काव्य-प्रयोजन Kavya Prayojan
काव्य-प्रयोजन
काव्य क्या है?
कवि के द्वारा किया गया साहित्यिक कार्य ही काव्य है। व्यापक
अर्थ में किसी कवि की वह पद्यात्मक साहित्यिक रचना जिसमें ओजस्वी, कोमल और मधुर रूप में ऐसी
अनुभूतियाँ, कल्पनाएँ और भावनाएँ व्यक्त की गई हों जो मन
को मनोवेगों और रसों से परिपूर्ण करके मुग्ध करनेवाली हों।
प्रयोजन की आवश्यकता
मानव-जीवन के सभी क्रिया-कलाप उद्देश्यपूर्ण होते हैं।
संस्कृत की यह लोकोक्ति इसी तथ्य को प्रमाणित करती है-
“प्रयोजनमनुदिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते”
अर्थात् बिना प्रयोजन के मन्दबुद्धि (मूर्ख) भी किसी कार्य
में प्रवृत्त नहीं होते। साहित्यकार अपनी सृजन-क्षमता के कारण ब्रह्मा के समान
माना गया है, फिर उसका कार्य प्रयोजनविहीन कैसे हो सकता है? प्रयोजन
के विषय में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि साहित्यकार क्यों लिखता है? साहित्य-सृजन
में साहित्यकार के जो भी उद्देश्य रहते हैं, वे ही साहित्य अथवा काव्य के प्रयोजन कहलाते
हैं।
सत्प्रयोजन की आवश्यकता
काव्य-शास्त्रविनादेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन तू मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥
बुद्धिमानों का समय काव्यशास्त्र के विनोद से व्यतीत होता
है जबकि मूर्खों का समय व्यसन, निद्रा अथवा कलह में ही बीतता है।
हितोपदेश’ के इस श्लोक से काव्य का प्रयोजन सुस्पष्ट
है।
काव्य-प्रयोजन का तात्पर्य
काव्य-प्रयोजन का तात्पर्य काव्य-सर्जन के उद्देश्य से है।
काव्य रचना के पीछे कवि का कोई-न-कोई
उद्देश्य अवश्य होता है। यही उद्देश्य काव्य का प्रयोजन कहलाता है, जिससे
प्रेरित होकर कवि काव्य सर्जन करता है।
काव्य-प्रयोजन पर आचार्यों के विचार
भारतीय आचार्यों ने काव्य-प्रयोजन पर विशद विवेचन किया है। परंतु
सभी आचार्यों में आचार्य मम्मट ने अपने ‘काव्य प्रकाश’ में काव्य-प्रयोजनों पर विशद विवेचन किया है।
उनके अनुसार काव्य के छ: प्रयोजन हैं –
यश, अर्थप्राप्ति, व्यवहार ज्ञान, शिवेतरक्षति, सद्य:परिनिवृत्ति और कान्तासम्मित उपदेश।
“काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्य: परिनिवृत्तये कान्तासम्मित तयोपदेशयुजे॥”
परवर्ती सभी आचार्यों ने मम्मट के मत को स्वीकारते हुए
काव्य के छ: प्रयोजनों को मान्यता दी है।
यशप्राप्ति :
यश की कामना, जिसे लोकैषणा की भावना भी कहा गया है, मानव
की महत्त्वपूर्ण कामना है। अतः यश काव्य-सृजन की प्रमुख प्रेरक-शक्ति स्वीकार की
जा सकती है। मिल्टन भी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य की अंतिम निर्बलता यश ही है।
जायसी की यह पंक्ति भी इस तथ्य को प्रमाणित करती है -
औ मन जानि कबित अस कीन्हा।
मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा॥
अर्थप्राप्ति :
काव्य के भौतिक प्रयोजनों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अर्थ
है। काव्य-रचना द्वारा अर्थ-प्राप्ति के अनेक ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं। अत:
