वक्रोक्ति अलंकार Vakrokti Alankaar

 

वक्रोक्ति अलंकार

“होय स्लेष सों काकु सों, कल्पित औरै अर्थ ।

ताहि कहत वक्रोक्ति हैं, सिगरे सुकवि समर्थ ॥”

विवरण - कहे हुए वाक्य का श्लेष से वा काकु से और ही अर्थ कल्पित करें अर्थात् जब वक्ता कोई वाक्य एक अर्थ में कहता है और श्रोता उसका दूसरा ही अर्थ लगाता है, तो यहाँ वक्रोक्ति-अलंकार होता है। ऐसा अर्थ श्लेष से या काकु से हो सकता है।

 

वक्रोक्ति के दो भेद होते हैं

(क) श्लेष-वक्रोक्ति

(ख) काकु-वक्रोक्ति

 

श्लेष वक्रोक्ति

जहाँ अर्थ में श्लेष हो है, आसय जुदो लगाय ।

सो वक्रोक्ति श्लेष है, कबिबर कहैं बुझाय ।।

विवरण - जहाँ शब्द में श्लेष हो और वक्ता के कथन का श्रोता अलग अर्थ लगाता है तो वहाँ श्लेष वक्रोक्तिही समझना चाहिए।

(क) श्लेष-वक्रोक्ति में ....

(1) वक्ता किसी अभिप्राय से कुछ कहता है।

(2) श्रोता उसका दूसरा अर्थ लगाता है।

(3) यह अर्थ वक्ता के अभिप्राय से भिन्न होता है

(4) ऐसा दूसरा अर्थ श्लेष से लगाया जाता है।

(5) इस वक्रोक्ति मे श्लेषवाले, यानी एक से अधिक अर्थ देनेवाले, शब्दों का प्रयोग होता है। (एक अर्थ वक्ता का और दूसरा श्रोता का)।

 

उदाहरण (1)

खोलो जु किवार’, तुम को हो एति बार।

हरि नाम है हमारो, ‘बसो कानन पहार में।

हौं तो घनश्याम’ ‘बरसो जु काहु खार में।

जो गोपाल तो जाहु लै गैयन को वन माँझ में।

अर्थ-कृष्ण आकर राधिका को द्वार खोलने के लिए कहते हैं। राधा पूछती हैं-  बाहर तुम कौन हो ? कृष्ण उत्तर देते हैं- प्रिये, मैं हरि हूँ। राधा हरि का अर्थ सिंह लेकर कहती हैं-यहाँ हरि अर्थात् सिंह का कुछ काम नहीं।

यहाँ कृष्ण के हरि का अर्थ कृष्ण था। राधिका यह जानती हुई भी हरि का अर्थ सिंह लेती हैं और उपर्युक्त उत्तर देती हैं। हरि शब्द के दोनों अर्थ होते हैं । अतः यहाँ श्लेष वक्रोक्ति हुई।

अर्थ- कृष्ण फिर कहते हैं-मैं घनश्याम हूँ। राधिका फिर घनश्याम  का दूसरा अर्थ बादल लेकर उत्तर देती हैं तो जाओ और कहीं बार जाओ, यहाँ क्यों आए?

अर्थ- कृष्ण फिर कहते हैं-मैं गोपाल हूँ। राधिका फिर गोपाल का दूसरा अर्थ ग्वाला लेकर उत्तर देती हैं तो गायों को वन में ले जाओ, यहाँ क्यों आए ?

अतः यहाँ श्लेषवक्रोक्ति है।

उदाहरण (2)

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?

