काव्य-हेतु Kavya Hetu

 

काव्य-हेतु

काव्य क्या है?

कवि के द्वारा किया गया साहित्यिक कार्य ही काव्य है। व्यापक अर्थ में किसी कवि की वह पद्यात्मक साहित्यिक रचना जिसमें ओजस्वी, कोमल और मधुर रूप में ऐसी अनुभूतियाँ, कल्पनाएँ और भावनाएँ व्यक्त की गई हों जो मन को मनोवेगों और रसों से परिपूर्ण करके मुग्ध करनेवाली हों।  

काव्य-हेतु से क्या तात्पर्य है?

काव्य या साहित्य के हेतु का सीधा अर्थ है-साहित्य-निर्माण का कारण। कवि में काव्य-निर्माण का सामर्थ्य उत्पन्न करनेवाले साधनों का नाम काव्य-हेतु है। काव्य-हेतु का अर्थ ऐसे साधनों एवं तत्त्वों से है जिसके कारण काव्य-सृजन संभव होता है।

काव्य-हेतु के मुख्य तत्त्व 

भारतीय काव्य-शास्त्र के प्राचीन आचार्यों में से अधिकतर आचार्यों ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को ही काव्य-हेतु के मुख्य तत्त्वों के रूप में परिगणित किया है और कुछ आचार्यों ने उपर्युक्त तीनों तत्त्वों के अतिरिक्त समाधि अथवा अवधान को भी मुख्य तत्त्व माना है।

काव्य-हेतु के तत्त्वों पर विचार

सबसे प्राचीन आचार्य भामह ने प्रतिभाको ही काव्य का सर्वतोभद्र हेतु स्वीकार किया है। उन्होंने काव्यालंकारमें कहा है कि गुरु के उपदेश से जड़बुद्धि भी शास्त्र का अध्ययन कर सकता है किन्तु काव्य का कर्ता कोई प्रतिभावान् व्यक्ति ही हो सकता है।  

गुरूपदेशादध्येतु शास्त्रं जड़ाधियोऽप्यलम्।

काव्य तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावतः ।

(काव्यालंकार 1/5)

प्रतिभा Brilliance

प्रतिभा वह सरस्वती तत्त्व है जिसका अधिकारी सत्काव्य की सृष्टि में समर्थ होता है और कवि कहलाने की अर्हता प्राप्त करता है। भटतौत के अनुसार प्रतिभा उस प्रज्ञा का नाम है जो नित्य-नूतन रसानुकूल विचार उत्पन्न करती है।  वामन के अनुसार यह जन्मान्तर से प्राप्त कोई संस्कार है जिसके बिना काव्य-सृजन संभव नहीं है। रुद्रट ने प्रतिभा को शक्ति विशेष कहा है जो मन की एकाग्रावस्था में अभिधेय को अनेक रूपों में विस्फुरित करता है। कुन्तक ने कवि-शक्ति को प्रतिभा कहा है जो पूर्वजन्म तथा इस जन्म के संस्कार से परिपक्व एक अद्वितीय दिव्य शक्ति है।

प्रतिभा के प्रकार –

अभिनवगुप्त ने प्रतिभा के दो प्रकार माने हैं –

(क) आख्या-यह कवि की प्रतिभा है।

(ख) उपाख्या-यह सहृदय या आलोचक की प्रतिभा है।

राजशेखर ने भी प्रतिभा के दो रूप माने हैं-कारयित्री और भावयित्री।

कारयित्री – यह कवि कर्म की सहयोगिनी है।

भावयित्री- यह भावों या समालोचकों की की सहयोगिनी है।

अतः यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि संस्कृत के सभी आचार्यों ने प्रतिभा को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। महिमभट्ट व्यक्ति-विवेकमें तो यहाँ तक कहते हैं कि प्रतिभा के अभाव में कवि काव्य-सृजन करने में समर्थ नहीं हो सकता। यदि वह इस प्रकार का प्रयास करे भी तो वह उपहासास्पद होगा।

 

व्युत्पत्ति Origination :

व्युत्पत्ति का शाब्दिक अर्थ है, पाण्डित्य या विद्वत्ता। रुद्रट के अनुसार छंद, व्याकरण, कला, लोकस्थिति एवं पदार्थज्ञान से उत्पन्न उचितानुचित विवेक का नाम व्युत्पत्ति है -

छन्दोव्याकरण कलालोकस्थिति पदपदार्थविज्ञानात् ।

 युक्तायुक्तविवेको व्युत्पत्तिरियं समासेन॥

मम्मट ने व्युत्पत्ति को निपुणता कहा है जो चराचर जगत के निरीक्षण और काव्यादि के अध्ययन से प्राप्त होती है। राजशेखर ने व्युत्पत्ति को बहुज्ञता कहा है।

