उसने कहा था Usne Kaha Tha By Chandradhar Sharma Guleri
https://youtu.be/yX3rE3vT_lI
उसने कहा था
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’
पाठ का उद्देश्य
प्रथम
विश्व युद्ध के बारे में जानकारी।
पंजाब के
सनिकों के बारे में।
अंग्रेजों
की क्रूरता के बारे में।
प्रेम और
ज़िम्मेदारी का अनूठा रूप।
लहना की
वीरता के बारे में।
एक श्रेष्ठ रचना के बारे में।
लेखक परिचय
चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म 7 जुलाई 1883 राजस्थान की वर्तमान
राजधानी जयपुर में हुआ था। उनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री मूलतः हिमाचल प्रदेश
के गुलेर गाँव के निवासी थे। गुलेरी जी की एक रचना, वह भी छोटी विधा-कहानी लिख कर साहित्य जगत में अमर हो जानेवाले साहित्यकार
हैं। ‘उसने कहा था’ कहानी के रचनाकार
के रूप में गुलेरी जी हिंदी कथा साहित्य में अनिवार्य रूप से स्थान प्राप्त करते
आए हैं। उन्होंने केवल तीन कहानियाँ लिखीं (1) सुखमय जीवन,
(2) बुद्धू का काँटा, (3) उसने कहा था। गुलेरी
जी अपने युग के प्रकांड विद्वान थे, अनेक विदेशी भाषाओं के
ज्ञाता, कुशल संपादक और निबंधकार थे। उनकी ‘उसने कहा था’ कहानी कथा जगत की विशेष उपलब्धि है।
सन् 1915 में प्रकाशित यह कहानी अपनी समसामयिक रचनाओं के
कथ्य और शिल्प दोनों में अत्यंत भिन्न एवं उत्कृष्ट कलाकृति होने के कारण ध्यानाकर्षण
का केंद्र बनी।
इनका स्वर्गवास 12 सितंबर 1922 को हुआ।
कहानी की पृष्ठभूमि
प्रस्तुत कहानी प्रेम, स्वार्थ, त्याग एवं बलिदान के अनुपम भाव की कथा है।
यह उपदेश प्रधान युग की कृति है परंतु कहानी मनोवैज्ञानिक है। इसमें मानव मन का
सूक्ष्म विश्लेषण है जो हिंदी कहानी में दो दशकों बाद विकसित हुआ। कहानी प्रथम
विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। आरंभ में दो सरल हृदय बालक-बालिका के
परस्पर मिलन और अनुराग का उदय फिर बालक के हृदय पर एक अनजाने से आघात का लगना और
उसे सहना यथार्थ की स्वाभाविक भूमि पर होता है। फिर दृश्य बदलकर फ्रांस के
रणक्षेत्र में पहुँच जाता है। क्षण भर को लगता है कि मूल कथा से इसकी संगति टूट
रही है परंतु लहना सिंह के स्मृति चित्र ‘फ्लेश बैक’ पद्धति से कहानी का मूल भाव और भी आकर्षक रूप में सामने आता है। जिससे
पुनरावृत्ति की ऊब भी नहीं होती तथा प्रेम त्याग के उत्सर्ग की हृदयस्पर्शी
अभिव्यक्ति होती है।
पात्र परिचय
लहना सिंह – इस कहानी का मुख्य पात्र है। पेशे से किसान है और जमीन
की टुकड़ी पाने की इच्छा से फौज में भर्ती हो जाता है और अंत में सूबेदारनी की बात
का मान रखते हुए वीरगति को प्राप्त होता है।
सूबेदारनी – सूबेदार हज़ारा सिंह की पत्नी और बोधा सिंह की माँ।
इन्होंने अश्रुपूर्ण नेत्रों से लहना सिंह से युद्ध में इन दोनों की रक्षा करने की
विनती की थी।
कीरत सिंह - लहना सिंह का भाई है और लहना सिंह अपने अंतिम क्षणों
में उसे बहुत याद करता है।
वजीरा सिंह - लहना सिंह के साथ फ़ौज का एक सैनिक जो विदूषक का भी
काम करता था इसने लहना सिंह के अंतिम क्षणों में उसके सिर को अपने गोद में रखता है
और उसे पानी पिलाता है।
कथासार
‘उसने
