चीफ की दावत Chief Ki Daawat By Bheeshm Sahani

 

https://youtu.be/gU4J3EiZGWk

चीफ की दावत

भीष्म साहनी

पाठ का उद्देश्य

रिश्तों की अहमियत का ज्ञान।

मध्यमवर्गीय परिवार के खोखलेपन और दिखावटीपन का वर्णन।

माँ के त्याग और बेटे की उपेक्षा का सजीव चित्रण।

बुजुर्गों को बोझ समझने वाले परिवार का दर्शन।

शहरी संस्कृति में बढ़ते अवसरवादिता का नग्न रूप।

संकीर्ण मानसिकता के साक्षात् दर्शन।

 

भीष्म साहनी :

सन् 1915 में रावलपिंडी में जन्मे भीष्म साहनी हिंदी के श्रेष्ठ प्रगतिशील लेखक हैं। आप मध्यवर्गीय मानसिकता के निरूपण में विशेष रूप से यशस्वी रहे हैं। आपका दृष्टिकोण समाजोन्मुख है; क्योंकि इनका चिंतन समष्टिगत चेतना से प्रेरित है।  भाग्य रेखा’, ‘पहला पाठ’, ‘भटकती राख’, ‘पटरियाँ’, ‘वाङ्चू’(कहानी संग्रह), ‘झरोखे’, ‘कड़ियाँ’, ‘तमस (उपन्यास), ‘हानूस (नाटक) आपके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। तमस पर 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से आप सम्मानित हुए। सन् 2003 में आप परलोक सिधार गए।

 

कथासार

चीफ की दावत

शामनाथ एक दफ्तर में काम करते हैं। अपनी तरक्की के लिए चीफ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वे उन्हें अपने घर दावत पर आमंत्रित करते हैं। उनके चीफ एक अमेरिकन व्यक्ति हैं अतः उन्हें प्रसन्न करने के लिए घर का पूरा वातावरण उसी रूप में प्रस्तुत करने के लिए शामनाथ और उनकी पत्नी निरन्तर लगे हुए हैं। कहाँ, कब, कैसे क्या रखना, लगाना, सजाना है। इसी तैयारी में पूरा समय व्यतीत हो रहा था कि अचानक माँ का ध्यान आते ही दोनों पात्र बेचैन हो उठते हैं। माँ बूढ़ी हों गयी है अतः चीफ के सम्मुख उनका पड़नाकिसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। कभी कोठरी में, कभी बरामदे में तो कभी उनकी सहेली के पास भेजे जाने के प्रस्ताव एक-एक करके नकारे जाते हैं। अंततः निश्चय किया जाता है कि माँ बेटे की पसन्द के कपड़े पहनकर, जल्द ही खाना खाकर अपनी कोठरी में चली जायें और साथ ही ध्यान रखें कि वे सोयें नहीं, क्योंकि उनकी खर्राटे लेने की आदत है ।

डरी, सहमी-सी माँ बेटे की हर बात को सिर झुकाकर स्वीकार करती है । वह गाँव में रहने वाली एक अनपढ़ औरत है जो प्रत्येक स्थिति में बेटे का भला चाहती है। शर्मीली, लजीली, धार्मिक विचारों वाली माँ को कुर्सी पर ढंग से बेठने का तरीका भी सिखाया जाता है, क्योंकि अगर कहीं गलती से साहब का माँ से सामना हो जाय तो शामनाथ को शर्मिन्दा न होना पड़े।

साहब और उनके सभी साथी लगभग आठ बजे तक पहुँच गए। व्हिस्की का दौर चलने लगता । दफ्तर में रौब रखने वाले साहब यहाँ पूरी तरह से मुक्त व्यवहार कर रहे थे। पीना - पिलाना समाप्त होने पर सभी खाना खाने के लिए बैठक से बाहर जा रहे थे कि अचानक सामने कुर्सी पर बैठी, सोती हुई माँ सामने पड़ गई। माँ पर बेटे को बहुत क्रोध आया, पर मेहमानों के सामने कुछ भी नहीं कह पा रहे थे। शामनाथ साहब के लिए परेशान थे पर साहब तो अलग ही प्रकृति के व्यक्ति निकले। उन्होंने माँ से हाथ मिलाया, गाना सुना । विदेशी साहब के इस उन्मुक्त व्यवहार के कारण देसी साहब भी माँ को उसी दृष्टि से देखने लगे। पर माँ लज्जा के कारण अपने में सिमटती जा रही थी। साहब के कहने पर उन्होंने एक पुरानी फुलकारी भी लाकर दिखाई। माँ के इस कार्य से प्रसन्न साहब चाहते हैं कि माँ उनके लिए एक नई फुलकारी बनाकर दें । हिचकिचाते हुए माँ उनके इस अनुरोध को स्वीकार करती हैं। बेटे की तरक्की का प्रश्न है इसलिए आँखों की रोशनी कम होने पर भी इसके लिए प्रत्यनशील होने का वायदा करती हैं। वे तो सब कुछ छोड़कर हरिद्वार जाना चाहत थीं पर, इस परिस्थिति में उन्हें अपना इरादा बदलना पड़ा। इसके बाद शामनाथ निश्चिन्त होकर पत्नी के साथ अपने कमरे में चले गए और माँ भी चुपचाप अपनी कोठरी में लौट गई।

