श्लेष Shlesh Alankaar
श्लेष
दोय तीन अरु भाँति बहु, श्रावत जामैं अर्थ ।
स्लेष नाम ताको कहत, जिनकी बुद्धि समर्थ ॥
विवरण
- ऐसे शब्दों का प्रयोग जिनके दो तीन अर्थ हो सकते हों, श्लेष अलंकार कहलाता है। ये दो प्रकार के होते हैं –
सुबरन को ढूँढत फिरत कवि, व्यभिचारी, चोर
सुबरन – सुंदर वर्ण, सुंदर स्त्री,
स्वर्ण
घनीभूत जो पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छाई,
दुर्दिन में आँसू बनकर आज बरसने आई।
घनीभूत – इकट्ठी और मेघ बनी हुई
दुर्दिन – बुरे दिन मेघाच्छन्न दिन
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घाटि, ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर॥
वृषभानुजा – बैल की बहन, वृषभान की बेटी राधा
हलधर – बैल, बलराम
शब्द श्लेष
अर्थ श्लेष
शब्द
श्लेष
विशेष - श्लेष का सामान्य अर्थ है - चिपका
हुआ
जहाँ एक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता
है उसे वहाँ शब्द श्लेष होता है, जैसे
“रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून।।”
यहाँ पानी का अर्थ मोती के संदर्भ में चमक, मनुष्य के संदर्भ में इज्ज़त और आटे
के संदर्भ में पानी है।
अर्थ श्लेष
जहाँ सामान्यत: एकार्थक शब्द के द्वारा एक
से अधिक अर्थों का बोध हो उसे अर्थ श्लेष कहते हैं-
“जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो
होय॥”
बारे – जलाना और बचपन
बढ़े – बुझने पर और बड़े होने पर
“रावन-सिर-सरोज बनचारी चलिरघुवीर सिलीमुख-धारी॥”
यहाँ पर 'सिलीमुख' शब्द के दो अर्थ हैं
(१) बाण, (२) भौंरा ।
तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसे भौंरा दौड़कर कमलवन में जाते हैं और
कमलों में घुस जाते हैं, उसी प्रकार रघुनाथजी के शिलीमुख (बाण) रावण के
सिरों में घुसने लगे। तुलसीदासजो का मुख्य लक्ष्य बाणों की ओर जान पड़ता है न कि
बाण और भौंरा दोनों की ओर । इस हेतु यह शब्द श्लेष अलंकार है।
इसी प्रकार बिहारीकृत नीचे लिखे दोहों में एक अथं की मुख्यता है, इसलिए इन दोनों का श्लेष शब्दालंकार है।
अजौं तरयौना ही रह्यो, श्रुति सेवत इक अंग।
नाका बास बेसरि लह्यो, बसि मुकुतन के संग॥
“या अनुरागी
चित्त की गति समुझै नहिं कोई।
ज्यौं ज्यौं
बूड़ै स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होई॥”
दोय तीन अरु भाँति बहु, श्रावत जामैं अर्थ ।
स्लेष नाम ताको कहत, जिनकी बुद्धि समर्थ ॥
विवरण
- ऐसे शब्दों का प्रयोग जिनके दो तीन अर्थ हो सकते हों, श्लेष अलंकार कहलाता है। ये दो प्रकार के होते हैं –
सुबरन को ढूँढत फिरत कवि, व्यभिचारी, चोर
सुबरन – सुंदर वर्ण, सुंदर स्त्री,
स्वर्ण
घनीभूत जो पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छाई,
दुर्दिन में आँसू बनकर आज बरसने आई।
घनीभूत – इकट्ठी और मेघ बनी हुई
दुर्दिन – बुरे दिन मेघाच्छन्न दिन
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घाटि, ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर॥
वृषभानुजा – बैल की बहन, वृषभान की बेटी राधा
हलधर – बैल, बलराम
शब्द श्लेष
अर्थ श्लेष
शब्द
श्लेष
विशेष - श्लेष का सामान्य अर्थ है - चिपका
हुआ
जहाँ एक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता
है उसे वहाँ शब्द श्लेष होता है, जैसे
“रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून।।”
यहाँ पानी का अर्थ मोती के संदर्भ में चमक, मनुष्य के संदर्भ में इज्ज़त और आटे
के संदर्भ में पानी है।
अर्थ श्लेष
जहाँ सामान्यत: एकार्थक शब्द के द्वारा एक
से अधिक अर्थों का बोध हो उसे अर्थ श्लेष कहते हैं-
“जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो
होय॥”
बारे – जलाना और बचपन
बढ़े – बुझने पर और बड़े होने पर
“रावन-सिर-सरोज बनचारी चलिरघुवीर सिलीमुख-धारी॥”
यहाँ पर 'सिलीमुख' शब्द के दो अर्थ हैं
(१) बाण, (२) भौंरा ।
तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसे भौंरा दौड़कर कमलवन में जाते हैं और
कमलों में घुस जाते हैं, उसी प्रकार रघुनाथजी के शिलीमुख (बाण) रावण के
सिरों में घुसने लगे। तुलसीदासजो का मुख्य लक्ष्य बाणों की ओर जान पड़ता है न कि
बाण और भौंरा दोनों की ओर । इस हेतु यह शब्द श्लेष अलंकार है।
इसी प्रकार बिहारीकृत नीचे लिखे दोहों में एक अथं की मुख्यता है, इसलिए इन दोनों का श्लेष शब्दालंकार है।
अजौं तरयौना ही रह्यो, श्रुति सेवत इक अंग।
नाका बास बेसरि लह्यो, बसि मुकुतन के संग॥
“या अनुरागी
चित्त की गति समुझै नहिं कोई।
ज्यौं ज्यौं
बूड़ै स्याम रँग, त्यौं त्यौं उज्जलु होई॥”
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