अभ्यास Practice

अभ्यास का अर्थ है बार बार प्रयोग अथवा निरंतर प्रयत्न करते रहना। अभ्यास की महिमा सर्वविदित है। किसी कार्यका निरंतर अभ्यास ही उसे कुशल बना देता है। इसलिए कहा गया है - करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।अभ्यास काव्य-सृजन में कुशलता प्राप्त करने का महत्त्वपूर्ण साधन है। निरंतर अभ्यास से कवि की अभिव्यंजना में, भावाभिव्यक्ति में और अधिक प्रांजलता, माधुर्य और प्रभावशालिता का उदय होता है।

समाधि अथवा अवधान Attention          

चित्त की एकाग्रता ही अवधान है। एकचित्त (समाधि) व्यक्ति ही अर्थों को देख समझ और वर्णन कर सकता है। इस एकाग्रचित्तता या समाधि के लिए निर्जनता तथा ब्रह्म मुहूर्त काल आवश्यक है।  

पाश्चात्य विचारकों के अनुसार काव्य-हेतु

(1) प्लेटो- ये प्रेरणा को ही महत्त्व देते हैं, क्योंकि इनके अनुसार प्रेरणा के अभाव में कोई स्फुरण संभव नहीं है।

“There is no invention in him until he has been inspired.”

(2) अरस्तू-ये प्रतिभा के साथ सूझ-बूझ को भी महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार कवि-प्रतिभा जन्मजात होती है

“A man of born talent.”

(3) होरेस-ये प्रतिभा के साथ अभ्यास को महत्त्व देते हैं।

“For my part I fail to see the use of study without wit or of wit without training.”

(4) वेन जॉनसन- ये तीन विशेषताएँ स्वीकार करते हैं-

(क) प्रतिभा- जिसे वे प्रकृति-प्रदत्त (Natural endowment) मानते हैं,

(ख) व्युत्पत्ति-(लोकज्ञान) (Createness of study and multiplicity of reading), तथा

(ग) अभ्यास-इस पर उन्होंने विशेष बल दिया है।

(5) बेनेदितो क्रोचे- इन्होंने स्वयं-प्रकाश ज्ञान (Intuition) और बाह्याभिव्यंजना (Expression) का महत्त्व बताते हुए प्रतिभा तथा अभ्यास की महत्ता ही स्वीकार की है।

(6) टी. एस. इलियट - इनके अनुसार महान् रचना या महान् आलोचना उसी समय जन्म ले पाता है, जब तीन तत्त्व विद्यमान हों-

प्रौढ़ सभ्यता,

प्रौढ़-भाषा एवं संस्कृति तथा

प्रौढ़ कलाकार।

ये तीनों तत्त्व एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि इन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। प्रौढ़ता से तात्पर्य अभ्यास को ही स्वीकार करना है।

-डॉ० देवीशरण रस्तोगी-साहित्यशास्त्रउपसंहार-संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी तीनों ही भाषाओं के विचारकों ने काव्य के प्रमुख तीन हेतु स्वीकार किये हैं-प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। यह भी सभी ने स्वीकार किया है कि प्रतिभा इनमें सर्वोपरि है, परन्तु अभ्यास और व्युत्पत्ति के सहयोग से प्रतिभा में निखार आ जाता है।

 

 

इन संपूर्ण कथनों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं—

1. प्रतिभा विशेष महत्त्वपूर्ण है, फिर भी, इसके साथ शास्त्रज्ञान तथा अभ्यास भी आवश्यक है। आचार्य भामह, रुद्रट, मम्मट, केशव मिश्र आदि परवर्ती आचार्यों के अनुसार प्रतिभा, व्युत्पन्नता एवं अभ्यास के बीच क्रमशः उत्पाद्य-उत्पादक एवं पोष्य-पोषक संबंध है।

2. एक वर्ग ऐसा भी है जो प्रतिभा को स्वीकार करता है किंतु यह भी स्वीकार करता है कि बिना प्रतिभा के भी काव्य हो सकता है। आचार्य दंडी अभ्यास एवं - वामन काव्य ज्ञान को आवश्यक मानते हैं।

3. आचार्य मंगल अभ्यास को सर्वोच्च काव्य हेतु मानते हैं ।

4. आचार्य श्यामदेव समाधि को काव्य हेतु मानते हैं ।

5. राजशेखर के अनुसार अभ्यास और समाधि का समन्वित रूप एवं शक्ति, प्रतिभा एवं व्युत्पन्नता काव्य हेतु हैं। शक्ति कर्तृ स्वरूपा है और प्रतिभा तथा व्युत्पन्नता कर्म स्वरूपा । शक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, इसी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति में भी प्रतिभा उत्पन्न होती है।