 

कथानक की समीक्षा

चीफ की दावत कहानी का कथानक सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित है। इसका कथानक अत्यंत संक्षिप्त है। बेटे के साहब घर में डिनर पर आने वाले हैं। घर की व्यवस्था करते हुए अचानक बेकार’ - सी पड़ी हुई माँ की व्यवस्था में दोनों पति-पत्नी चिंतित हैं। माँ चीफके सामने न आ पड़े - इसकी पूरी-पूरी व्यवस्था करने के बाद भी वह अचानक चीफ के सम्मुख आ जाती है। संयोग से परिस्थिति बदल जाती है और व्यर्थ-सीमाँ काम की वस्तु बन जाती है और साहब की प्रसन्नता का कारण भी। लेखक ने इस कथा - सार की प्रस्तुति अत्यंत वास्तविक, रोचक और आकर्षक ढंग से की है। कहानी का प्रत्येक वाक्य जिज्ञासावर्द्धक जो पाठकों को आगे पढ़ने और उतरोत्तर घटना जानने की इच्छा को बलवती करता जाता है।

 

पात्र और चरित्र चित्रण

इस कहानी में मुख्य रूप से शामनाथ उनकी पत्नी तथा उनकी माँ ही मुख्य भूमिका में नज़र आते हैं।

इसमें शामनाथ एक ऐसा पात्र है जो सामाजिक तथा आर्थिक विडंबनाओं से जूझ रहा है। वह स्वयं को आर्थिक दृष्टि से सुव्यवस्थित करने के लिए कुछ भी कर सकता है। चीफ को दावत पर बुलाना उसे उत्कृष्ट कोटि का भोजन खिलाकर, प्रमोशन के लिए अवसर पाने की इच्छा उसके चरित्र के लालचीपन की ओर संकेत करती है। अपनी इस लौकिक उन्नति की इच्छा की पूर्ति के लिए वह हर बाधा को किसी भी कीमत पर दूर करने के लिए तैयार है । घर के फालतू समानसी माँ को कैसे दृष्टि से ओझल किया जाएइसकी हर संभावना उसके मन में कौंधती है। उनकी पत्नी भी उनके इस कार्य में उनकी तत्परता से मदद करती है। पर जब यही माँ चीफ के आकर्षण का कारण बन जाती है, तो वह उसे गाना गाने और फुलकारी बनाकर देने के लिए विवश करता है । दृष्टि कमजोर होने पर भी वह माँ की ओर से साहबसे वायदा करता है - वह जरूर बना देंगी। आप उसे देखकर खुश होंगे।इस रूप में शामनाथ आज के समय के उस वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है जो अपने स्वार्थ में पूरी तरह अंधा हो चुका है।

शामनाथ की पत्नी के चरित्र चित्रण में लेखक ने अधिक रुचि नहीं दिखाई है। वह एक सहायक पात्र में चित्रित है। घर की सजावट में पति की सहायता करना, आमंत्रित मेहमानों की देखभाल करना ही मानो उसका कर्तव्य है। वह किसी भी रूप में माँ-बेटे के बीच में नहीं आती। पति के प्रत्येक कार्य में मानों उसकी सदैव ही मूक स्वीकृति है।

प्रस्तुत कहानी का केंद्रीय पात्र माँ है। वह एक लज्जाशील और अनपढ़; गाँव की सीधी-सादी, भोली-भाली एक ऐसी स्त्री है, जो सदैव कर्तव्यों के प्रति सजग रही है। अपने अधिकारों को जिसने कभी जानने की भी चेष्टा नहीं की है। वह ममता की साक्षात मूर्ति है । जीवन - भर उसने सदैव अपने बेटे शामनाथ के ही बारे में सोचा और उसके लिए अपना हर पल समर्पित किया है। बेटे की पढ़ाई के लिए उसने अपने गहनों को भी बचे दिया था। पर, उसके इस-त्याग के बदले में मिली एक कोठरी, जिसमें उसे ज्यादा से ज्यादा समय बिताना पड़ता है। वह दिन-रात उस कोठरी में बैठी माला जपती है, और कभी दिल भर आता हे तो आँसू बहा लेती है। जीवन में अच्छा खाने, पहनने की इच्छा किसे नहीं होती। माँ की ये सभी इच्छाएँ बेटे के सुख के मार्ग में शहीद हो गई । मेरी जीभ जल जाय, बेटा तुमसे जेबर लूँगी ? मेरे मुँह से यूँ ही निकल गया। जो होते तो लाख बार पहनती।यह संवाद माँ के मन की कसक, उसकी अतृप्त आकांक्षाओं का प्रतीक है। वह त्याग की एक ऐसी मूर्ति है जो मौन रहकर सब कुछ सह रही है।