उसने कहा, ‘अपरकैसा? वह उड़ गया, सपर है।

गुरुभक्त सिंह

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

 

उदाहरण (3)

१-सवैया

"गौरवशालिनी प्यारी हमारी सदा तुमहीं इक इष्ट अहौ।

हौं न गऊ नहिं हो अवसा अलिनी नहीं अस काहे कहौ।।"

अर्थ-महादेव जी पार्वती से कहते हैं, हे गौरवशालिनी (महिमावाली) प्रिये, तुम्ही सदा हमारी इष्ट हो। पार्वती गौरव शालिनी शब्द का जानबूझ कर दूसरा अर्थ लेकर कहती हैं कि तुम मुझे गौरवशालिनी क्यों कहते हो क्योंकि न तो मैं गौ हूँ, न अवशा (स्वच्छंदचारिणी) हूँ, और न अलिनी (भ्रमरी) हूँ।

अर्थात् गौः+अवशा+अलिनी = गौरवशालिनी ।

यहाँ गौरवशालिनी शब्द के दो अर्थ हैं-

(1) महिमावाली

(2) गाय + स्वच्छद चारिणी + भ्रमरी (गौः + अवशाअलिनी)।

पार्वती ने दूसरा अर्थ लिया अत: या श्लेषवक्रोक्ति है।

उदाहरण (4)

हैं री सखी कृष्णचन्द्र?

चन्द्र कहूँ कृष्ण होत?

तब हँसे राधे कही मोरपच्छवारे हैं? 

गुरुभक्त सिंह

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

“मान तजो गहि सुमति पर, पुनि:पुनि होत न देह।

मानत जागी जाग को, हम नहि करत सनेह।।”

कोई व्यक्ति किसी से कहता है-हे वर! सुमति गहि (क) मान तजो"। वह व्यक्ति मान तजो गहिशब्दों को तोड़कर मानत जोगहि" समझकर उत्तर देता है। -दी-नारी के अनुकूल तुम, पाचरत जु दिनरात ।

कौन अरिनर सोहित करत, है यसुधा११.विख्यात ।। P: यहाँ उत्तरार्द्ध में नारीशब्द को तोड़कर न+अरि करके दुसर दिया।

सूचना-उर्दू तथा फारसी में सभंगपद-श्लेषको तननीस मुरक्कमऔर अभापद-श्लेष को तजनीस तामकह सकते है।

काकु वक्रोक्ति

जहाँ कंठध्वनि भिन्नतें, आसय जुदो लखाय।

सो वक्रोक्ति काकु है, कबिबर कहैं बुझाय ।।

विवरण - जहाँ शब्द के उच्चारण में कंठध्वनि से कुछ और ही अर्थ भासे तो वहाँ काकु वक्रोक्तिही समझना चाहिए।

काकु वक्रोक्ति में ....

1.     वक्ता-द्वारा पहले कोई बात कही हुई होती है।

2.     श्रोता उसका अन्य अर्थ लेकर उत्तर देता है।

3.     यह अन्यार्थ काकु यानी कंठध्वनि से बोलकर सूचित किया जाता है।

 

“मैं सुकुमारि, नाथ बन जोगु।

तुम्हहिं उचित तप, मो कहँ भोगु।”

 

मैं चोर हूँ

मैंने चोरी की है,

और मैंने तुमसे

सीनाजोरी की है।

 

 

काह न पावक जारि सक, का न समुद्र समाइ।

का न करै अबला प्रबल, केहि जग कालु न खाइ॥

 

लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।

भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर॥

 

(रावण ने अंगद से अपनी भुजाओं की शक्ति की डिंग मारी। इस पर अंगद बोला )

सो भुज बल राख्यो उर घाली। जीतेउ सहस्रबाहु, बली, बाली।

यहां (काकू वक्रोक्ति) से हारेउ अर्थात हारे थे सहस्रबाहु,बली और बाली से है।

 

भरत भूप सियराम लखन

बन सुनि सानंद सहौंगो,

पुर परिजन अवलोकि

मातु सब सुख सानंद लहौंगो॥

 

निशा बीत चुकी

आकाश में तारों का विचरण नहीं

जागरण नहीं जाग रण का समय यही।

 

सूचना-इसके उदाहरण रौद्ररसपूर्ण वा हास्यरसपूर्ण वाद-विवाद में अधिकता से आया करते हैं । रामायण में अंगद और रावण के संवाद में बहुत से हैं।

 

विशेष

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

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