काव्य की आत्मा Kavya Ki Aatma

 

काव्य की आत्मा

 

काव्य की आत्मा का प्रश्न क्यों उठा?

शरीर में आत्मा की अनिवार्यता होने के कारण आचार्यों ने काव्य की आत्मा पर चर्चा करते हुए अपने मतों की पुष्टि की और इस तरह से काव्य की आत्मा का प्रश्न उठा।

काव्य की आत्मा क्या है?

भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख छ: संप्रदायों - रस, ध्वनि, रीति, अलंकार, वक्रोक्ति और औचित्य - में अपने-अपने तत्त्वों को काव्य की आत्मा, जीवन या अपरिहार्य तत्त्व माना गया है।

छ: संप्रदायों के विचार

रस,

ध्वनि,

रीति,

अलंकार,

वक्रोक्ति और

औचित्य

 

रस संप्रदाय

आचार्य विश्वनाथ ने वाक्यं रसात्मकं काव्यम्कहकर रस को काव्य की आत्मा बताया है। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में रस की चर्चा की है। उसके आधार पर उन्हें रस संप्रदाय के प्रथम आचार्य माना जाता है। उन्होंने रस को काव्य का मौलिक आधारभूत तत्त्व माना है। साहित्य में रस-सिद्धांत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अन्य संप्रदायों में भी रस की महत्ता स्वीकार की गई है।

 

ध्वनि संप्रदाय

ध्वनिवादी आचार्यों ने ध्वनि के तीन भेद कर रस ध्वनि को सबसे प्रमुख माना है। अग्निपुराण में इस रस ध्वनि को काव्य का जीवन माना गया है - वाग्वैहृदय प्रधानेऽपि रसं एवात्रजीवितम्।भट्टलोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, रुद्रभट्ट, राजशेखर आदि ने भी रस ध्वनि का महत्त्व प्रतिपादित किया।

 

रीति संप्रदाय

सबसे पहले आचार्य वामन ने काव्यशास्त्र में आत्माशब्द का प्रयोग कर रीति को काव्य की आत्मा बताया है रीतिरात्मा काव्यस्य। उन्होंने विशिष्ट पद रचना को रीति कहकर उसमें गुणों के द्वारा विशेषता भी मानी है और वही विशेष गुण से युक्त रीति ही काव्य की आत्मा है। उनके अनुसार उसी तत्त्व को काव्य की आत्मा कहा जाएगा जो सौंदर्य से मंडित हो। ऐसे दो तत्त्व हैं गुण और अलंकार। गुण सौंदर्य उत्पादक तत्त्व है और अलंकार सौंदर्य की वृद्धि करनेवाला। वे काव्य में गुणों की स्थिति को नित्य और अलंकारों को अनित्य मानते हैं।

 

अलंकार संप्रदाय

अलंकारवादियों ने आत्मा शब्द का प्रयोग न करते हुए भी अलंकार को काव्य का प्रधान तत्त्व माना है। इस संप्रदाय के प्रथम आचार्य थे आचार्य भामह और उनके अनुयायी थे, उद्भट, दण्डी, रुद्रट, प्रतिहारेन्दुराज और जयदेव आदि। ये सभी आचार्य अलंकार को काव्य का प्रधान तत्त्व स्वीकार करते हैं। मम्मट की अनलंकृती पुन: क्वापिउक्ति के आधार पर जयदेव ने कहा है कि अलंकार के अभाव में काव्य की सत्ता ही स्वीकार्य नहीं है ।

 

वक्रोक्ति संप्रदाय

आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मानकर आत्मा के स्थान में पर जीवितशब्द का प्रयोग किया है - वक्रोक्तिः काव्य जीवितम्। उन्होंने वक्रोक्ति को कवि-कौशल द्वारा प्रयुक्त विचित्रता कहा है। वक्रोक्ति काव्य का नितांत व्यापक, रुचिर तथा सुगढ़ तत्त्व है जिसके अस्तित्व के ऊपर कविता की चमत्कृति का संचार होता है।

औचित्य संप्रदाय

आचार्य क्षेमेन्द्र ने भी जीवितशब्द का प्रयोग कर औचित्य को काव्य की आत्मा कहा है। उनके अनुसार अलंकार और गुणों का अपना महत्त्व है, परन्तु रस से सिद्ध काव्य का अंतिम उद्देश्य जीवन औचित्य ही है -

अलंकारस्त्वलंकाराः गुण एव गुणा: सदा।

औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्।

उचित का जो भाव है वही औचित्य है। वह औचित्य ही रस का प्राणतत्त्व एवं काव्य में चमत्कार की सृष्टि करता  है। क्षेमेन्द्र के अनुसार औचित्य रस का जीवन है, औचित्य तत्त्व काव्य में अपरिहार्य है, क्योंकि इसके अभाव से काव्य उपहासास्पद हो जाएगा।

 

किसे माना जाए काव्य की आत्मा?

काव्य के लिए भाव और अभिव्यक्ति, दोनों पक्ष अपेक्षित हैं। रस का संबंध अभिव्यक्ति से है। अलंकार शोभा को बढ़ाता है, रीति शोभा का अंग है। वक्रोक्ति एक कथन प्रणाली है जिसमें काव्य को साधारण वाणी से पृथक करनेवाली विलक्षणता है। ध्वनि का विभाजन करते हुए तीन ध्वनियाँ मानी गई हैं - वस्तुध्वनि, अलंकार ध्वनि और रसध्वनि। इन तीनों में रसध्वनि को अधिक महत्त्व दिया गया है। औचित्य एक कसौटी है जिस पर ध्वनि, रस एवं अनुमिति की सत्ता है। रस ही काव्य की आत्मा है, जो ध्वनि के द्वारा औचित्य के माध्यम से व्यक्त होता है। रीति, अलंकार, वक्रोक्ति और ध्वनि का संबंध कृति से है। रस में कर्ता(कवि), कृति (काव्य) और भोक्ता(पाठक) तीनों को समान महत्त्व मिलता है। यह काव्य का अनिवार्य तत्त्व है। अत: रस ही काव्य की आत्मा है।

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