अर्थ-प्राप्ति की कामना काव्य-सृजन की प्रेरणा बन सकती है। डॉ० गुलाबराय यह
स्वीकार करते हैं कि लेखकों का ध्येय अपनी रचनाओं को पाठ्यक्रमों में लगवाकर अथवा
जनता के मनोरंजनार्थ कहानी, उपन्यास आदि लिखकर उनकी बिक्री से
अर्थोपार्जन करना होता है।
व्यवहार-ज्ञान :
व्यवहार-ज्ञान का अभिप्राय सामाजिक शिष्टाचार और लोकनीति से
है। लोक व्यवहारशून्य व्यक्ति समाज में आदर नहीं पाता है। यह ज्ञान उसे शास्त्र से
ही प्राप्त हो सकता है। पाठक को देशकाल और वातावरण के अनुकूल आचरण की प्रेरणा देने
में कहानी, उपन्यास, काव्य, सूक्तियाँ आदि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती
हैं।
शिवेतरक्षति या अशिव की क्षति-
शिवेतर अर्थात् अशिव, अशुभ, अमंगल को दूर करना भी काव्य का प्रयोजन है। इसके
दो रूप माने गए हैं-
(क) स्रष्टा द्वारा अनिष्ट निवारण के बाद कल्याण की
कामना-यह देवस्तुति आदि से संभव होती है। आचार्य मम्मट के अनुसार मयूर कवि ने
सूर्य से अपने कोढ़-निवारण की प्रार्थना करते हुए भारतीय काव्यशास्त्र ‘सूर्यशतक’ की रचना
की। तुलसी ने ‘हनुमानबाहुक’ अपनी बाहु-पीड़ा-निवारणार्थ ही रचा था।
(ख)
समाज-कल्याण की भावना-इसमें देश और समाज का हित निहित होता है। इसमें प्राचीन काल
से लेकर आज तक का उपदेशात्मक, नीतियुक्त, राष्ट्रीय भावना से युक्त और वर्तमान काल का
प्रगतिवादी साहित्य तथा साधारण आदमी की समस्याओं का वर्णन करते हुए समाधान और
कल्याण की भावना का वर्णन होता
सद्यः परिनिवृत्ति :
सद्य: परिनिवृत्ति
का तात्पर्य है- तत्काल आनंद प्राप्ति अथवा सद्य: मुक्तावस्था। आचार्यों ने काव्यानंद
को ब्रह्मानंद सहोदर की संज्ञा देते हुए इसे काव्य का सर्वप्रधान प्रयोजन माना है।
डॉ० रामदत्त भारद्वाज इसे काव्य का मुख्य उद्देश्य मानते हैं। काव्य के आस्वादन से
जो रस-रूपी आनंद मिलता है, वही इसका लक्ष्य है। यह आनंद पाठक और स्रष्टा
दोनों को ही प्राप्त होता है।
कान्तासम्मित उपदेश :
शास्त्रों में तीन प्रकार के वचनों का निर्देश है -
प्रभुसम्मित, सुहृद्सम्मित और कान्तासम्मित।
(क) प्रभु-सम्मत- इसमें आज्ञा, उपदेश, लोकव्यवहार
की नीति और अच्छी-बुरी बातों का निर्देश होता है जो वेदादि में पाई जाती है।
(ख) सहृदय-सम्मत-इस पुराणों के उपदेश तथा भावनाएँ होती हैं।
(ग) कान्ता-सम्मत- पत्नी के समान मधुर उपदेश देना ही काव्य
का अन्यतम प्रयोजन है। ऐसा उपदेश प्रेम-मिश्रित होता है। बिहारी के दोहों ने राजा जयसिंह
पर विलक्षण प्रभाव डाला था, यह सर्वविदित है। नादिरशाह के कत्लेआम को
रोकने में मुहम्मद शाह नाम के वजीर का यह शेर पूर्णत: समर्थ हुआ था -
कसे न मांद कि रीगट व तेगेनाज कुशी।
मगर के ज़िंदा कुनी खल्क रॉव बाज कुशी।
अर्थात् तेरी तलवार ने न मार गिराया हो, ऐसा कोई
शेष नहीं बचा है। अब तो यही रह गया है कि त मुर्दों को जीवित करके अपनी तलवार से
कत्ल कर।
भारतीय आचार्यों द्वारा बताए गए प्रयोजन
भरत सबसे पहले आचार्य भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में नाट्य
के प्रयोजनों का उल्लेख किया है, जो काव्य पर भी चरितार्थ होता है। उनके