कहा था’ प्रथम विश्व युद्ध (1914 -
1918) में अंग्रेजों की ओर से फ्रांस की भूमि पर जर्मन सेना के
विरूद्ध लड़ने वाले भारतीय सिख सैनिकों की कहानी है, लहना
सिंह नामक सैनिक के प्रेम और त्याग की मार्मिक कथा को केंद्र में रखा गया है।
कहानी लिखने में पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) की पद्धति अपनाई गई है। अतः इसमें घटनाएँ
सिलसिलेवार नहीं, आगे-पीछे होकर आती है। अतः उन्हें
सिलसिलेवार सामने रखकर कहानी को समझना जरूरी है।
अमृतसर के भीड़ भरे बाजार में बंबू कार्ट वालों के बीच से निकलकर
बारह साल का एक सिख लड़का ओर आठ साल की एक सिख लड़की संयोगवश एक दुकान पर आ मिले।
लड़का माँझे का था और लड़की मगरे की। अमृतसर में दोनों अपने-अपने मामा के यहाँ आए
हुए थे। उस दिन लड़का अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और लड़की रसोई
के लिए बड़ियाँ। दही वाले की दुकान के पास एक टाँगे वाले का घोड़ा बिगड़ गया।
लड़की की जान पर आ बनी। लड़के ने अपनी जान पर खेलकर उसकी जान बचाई। स्वयं घोड़े की
लातों के बीच चला गया और लड़की को उठाकर उसने दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया।
परिचय हो जाने पर लड़के ने पूछा, “तेरी
कुड़माई (सगाई) हो गई ?” लड़की ‘धत्’
कहकर भाग गई और लड़का मुँह देखता रह गया। दूसरे-तीसरे दिन सब्जी
वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ, दोनों
अकस्मात् मिल जाते हैं। दो-तीन बार लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा,
तो लड़की बोली “हाँ हो गई .... कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।” लड़की भाग गई।
लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर
पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने से नहाकर आती हुई
किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
पच्चीस वर्ष बीत गए। इस बीच लड़की फौज के सूबेदार की पत्नी के नाते
सूबेदारनी हो गई थी और लड़का लहना सिंह, फौज में जमादार हो गया था। उसकी भी शादी हो चुकी थी और वह एक बेटे का बाप
भी बन चुका था। लड़की को वह भुल चुका था। एक बार वह सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन
के मुकदमे की परैवी करने अपने घर गया था। वहाँ उसे रेजिमेंट के असफर की चिट्ठी
मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार
हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे
घर होते जाना। साथ चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे
बहुत चाहता था। लहना सिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे, तब सूबेदार ने लहना सिंह से कहा, “सूबेदारनी तुमको
जानती है, बुलाती हैं।” लहना सिंह भीतर
पहुँचा। पता चला कि सूबेदारनी वही लड़की है, जो पच्चीस वर्ष
पहले अमृतसर में मिली थी। सूबेदारनी रोते-रोते कहती है, “मैंने
तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने
बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमकहलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन
क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती?
एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार हुए
पर एक भी नहीं जिया । अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने
उस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़े की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान
के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है।
तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।”
नबंर 77 सिख राइफल्स के
सैनिक फ्रांस की भूमि पर जर्मनों के विरूद्ध लड़ रहे थे। खंदकों की लड़ाई चल रही
थी। भयानक शीत, वर्षा और बर्फ में खंदक के भीतर पिंडलियों तक
कीचड़ में धँसे हुए सैनिक मोर्चे पर डटे हुए थे। लहना सिंह, सूबेदार
हजारा सिंह और सूबेदार का बेटा बोधासिंह भी उसी खंदक में थे। बोधासिंह बीमार था।
लहना सिंह अपने सूखे तख्तों पर उसे सुलाता था, अपने दोनों कंबल उसे उढ़ाता था और स्वयं सिगड़ी के
सहारे कीचड़ में पड़ा रहता था। सूबेदार यह सब जानता था। उसने लहना सिंह से कहा,
“कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है मौत है और ‘निमोनिया’ से मरने वालों को मुरब्बे (जमीन के
टुकड़े) नहीं मिला करते।” इस पर लहना सिंह बोला, “मेरा डर मत करो! मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरत सिंह की
गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।”
पलटन के विदूषक वजीरा सिंह ने इस मृत्यु-चर्चा को रोककर सैनिकों को
गीत गाने के लिए कहा। सबने मिलकर एक अश्लील-सा गीत गाया और फिर ताजे हो गए। इतने
में लपटन साहब के भेस में एक जर्मन अफसर खंदक में आ गया। उसने सूबेदार हजारा सिंह
को हुक्म दिया कि वह दस आदमी छोड़ बाकी सबको साथ लेकर जर्मन खंदक पर तुरंत धावा
करे, जर्मनों से खंदक छीनकर जब तक दूसरा हुक्म न मिले,
वहीं डटा रहे। पीछे दस आदमी कौन रहे, इस पर
बड़ी हुज्जत हुई। लहना सिंह चलने का हुआ, तो बोधा के बाप
सूबेदार ने बीमार बोधा की तरफ़ इशारा किया। लहना सिंह समझकर चुप हो गया। सूबेदार
सैनिकों को लेकर चला गया।
सूबेदार के जाने के बाद नकली लपटन साहब बनकर आए जर्मन अफसर ने लहना
सिंह को सिगरेट पेश करते हुए कहा, “लो,
तुम भी पियो । “लहना सिंह समझ गया कि यह लपटन
साहब नहीं, कोई और है, जो इतना भी नहीं
जानता कि सिख सिगरेट नहीं पीते। उसने बातों ही बातों में जर्मन अफसर की परीक्षा ले
डाली और जब विश्वास हो गया कि यह आदमी लपटन साहब नहीं है, तो
खंदक के भीतर जाकर वजीरा सिंह को खंदक के पीछे से निकलकर सूबेदार के पास दौड़ जाने
को कहा - “कहो कि एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठी है।” वजीरा
सिंह को भेजकर लहना सिंह नकली लपटन साहब के पास आया, जो बमों
से खंदक को उड़ाने जा रहा था। लहना सिंह ने बंदूक का कूंदा मारकर उसे चित्त कर
दिया और उसका मजाक उड़ाने के बाद कहा, “चालाक तो बड़े हो,
पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने
के लिए चार आँखें चाहिए।” जर्मन अफसर ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ
जेबों में डाले। जेब से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना ने
अपनी बंदूक के दो फायरों से जर्मन अफसर की कपाल क्रिया कर दी अर्थात् जर्मन अफसर का
काम तमाम कर दिया। इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। लहना और उसके
साथी उनका मुकाबला करने लगे। उधर सूबेदार हजारा सिंह अपने सैनिकों के साथ लौट आया।
जर्मन सैनिक दो पाटों के बीच में आ गए। सत्तर में से तिरसठ जर्मन हताहत हुए।
भारतीय सैनिक विजयी हुए। लेकिन इस लड़ाई में लहना सिंह को भारी घाव लगा। उसने घाव
को मिट्टी से भर लिया और साफा उस पर कसकर
कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को लगा दूसरा घाव और भी गहरा है।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दूर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने
पीछे टेलीफोन कर दिया और वहाँ से झटपट दो डॉक्टर और बीमार ढोने वाली दो गाड़ियाँ आ
पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक ही था । लहना सिंह ने बीमार बोधा और उसके बाप सूबेदार
