़ी तो घर पर ही है
तो भी क्षमाप्रार्थी न बनकर दया के मूर्ति स्वरूप कहते हैं,
“अच्छा, इस बार छोड़ देते हैं। साला
काफ़ी पा चुका है, आइंदा ऐसा करते चेतेगा।”
बरन
की बहू
रजुआ
ने बरन की बहू को बुआ बना लिया था और दो-चार
आने जो कुछ कमाता, वह अपनी ‘बुआ’
के
यहाँ जमा करता जाता। इस तरह जमा करते-करते दस रुपए तक इकट्ठे हो गए हैं। एक बार उसने
बरन की बहू से रजुआ ने अपने रुपए माँगे तो वह इनकार कर गर्इ कि उसके पास रजुआ की एक
पाई भी नहीं। रजुआ के दिल को इतनी चोट लगी कि उसने दाढ़ी रख ली। वह कहता है कि जब तक
बरन की बहू को कोढ़ न फूटेगा, वह दाढ़ी न मुड़ाएगा। इसी
काम के लिए वह शनीचरी देवी पर रोज़ जल भी चढ़ाता है।
पाठ की मूल संवेदना
यह
पाठ हमें बताती है कि आपका जीवन आप ही सँवार सकते हैं और आप ही बिगाड़ सकते हैं। इस
पाठ में रजुआ सबकी दया का पात्र बन जाता है। किसी ने कहा है,
“भिखारियों को चुनने का अधिकार नहीं होता है।” यह उक्ति इस पाठ में रजुआ के ऊपर
लागू होती है। कोई उसे बासी खाना दे देता,
तो कोई उसे केवल दाल दे देता, कहीं से उसे रोटियाँ
मिल जाती तो दूसरे द्वार पर अनुनय-विनय करके वह नमक माँगता। लेखक चाहते हैं कि आज
की युवा पीढ़ी इस सच्चाई से अवगत हों कि आप स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।
दूसरी बात आज के युग में जानवरों की भी कोई पूछ नहीं होती और आवारा जानवर तो सचमुच
समाज के अवरोधक ही साबित होते हैं। इस पाठ में यदा-कदा रजुआ को गधे और सूअर की
उपमा दी गई है जो इस बात की ओर इशारा करती है कि उसकी जिंदगी सचमुच न घर की है न
घाट की। आज के आधुनिक मानव सभ्यता में बेकार और आश्रित पशुओं के लिए कोई भी स्थान
नहीं है।
रजुआ के चरित्र से सीख
हम
देख चुके हैं कि अमरकांत की संवेदना में रजुआ का प्रवेश दूसरे महायुद्ध के दिनों में
हुआ था। एक प्रतिशत इंसान और 99 प्रतिशत पशु - यह व्यक्ति मौत के विश्वव्यापी तांडव
के खिलाफ जिंदगी से जोंक की तरह चिपका हुआ किसी बिल - सुराख से निकल कर संवेदनशील रचनाकार
के अनुभव में आ जाता है। आतंक और जिजीविषा की प्रबल विरोधी शक्तियों में टकराव का नतीजा
है यह रजुआ जो अमरकांत की कहानी में अनूठी अर्थच्छायाएँ प्रतिबिंबित करता है। अमरकांत
ने उसे स्वाधीन भारत की पृष्ठभूमि में अंकित करके व्यंग्य और विडंबना को और भी गहरा
कर दिया है। जिंदगी को जोंक की तरह पकड़े हुए रजुआ सिर्फ जिजीविषा का प्रतीक नहीं है।
जिंदगी भी जोंक बनकर उसे चूस रही है। वह मनुष्य के शोषण,
उत्पीड़न
और संघर्ष का प्रतीक भी है। वह उन करोड़ों दुखी उपेक्षित हिंदुस्तानियों का प्रतीक
है जो जिंदा है सिर्फ चुसते जाने के लिए।
सामंती प्रथा की
झलक
भारत
आज़ाद हो गया है फिर भी लोग समाज में अपना वर्चस्व कायम करने के लिए या मुहल्ले में
अपना अधिकार
प्रकट करने के लिए वे रजुआ और रजुआ जैसे शोषितों से काम लेने और उसे पीटने में कोई कसर बाकी नहीं
छोड़ते। वे रजुआ
को मनुष्य नहीं समझते उससे सहानुभूति नहीं रखते; अपने स्वार्थ
और दंभ की सीमा में उसका इस्तेमाल करते हैं। भारत में यही तो एक
विडम्बना है कि जो समाज में अपना अधिकार चाहे बुरे काम के लिए ही क्यों न हो पा
लेता है वह पूजनीय तथा सम्माननीय बन जाता
