पुनरुक्तवदाभास अलंकार Punuraktavadabhas Alankaar
पुनरुक्तवदाभास अलंकार
जानि परै पुनरुक्ति-सी, पै
पुनरुक्ति न होय ।
वदाभासपुनरुक्ति तेहि, भूषन कह
सब कोय ॥
विवरण-जहाँ दो शब्द ऐसे रखे जाएँ जो पर्यायवाची हो और एक-सा
अर्थ देते हुए दिखाई दें, परंतु यथार्थ में अर्थ कुछ दूसरा ही हो, उसे
पुनरुक्तिवदाभास अलंकार कहते हैं। पुनरुक्तिवदाभास का विखंडन करने पर पुनरुक्तिवत्
+ आभास
क्यों न होय छितिपाल सो, नीतिपाल
जग एक।
जाके निकट जु रहत हैं, सुमनस
बिबुध अनेक ॥
यहाँ ‘सुमनस’ और ‘बिबुध’ का पहली
दृष्टि में एक ही अर्थ ‘देवता’ प्रतीत
होता है, परंतु वास्तव में अर्थ है ‘सुंदर चित्तवाले’ और दूसरा ‘विशेषज्ञ पंडित’ है।
अर्थ – हमलोग उस श्रेष्ठ पुरुष को राजा क्यों न कहें
जिन्होंने अद्वितीय नीतियों का पालन करते हुए जनकल्याण किया है। और वे ऐसा इसलिए
कर पाए क्योंकि उन्होंने निकट सदा ही ‘सुमनस’ और ‘बिबुध’ अर्थात ‘सुंदर
चित्तवाले’ और दूसरा ‘विशेषज्ञ पंडित’ को रखा है।
बंदनीय केहिके नहीं, वे कबिंद
मतिमान।
सुरग गएहू काव्य-रस, जिनको जगत जहान॥
यहाँ ‘जगत’ और ‘जहान’ पहले
एकार्थवाची जान पड़ते हैं, परंतु विचार करने से अर्थ स्पष्ट हो जाता है ‘जगत’ ‘जो गाता
है’ और ‘जहान’ ‘संसार में’
अर्थ – हमें उस कवि की वंदना करनी ही चाहिए जिन्होंने अपनी
निर्मल मति से ऐसे काव्यों और रचनाओं को रच डाला जो जो सदैव सरहनीय है। उनके
स्वर्ग चले जाने के बाद भी पूरी दुनिया उनकी रचनाओं को आज भी गाती है।
चौपाई
पुनि फिरि राम निकट सो आई ।
प्रभु लछिमन पहँ बहुरि पठाई ॥
यहाँ ‘पुनि’ और ‘फिरि’ में एक
अर्थ का आभास है। ‘फिरि’ का अन्वय ‘आई’ के साथ
होगा।
पुनि फिरि - फिर लौटकर आया
अर्थ - वह लौटकर फिर श्री रामजी के पास आई, प्रभु ने
उसे फिर लक्ष्मणजी के पास भेज दिया।
दोहा
अली भौंर गूंजन लगे, होन लगे
दल-पात ।
जहँ तह फूले रूख तरु, प्रिय
प्रीतम किमि जात ॥
यहाँ अली और भौंर, दल और पात, रूख और
तरु तथा प्रिय और प्रीतम एकार्थवाची जान पड़ते हैं, परंतु
विचार करने से जान पड़ता है कि अली= सखी, पात होन लगे- गिरने लगे, रूख रूखे (सूखे ) और प्रिय - प्यारा।
अर्थ – यहाँ कवि कह रहे हैं प्रीतम जब अपनी प्रिय सखी से
उपवन में मिलते हैं और टहलने लगते हैं तो अति प्रसन्न होते हैं ठीक उसी प्रकार जब भौंरे
भी कलियों पर बैठते हैं और पराग सेवन करते हैं तो वे भी बहुत खुश होते हैं। इस
क्रिया में सखी और भौंर की ध्वनि गूँजने लगती है, पेड़ों के रूखे-सूखे पत्ते और फूल गिरने लगते हैं।
कवित्त-
भृगु-लात-पद हिय प्रियवर राजत हैं,
मोर पंख पक्ष साजे मेरे मन भावै है।
राजै हार बन-माल आड़ ते दिखाई देत,
‘कासिराज’ तन पर गोरज’ सोहावै
है।
रहै परदोष साँझ-समै मैं बिहारी’ स्याम,
ललित अरुन अंग ताम्र को लजावै है।
दक्षिन हरित हरे रंग-संग बलदेव,
कुंजर मतंग-दंत कंध धरे आवै है।
यहाँ कवि श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कह रहे
हैं कि उनके हरोदय स्थान पर भृगु ऋषि के पद प्रहार के चिह्न उपस्थित हैं। मोर के
पंखों से बना मुकुट उनके सिर पर इतना शोभायमन लगता है कि मेरे जैसे लोगों का समूह
भी उनकी सुंदरता के गीत गाता है। उनके गले में वैजंती माला वृक्षों के समूह से ऐसे
दिखती है मानों उनके शरीर पर फूल खिल आए हों। काशी के नृप पर गोधूलि अधिक सुहा रही
है। यह दूसरों का दोष है कि वो इस बात को जान ही नहीं पा रहे हैं कि शाम के समय
कृष्ण के शरीर की लालिमापूर्ण आभा ताम्र को भी लज्जित कर देती है। उनकी शोभा और भी
द्विगुणित हो जाती हैं जब उनकी दाईं ओर उनके बड़े भाई बलदेव खड़े हो जाते हैं अर्थात
उनका चित्त और भी आह्लादित हो जाता है और वे एक बड़े से हल जिसकी सीत हाथी के दाँत
के समान नुकीली है उसे कंधे पर धरण करते हुए आ रहे हैं।
इसमें लात और पद, पंख और पक्ष, हार और
बन-माल, परदोष और सांझ, अरुन और
ताम्र, हरित और हरे, कुंजर और
मतंग एकार्थवाची शब्द जान पड़ते हैं परंतु अर्थ पृथक-पृथक् है । अर्थात् पद-स्थान
। पक्षपक्षवाले लोग। बन. माल =वन के वृक्षों का समूह । परदोष = पराया दोष । अरुन =
लाल रंग । दक्षिण हरित-दौई ओर । हरे रंग-संगत अत्यंत प्रसन्न चित्त । कुंजर = बहुत
बड़ा।
पद-स्थान ।
पक्ष-पक्षवाले लोग।
बन-माल-वन के वृक्षों का समूह ।
परदोष - पराया दोष ।
अरुन - लाल रंग ।
दक्षिण हरित-दाईं ओर ।
हरे रंग-संगत अत्यंत प्रसन्न चित्त ।
कुंजर = बहुत बड़ा।
सटीक।
ReplyDeleteसटीक लिखा है।
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