को भेजते हुए कहा, “सूबेदारनी होराँ
को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे
जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया।” सूबेदार ने गाड़ी पर चढ़ते-चढ़ते
लहना सिंह का हाथ पकड़कर कहा, “तैने मेरे और बोधा के प्राण
बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को
तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?” लहना सिंह बोला, “अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना
और कह भी देना।” गाड़ी
जाते ही लहना सिंह लेट गया। उसने वजीरा सिंह को पानी पिलाने और खून से तर कमरबंद
खोल देने को कहा। वजीरा सिंह लहना सिंह का सिर गोदी में रखकर बैठ गया। लहना जब
पानी माँगता, पिला देता । लहना मृत्यु से पहले जीवन के
स्मृति - स्वप्न देखने लगा। जिनमें उसने अमृतसर में ‘कुड़माई’
वाली लड़की से लेकर सूबेदारनी से मिलने तक के स्वप्न चित्र देखें ।
मरते समय उसे लगा कि वह वजीरा सिंह की गोदी में नहीं अपने भाई कीरत सिंह की गोदी
में सिर रखे लेटा है। उसने वजीरा को कीरत सिंह समझते हुए कहा, “अबके हाड़ (आषाढ़) में यह आम खूब फलेगा, चाचा-भतीजा
दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना
ही यह आम है।” वजीरा सिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे। कुछ दिन बाद लोगों ने अखबारों
में पढ़ा, फ्रांस और बेल्जियम - 68वीं
सूची मैदान में घावों से मरा - नं. 77 सिख राइफल्स जमादार लहना
सिंह।
युद्ध-विरोधी कहानी/ वास्तविकता
यह कहानी जमीनी सच्चाइयों से जुड़ी हुई है। इस दृष्टि से देखें तो लहना
सिंह और सूबेदारनी का पति हजारा सिंह पंजाब के किसान हैं। उनके पास या तो जमीन है
नहीं, या बहुत कम है, या किसी
मामले-मुकदमे में फँसी हुई है। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ऐसे भारतीय किसान सेना
में इस प्रत्याशा के साथ भरती होते थे कि युद्ध में शौर्य प्रदर्शन करेंगे तो
सरकार उन्हें जमीन देगी।
‘उसने कहा था’ का लहना सिंह
किसान है इसका पता कहानी के इस वाक्य से चलता है कि, “सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकद्दमे की पैरवी करने वह अपने घर गया।”
अर्थात् उसकी जमीन किसी झंझट में फँसी हुई है और उस पर मुकदमा चल
रहा है। खेती करने के लिए जमीन न होने पर उस समय के किसान अपने जवान लड़कों को फौज
में भेज देते थे ताकि फौज की नौकरी से परिवार की गुजर बसर होती रहे और युद्ध में
बहादुरी दिखाने पर संभवतः सरकार खुश होकर जमीन का कोई टुकड़ा दे दे।
माँ की याचना
‘उसने कहा था’ कहानी अपने
शीर्षक से लेकर पूरे कथा-विन्यास में जहाँ सार्थक होती है, वह
है सूबेदारनी का रोते-रोते यह कहना कि, “सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में
जमीन दी है, आज नमकहलाली का मौका आया हैं पर सरकार ने हम
तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी
सूबेदार के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे
एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार हुए पर एक भी नहीं जिया ...... अब दोनों जाते हैं।
मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दही
वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे आप घोड़े की
लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों
को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।”
क्या यह प्रेमकथा है?
गुलेरी जी ने यह कहानी पाँच भागों में बाँट कर लिखी है, जिनमें से केवल पहले भाग में उन्होंने भारत के
शांतिपूर्ण जन-जीवन का चित्रण किया है, जबकि शेष चारों भाग
प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस की भूमि पर लड़ी जा रही लड़ाई से संबंधित है। इसमें
संदेह नहीं कि प्रेम इस कहानी का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। लेकिन प्रेम से कहीं
ज्यादा महत्त्वपूर्ण विषय है युद्ध। यदि ऐसा न होता तो प्रेम से संबंधित घटनाएँ
अत्यंत संक्षिप्त रूप में और युद्ध से संबंधित घटनाएँ इतने विस्तृत रूप में न आती।