6. कुछ केवल प्रतिभा को ही काव्य हेतु स्वीकार करते हैं। आनंदवर्धन, अभिनव गुप्त आदि । पण्डितराज जगन्नाथ तीनों तत्त्वों को मानते हैं किंतु अभ्यास एवं व्युत्पन्नता को प्रतिभा में पर्यवसित करते हए केवला प्रतिभा का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं।


 

 

 

 

आचार्य मम्मट ने प्रतिभा के लिए शक्तिशब्द का प्रयोग किया है जो कवित्व का बीज-रूप संस्कार विशेष हैं, जिसके बिना काव्य-सृजन संभव नहीं होता और यदि होता भी है तो वह उपहासास्पद होता है। वाग्भट के अनुसार प्रसन्न पदावली, नित्य-नूतन अर्थों तथा उक्तियों का उद्बोधन करनेवाली कवि की स्फुरणशील सर्वतोमुखी बुद्धि को प्रतिभा कहते हैं।

 

आचार्य दण्डी ने प्रतिभा के अतिरक्ति शास्त्रज्ञान तथा अभ्यास को भी काव्य का हेतु माना है। उनके अनुसार नैसर्गिक प्रतिभा, निर्मल शास्त्रज्ञान और अभंग अभियोग अर्थात् सतत अभ्यास काव्य संपद के कारण हैं -

नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम् ।

अगांदाश्चाभियोगोऽस्या: कारणं काव्यसंपदः ।।

(काव्यादर्श 1/103)

आचार्य रुद्रट ने इन काव्य-हेतुओं को भिन्न नाम से प्रस्तुत किया है - शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास। उन्होंने कवि की नैसर्गिकी प्रतिभा को शक्ति और विविध शास्त्रज्ञान को व्युत्पत्ति कहा है । आचार्य मम्मट ने शास्त्रज्ञान अथवा व्युत्पत्ति को निपुणता की संज्ञा देते हुए शक्ति, निपुणता और अभ्यास को काव्य-हेतु माना है। आचार्य रुद्रट ने भी शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास के समन्वित रूप को काव्य-हेतु माना है। वाग्भट के अनुसार प्रतिभा काव्य का कारण है, व्युत्पत्ति विभूषण है और अभ्यास उसके सृजन को बढ़ानेवाला है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्रतिभा काव्य का हेतु है एवं व्युत्पत्ति और अभ्यास प्रतिभा का संस्कार करनेवाले हैं। जयदेव ने भी इसी बात का समर्थन किया है। पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रतिभा को काव्य का कारण एवं व्युत्पत्ति और अभ्यास को प्रतिभा का कारण माना है।

अन्य आचार्यों में वामन ने लोक, विद्या और प्रकीर्ण को काव्य के तीन हेतु स्वीकार किये हैं। लोक से वामन का अभिप्राय लोकव्यवहार, विद्या से शास्त्रज्ञान एवं प्रकीर्ण से काव्य-परिचय, काव्य-रचना का उद्योग, वृद्धसेवा, प्रतिभा और चित्त की एकाग्रता है। राजशेखर ने समाधि एवं अभ्यास से उत्पन्न शक्तिको काव्य का प्रधान हेतु माना है और यही शक्ति ही प्रतिभा और व्युत्पत्ति को जन्म देती है। निष्कर्षत: प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को ही काव्य-हेतु माना जा सकता है, जो प्रमुख आचार्यों द्वारा स्वीकृत हैं। प्रतिभा :

प्रतिभा वह सरस्वती तत्त्व है जिसका अधिकारी सत्काव्य की सृष्टि में समर्थ होता है और कवि कहलाने की अर्हता प्राप्त करता है। भटतौत के अनुसार प्रतिभा उस प्रज्ञा का नाम है जो नित्य-नूतन रसानुकूल विचार उत्पन्न करती है - प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।वामन के अनुसार यह जन्मान्तर से प्राप्त कोई संस्कार है जिसके बिना काव्य-सृजन संभव नहीं है। रुद्रट ने प्रतिभा को शक्ति विशेष कहा है जो मन की एकाग्रावस्था में अभिधेय को अनेक रूपों में विस्फुरित करता है। कुन्तक ने कवि-शक्ति को प्रतिभा कहा है जो पूर्वजन्म तथा इस जन्म के संस्कार से परिपक्व एक अद्वितीय दिव्य शक्ति है। आचार्य मम्मट ने प्रतिभा के लिए शक्तिशब्द का प्रयोग किया है जो कवित्व का बीज-रूप संस्कार विशेष हैं, जिसके बिना काव्य-सृजन संभव नहीं होता और यदि होता भी है तो वह उपहासास्पद होता है। वाग्भट के अनुसार प्रसन्न पदावली, नित्य-नूतन अर्थों तथा उक्तियों का उद्बोधन करनेवाली कवि की स्फुरणशील सर्वतोमुखी बुद्धि को प्रतिभा कहते हैं।