अनुसार नाट्य धर्म,यश और आयु का साधक, हितकारक, बुद्धिबर्द्धक
तथा लोकोपदेशक होता है।
भामह ने काव्यालंकार’ में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- चतुर्वर्गप्राप्ति, समस्त
कलाओं में निपुणता, प्रीति तथा कीर्ति को उत्तम काव्य का
प्रयोजना बतलाया है -
‘धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्त्ति प्रीतिं च साधुकाव्यनिबन्धनम्।’
दण्डी ने काव्य-प्रयोजनों का स्पष्ट उल्लेख न करते हुए वाणी
को ज्ञान और यश देनेवाला बताया है।
वामन के अनुसार काव्य के दो ही प्रयोजन हैं- प्रीति और
कीर्ति, जिन्हें
क्रमश: काव्य का दृष्ट और अदृष्ट प्रयोजन कहा गया है।
आचार्य रुद्रट ने यश, धनप्राप्ति, विपत्तिनाश, अलौकिक आनन्द, आप्त कामना, चतुर्वर्ग प्राप्ति आदि काव्य के अनेक प्रयोजन बताए हैं, और इनमें
से यश को विशेष महत्त्व दिया है।
आनन्दवर्धन ने काव्य-प्रयोजन पर पृथक रूप से चर्चा न करते
हुए भी सहृदय जनों के मनोरंजन को काव्य का उद्देश्य माना है।
अभिनव गुप्त ने आनन्दवर्धन का अनुसरण करते हुए प्रीति को ही
काव्य का प्रयोजन माना है।
राजशेखर ने सहृदय की दृष्टि से आनन्द और कवि की दृष्टि से
कीर्ति को काव्य का प्रयोजन माना है।
आचार्य कुन्तक के अनुसार काव्य पुरुषार्थ चतुष्टय का साधक, सहृदयों
को आह्लाद देनेवाला, व्यवहार का साधन तथा अलौकिक आनन्द का जनक
होता है।
आचार्य विश्वनाथ ने मामह की तरह चतुर्वर्ग प्राप्ति को
काव्य का प्रयोजन माना है।
पंडितराज जगन्नाथ के अनुसार यश, लोकोत्तर
आनन्द, गुरु, राजा और
देवताओं की प्रसन्नता काव्य के प्रयोजन हैं।
आचार्य मम्मट ने ‘काव्य प्रकाश’ में काव्य-प्रयोजनों पर विशद विवेचन किया है।
उनके अनुसार काव्य के छ: प्रयोजन हैं - यश, अर्थप्राप्ति, व्यवहार ज्ञान, शिवेतरक्षति, सद्य:परिनिवृत्ति और कान्तासम्मित उपदेश।
पाश्चात्य आचार्यों द्वारा बताए गए प्रयोजन
(1) प्लेटो- ये सौंदर्य और
नैतिकता को आधार मानकर भारतीय सौंदर्य एवं शिवम् के निकट दिखाई देते हैं।
(2) अरस्तू- ये काव्य का प्रयोजन ‘आनंद’ को
स्वीकार करते हुए उसे समाजोन्मुखी बनाने के पक्षधर हैं।
“The pleasure it affords in an
enduring pleasure, an aesthetic employment which is not divorced from scenic
ends.”
(3) होरेस- ये आनंद और लोक-कल्याण को ही साहित्य का प्रयोजन
स्वीकार करते हैं।
“The poet’s aim is to profit or
to please, or to blend in on the delightful and the useful.” (4) मैथ्यू आर्नोल्ड- ये जीवन की व्याख्या
करना ही साहित्य का प्रयोजन स्वीकार करते हैं।
“The end and aim of all
literature is, if one considers it attentively, nothing but a criticism of
life.”
(5) ड्राइडन- ये स्वान्तःसुखाय और परजनहिताय के पक्षधर हैं।
“To teach delightful is the function of poetry.”
(6) जे.ई. स्पिनगार्न- ये ‘कला, कला के
लिए’ के पक्षधर
थे-
“Romantic criticism first
enunciated the principle that art has no aim except expression, that its aim is
complete when expression is complete.”
Comments
Post a Comment