संवाद योजना

कहानी की संवाद योजना अत्यधिक प्रभावोत्पादक और वास्तविकता के काफी निकट है।

माँ हाथ मिलाओ

.....यूँ नहीं, माँ ! तुम तो जानती हो, दायाँ हाथ मिलाया जाता है । दायाँ हाथ मिलाओ

मगर तब तक चीफ माँ का बायाँ हाथ ही बार - बार हिलाकर कह रहे थे,

हाउ डू यू डू?”

कहों माँ, मैं ठीक हूँ, खैरियत से हूँ।

माँ कुछ बड़बड़ाई।

माँ कहती हैं, मैं ठीक हूँ। कहो माँ, हाउ डू यू डू।

माँ धीरे से सकुचाते हुए बोली - हो डू डू...

 

दूसरा रूप

माँ साहब कहते हैं, कोई गाना सुनाओ। कोई पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।”

माँ धीरे से बोली, “मैं क्या गाऊँगी बेटा मैंने कब गाया है?”

“वाह माँ! मेहमान का कहा भी कोई टालता है?”

“साहब ने इतनी रीझ से कहा है, नहीं गाओगी, तो साहब बुरा मानेंगे?”

मैं क्या गाऊँ, बेटा! मुझे क्या आता है?”

इस प्रकार प्रस्तुत कहानी के संवाद सजीव और सारगर्भित हैं साथ ही माँ की मानसिक हलचल उनके संवादों के माध्यम से हुई है। मनोविज्ञान का सहारा लेकर लिखे गए इन संवादों में सर्वत्र ही पात्रानुकूलता है।

 

भाषा-शैली

चीफ की दावतकहानी में मध्यमवर्गीय परिवार की समृद्ध भाषा हिंग्लिश जिसे हिंदी और इंग्लिश का मिश्रण कहते हैं उसका प्रयोग किया गया है। इसकी भाषा सहज, सरल और अद्वितीय गहनता लिए हुए है। शब्दों में व्यावहारिकता और भावुकता तो है ही, साथ ही लाक्षणिकता से भी सुसज्जित है । लेखक ने प्रायः बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले उन अंग्रेजी तथा पंजाबी भाषा आदि के उन सभी शब्दों को यथोचित रूप में अपनाया है, जो प्रायः मध्यवर्गीय हिंदी भाषा जनता में प्रचलित है। इतना अवश्य है कि लेखक ने उन शब्दों का अर्थ भी प्रस्तुत करके पाठक को सहज होने में सहायता की है। मुकम्मल, ड्रिंक, अड़चन, अवाक्, साक्षात, रौ, रौब आदि शब्द कहानी के उतार-चढ़ाव व सार्थकता प्रदान करते हैं।

 

निष्कर्ष

कहानी का उद्देश्य मशीन बनते मानवों में मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करना ही इसका मूल उद्देश्य है। पद, पावर, पैसा, पोजीशन के पीछे पागल इस दुनिया को रिश्ते की अहमियत से रू-ब-रू करवाना और सभी के हृदय में प्रेम का कोमल संचार करना भी इस कहानी का उद्देश्य है। यहाँ गौरतलब यह है कि मिस्टर शामनाथ अपने पद में तरक्की पाने के लिए अपने अमेरिकी बॉस को प्रसन्न करना चाहता है और इस एवज में अपनी जन्मदात्री को व्यर्थ की वस्तु मन बैठता है। सचमुच यह तो विकृत मानसिकता का ही नमूना है कि जो अपना है उसे अपना न बना सका और जो पराया है उसे अपनों से ज़्यादा सम्मान मिल रहा है। मिस्टर शामनाथ और उनकी पत्नी प्रोमोशन के लिए इतने पागल हो चुके हैं कि उन्हें इस बात का इल्म भी नहीं रह गया कि है जिस दिन घर में माँसाहारी भोजन बनता है, उस दिन उनकी माँ भी नहीं खाती, और न ही उसके लिए अलग से कोई व्यवस्था की गई है। धिक्कार है प्रोमोशन पाने की इस घटिया तरकीब पर। 

Comments