यमक अलंकार Yamak Alankaar

 

यमक अलंकार

चहै सब्द फिरि-फिरि पर, अर्थ औरई और।

सो यमकालंकार है, भेद अनेकन दौर ॥

विवरण - वैसा ही शब्द पुनः-पुनः सुन पड़े, परंतु अर्थ जुदा-जुदा हो, उसे यमक कहते हैं। इसके सबसे अधिक भेद केशवदासने अपनी कविप्रियामें लिखे हैं।

उदाहरण - 1

दोहा

तो पर वारौं उरबसी, सुनु राधिके सुजान।

तू मोहन के उर बसी है उरबसी समान ॥

उरबसी - उर्वशी

उरबसी - वैजंती माला

राधा मोहन से रूठ कर एक जगह बैठ जाती है तब उसकी सखी ललिता राधा को समझाते हुए कहती हैं कि हे राधा, मोहन तो तुमसे इतना प्रेम करते हैं कि तुम पर इंद्र की अप्सरा उर्वशी तक को न्योछावर कर सकते हैं। तुम तो उनके हृदय में ऐसे बसी हो जैसे उनके हृदय में वैजंती माला सदा रहती है।   

उदाहरण – 2

दोहा

भजन कह्यो तासों भज्यो, भज्यो न एकौ बार।

दुरि भजन जासों कह्यो, सो तैं भज्यो  गँवार ॥

भजन – भगवान को भजना

भजन – विषय या माया

अरे मूर्ख तुझे भगवान का भजन करने को कहा तो उससे तू दूर भाग रहा है, एक बार भी तुमने भगवान की आराधना नहीं की और माया से तुझे दूर भागने को कहा गया था तू तूने उसकी ही पूजा करनी शुरू कर दी। यह तो शास्त्र विरुद्ध है।

उदाहरण – 3

चौपाई

मूरत मधुर मनोहर देखी। भयउ विदेह विदेह विसेखी ॥

विदेह – राजा जनक

विदेह - देह की सुध-बुध खोना

राम की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए।

उदाहरण – 4

कवित्त

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी,

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।

कंद-मूल भोग करें। कंद-मूल भोग करें;

तीन बेर खाती ते वै तीन बेर खाती हैं।

भूखन सिथिल अंग भूखन सिथिल अंग,

बिजन डोलाती ते वै विजन डोलाती हैं।

‘भूषन’ भनन सिवराज बीर तेरे त्रास,

नगन जड़ाती ते वै नगन जड़ाती हैं।

 

उदाहरण – 5

दोहा 

कनक कनक तै सौ गुनी मादकता अधिकाय।

या खाए बौराए जग, वा पाए बौराए।।

कनक – धतूरा

कनक – सोना

उदाहरण – 6

पद

काली घटा का घमंड घटा

नभ मण्डल तारक वृंद खिले।

घटा – बादल

घटा - कम होना

उदाहरण – 7

पद

कदंब के पुष्प कदंब की छटा  

कदंब – फूल

कदंब – समूह

 

विशेष द्रष्टव्य

-इस अलंकार को अंग्रेजी में पन’ (Pun) कहते हैं। उर्दू और फारसी में तजनीस ज़ायदकहेंगे।

- स्मरण रखना चाहिए कि लाटानुप्रासमें केवल शब्दों ही की नहीं वरन् वाक्यों तक की आवृत्ति हो सकती है।

“पूत कपूत तो का धन संचय। 

पूत सपूत तो का धन संचय॥”

केवल अन्वय से अर्थ में हेर-फेर होता है। यमक में जिस अक्षर-समूह का आवर्तन होता है।

इसके सबसे अधिक भेद केशवदासने अपनी कविप्रियामें लिखे हैं।

बारन ते बारन कहूँ, होत जु बारन नाहिं ।

लागी बार न बधत रिपु, इन्हें सु वार न माहिं॥

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