है। रजुआ सार्वजनिक सेवक है - नेता की तरह सेवा करने वाला नहीं, मुहल्ले
भर के नौकर की तरह सेवा करने वाला। इसलिए वह गधे की तरह काम करता है, कुते की तरह दुत्कारा जाता है, सुअर की तरह चापुड़-चापुड़
करके बासी-तिबासी जो मिला खा लेता है। दूसरों की सेवा लेकर समाज में प्रतिष्ठा पाने का यह संस्कार सामंती
व्यवस्था की देन है और पूँजीवादी नीतियों ने उसे सुदृढ़ किया है।
भाषा
इस कहानी में भाषा अपने
में आँचलिकता और आधुनिकता दोनों के समेटे हुए है। भाषा के प्रयोग की दृष्टि से भी कुछ
सुंदर प्रयोग हुए हैं जैसे- “खंडहर में वह ऐसे पड़ा था जैसे रात में आसमान से टपककर
बेहोश हो गया हो अथवा दक्षिण भारत का भूला-भटका साधु निश्चिंत स्थान पाकर चुपचाप नाक
से हवा खींच - खींच कर प्राणायाम कर रहा हो।”
मुहावरे - प्रतीक - बिंब–
“चमार-सियार
डाँट-डपट पाते ही रहते हैं।”
“नीच और नींबू
को दबाने से ही रस निकलता है।”
“उसकी खोपड़ी
किसी हलवाई की दुकान पर दिन में लटकते काले गैस लैम्प की भाँति हिल-डुल रही थी।”
“वह भिखमंगा
अब भी तेज़ मार पड़ने पर चिल्ला उठता- मैं बरई हूँ, बरई हूँ,
बरई हूँ...”
“सारा वातावरण
इतना शांत था जैसे किसी षड़यंत्र में लीन हो।”
शीर्षक की सार्थकता
इस पाठ का शीर्षक ‘जिंदगी
और जोंक’ पाठकों को विचार करने के लिए बाध्य कर देता है कि
मनुष्य जिंदगी से जोंक की तरह चिमटा हुआ है या जिंदगी मनुष्य से जोंक की तरह।
वास्तव में इसका उत्तर यही होगा कि जब आप जीवन को अपनी तरह से जीते हैं, जीवन को सही दिशा और आयाम दे पाते हैं तब जिंदगी आप से जोंक की तरह चिमटी
हुई होती है। क्योंकि उस समय जिंदगी बड़ी अच्छी लगती है। ठीक इसके विपरीत जब आपकी
जिंदगी दूसरों की दया पर आश्रित हो जाती है और जीवन में कुछ अच्छा नहीं चलने के
बावजूद आप जीना चाहते हैं और अपने अच्छे दिन की कल्पना करते हैं तो ऐसे में आप
जिंदगी से जोंक की तरह चिमटे हुए होते हैं।
उद्देश्य
भारत आजाद हो गया, किंतु क्या
हम सही मायने में स्वाधीन हुए हैं? यह प्रश्न लगातार आम जनता
की हालातों को देखकर बुद्धिजीवियों के बीच उठता रहा। आज हम लाख प्रजातंत्र,
विकास, आधुनिकता की बात कर लें लेकिन अमीर और गरीब
के बीच की खाई, ऊँच-नीच की मानसिकता, समर्थ
द्वारा गरीब का शोषण क्या अब भी बंद हुआ है। पूर्वापेक्षा इसमें काफी मात्रा में कमी
अवश्य आई है, यह ठीक है लेकिन यह समझ लेने मात्र से संतोष नहीं
किया जा सकता। आज भी ऐसे अनेक मामले सामने आते हैं जहाँ सामंतवादी कुप्रथा का
नग्नरूप दृश्यमान हो जाता है। यह कहानी भी स्वतंत्रता के बाद ही लिखी गई है जिसमें
रजुआ की स्थिति से समाज की मानसिकता सामने आती है।
प्रश्न
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रजुआ पिटाई खाने के समय बार-बार “हम बरई है, हम बरई है।” क्यों कह रहा था?
-
शिवनाथ बाबू का चरित्र चित्रण कीजिए।
-
मौत को टालने के लिए रजुआ
ने क्या युक्ति अपनाईं?
-
लेखक रजुआ से क्यों प्रभावित हो उठा?
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यह कहानी समाज की किस विसंगति को दर्शाती है?
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रजुआ ने शपथ तो ली लेकिन गलत दिशा में ऐसा क्यों कहा जाना उचित है?
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