इसमें एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि सूबेदारनी की याचना का मान रखने के लिए
उसने अपनी पत्नी को बेवा और अपने बच्चे को यतीम बना दिया जो इस बात का एहसास
दिलाता है कि जानें गईं तो हैं पर इसका फल किसी और पर पड़ा।
लहना सिंह की बहादुरी और
ज़िम्मेदारी
लहना सिंह भी किसान है। वह भी फौज में इसी इरादे से भरती हुआ था है
कि युद्ध में बहादुरी दिखाएगा, तो उसे भी
जमीन मिलेगी। लेकिन सूबेदारनी के दुख को समझकर वह उसके इकलौते बेटे की जान बचाने
के लिए ऐसा त्याग करने लगता है कि स्वयं सूबेदार को उससे कहना पड़ता है- “रात भर तुम अपने दोनों कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर
करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे
सुलाते हो। आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है
मौत है और ‘निमोनिया’ से मरने वालों को
मुरब्बे नहीं मिला करते।”
‘मुरब्बे’ अर्थात् ‘जमीन के टुकड़े’ जो लड़ाई में बहादुरी दिखाने पर
मिलते थे, बीमार होकर मर जाने पर नहीं मिल सकते थे। लेकिन
प्रेम कहिए या कर्तव्य, लहना सिंह को बीमार होकर मर जाना
मंजूर है, पर सूबेदारनी ने जो कहा था, उसे
भुला देना मंजूर नहीं। लेकिन बहादुरी तो वह दिखा ही देता है। नकली लपटन साहब के
आदेश पर सूबेदार के चले जाने पर वहाँ के सबसे बड़े अफसर के रूप में जो कुछ करता है
- नकली लपटन के साथ जिस तरह निपटता है, जिस सूझ-बूझ के साथ
सूबेदार को वापस बुलाकर न सिर्फ उसके प्राण बचाता है, बल्कि
शत्रु आक्रमण को भी विफल कर देता है - उसकी बहादुरी का ही नमूना है। लेकिन उसकी
बहादुरी के बदले में उसे कोई ‘मुरब्बा’ नहीं मिलता। मरने वाले सैनिकों की सूची में उसका नाम केवल इस सूचना के साथ
आता है कि ‘मैदान में घावों से मरा’।
भाषा एवं संवाद शैली
इस कहानी में पंजाबी भाषा के शब्दों का प्रयोग यदा-कदा देखने को
मिलता है इसके साथ ही उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इन मिश्रित भाषाओं के शब्दों से कथा में सजीवता
आ जाती है और साथ ही साथ संवाद योजना इतना बेजोड़ है कि ऐसा लगता है मानो लेखक
स्वयं उन पात्रों की बातचीत को सुन रहे हों।
निष्कर्ष
युद्ध में सामान्य तौर पर कोई किसी पक्ष का पक्षधर होता है परंतु
यहाँ लेखक न अंग्रेजों के पक्षधर हैं, न जर्मनों के। वे तो भारत की जनता के पक्षधर हैं,
जो इस कहानी में सिख सैनिकों के रूप में दिखाए गए हैं। यहाँ ध्यान
देने लायक बात यह है कि सिख जन्मजात बहादुर और बलिष्ठ होते हैं और इसी का लाभ
अंग्रेज़ प्रथम विश्व युद्ध में उठाते हुए नज़र आते हैं। सिख भी ज़मीन की टुकड़ी पाने
की इच्छा लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देने को तैयार हो जाया करते थे क्योंकि उनके
लिए खेती-बाड़ी प्राथमिक कार्य हुआ करता था। यहाँ अंग्रेज शासकों के लिए तो जमादार
लहना सिंह ‘मैदान
में घावों से मरने वाला’ एक सामान्य सैनिक है। उनकी मृत्यु को
गुलेरी जी ने गौरवान्वित नहीं किया क्योंकि कहानी के अंत में वे उसकी मृत्यु की सूचना अखबार
में छपी एक पंक्ति के रूप में देते हैं जिससे लगे कि अंग्रेजों के लिए भारतीय
सैनिकों की मृत्यु का कोई खास मतलब नहीं है। लेकिन भारतीय लोगों के लिए यह कहानी एक
स्थिति सामने लाती है ताकि पाठकगण सच्चाई को जानें और समझें। पाठ में सूबेदार जैसे
सैनिक बहादुरी दिखाने के लिए जमीन पा जाते हैं, उनके प्रति
गुलेरी जी ने ‘नमकहलाली’ शब्द से जो
व्यंग्य किया है उसमें करुणा है। यह शब्द करुणा की साक्षात् मूर्ति सूबेदारनी
स्वयं बोलती है और उसके स्वर में निहित विडंबना पाठक से छिपी नहीं रहती। इसी
प्रकार युद्ध में घावों से मरने वाले लहना सिंह को मुरब्बे नहीं मिलते और उसकी
बहादुरी एक बिडंबना बनकर रह जाती है।
प्रश्न
सूबेदारनी ने लहना सिंह से क्या याचना की थी?
लहना सिंह ने नकली लपटन साहब को कैसे पहचाना?
लहना सिंह को ‘मुरब्बा’ क्यों नहीं मिला?
लहना सिंह अपने जीवन के अंतिम क्षणों में क्या याद कर रहा था?
इस कहानी की विडंबना क्या है?
यह प्रेम कथा है या युद्ध कथा?
लिखिए।
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