अभिनवगुप्त ने आख्या और उपाख्या भेद से द्विविध प्रतिभा बतायी है। आख्या कवि की प्रतिभा है और उपाख्या सहृदय या समालोचक की प्रतिभा है। राजशेखर ने इन्हें कारयित्री और भावयित्री नाम दिये हैं। कारयित्री कविकर्म की सहयोगिनी हैं तो भावयित्री भावक या समालोचक की सहयोगिनी है। उन्होंने कारयित्री प्रतिभा के भी तीन भेद किये हैं - सहजा, आहार्या और औपदेशिकी। जन्मान्तर के संस्कारों की अपेक्षा रखनेवाली सहजा, वर्तमान जन्म के संस्कारों से उत्पन्न होनेवाली आहार्या एवं मन्त्रतन्त्रादि साधनों से उत्पन्न होनेवाली औपदेशिकी प्रतिभा है। रुद्रट ने प्रतिभा के सहजा और उत्पाद्या दो भेद माने हैं। सहजा स्वाभाविक है और उत्पाद्या शास्त्राध्ययन आदि से उत्पन्न होती है।

व्युत्पत्ति :

व्युत्पत्ति का शाब्दिक अर्थ है पाण्डित्य या विद्वत्ता। रुद्रट के अनुसार छंद, व्याकरण, कला, लोकस्थिति एवं पदार्थज्ञान से उत्पन्न उचितानुचित विवेक का नाम व्युत्पत्ति है -

छन्दोव्याकरण कलालोकस्थिति पदपदार्थविज्ञानात् । युक्तायुक्तविवेको व्युत्पत्तिरियं समासेन॥

मम्मट ने व्युत्पत्ति को निपुणता कहा है जो चराचर जगत के निरीक्षरण और काव्यादि के अध्ययन से प्राप्त होती है । राजशेखर ने व्युत्पत्ति को बहुज्ञता कहा है। अभ्यास:

अभ्यास का अर्थ है बार बार प्रयोग अथवा निरंतर प्रयत्न करते रहना। अभ्यास की महिमा सर्वविदित है। किसी कार्यका निरन्तर अभ्यास ही उसे कौशल बना देता है। इसलिए कहा गया है - करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।अभ्यास काव्य-सृजन में कुशलता प्राप्त करने का महत्त्वपूर्ण साधन है। निरन्तर अभ्यास से कवि की अभिव्यंजना में, भावाभिव्यक्ति में और अधिक प्रांजलता, माधुर्य और प्रभावशालिता का उदय होता है।

 


काव्य-हेतु

प्रश्न 2. काव्य-हेतु से क्या तात्पर्य है? काव्य-हेतु के सम्बन्ध में भारतीय विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हुए काव्य-हेतुओं की समीक्षा कीजिये।

अथवा काव्य-हेतु से सम्बन्धित पाश्चात्य विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हुए काव्य-हेतुओं की समीक्षा कीजिये।

अथवा साहित्य के काव्य-हेतु की व्याख्या करते हुए भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों के मतों का उल्लेख कीजिये।

उत्तर-काव्य या साहित्य के हेतु का सीधा अर्थ है-साहित्य-निर्माण का कारण । इसके अन्तर्गत उन तत्वों का विश्लेषण किया जाता है, जिनके कारण साहित्य की रचना होती है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि साहित्य (काव्य) के हेतु में रचनाकार द्वारा सृजन की प्रक्रिया और कारणों पर विचार किया जाता है। भारतीय काव्यशास्त्रमें इस तत्त्व का अत्यन्त वैज्ञानिक विवेचन हुआ है कि कवि में वह कौन-सी शक्ति निहित है, जिसके कारण वह सामान्य मानव होकर भी विलक्षण काव्य-रचना करता है या असामान्य अर्थ सम्पन्न करता है।

संस्कृत आचार्यों के अनुसार काव्य-हेतु विभिन्न संस्कृत के आचार्यों ने काव्य-हेतुओं का वर्णन किया है, परन्तु उनमें मतैक्य नहीं दिखाई देता। यहाँ संक्षेप में उनके मत प्रस्तुत किये जा रहे हैं

(1) भामह-काव्यालंकारमें भामह ने स्वीकार किया है कि गुरु के उपदेश से जड़-बुद्धि भी शास्त्रों का अध्ययन करने में समर्थ हो सकता है, पर काव्य तो किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति में यदा-कदा ही स्फुटित होता है। वे यह स्वीकार करते हैं कि काव्य-रचना के लिए व्याकरण, छंद, कोश, अर्थ, इतिहास, लोक-व्यवहार, तर्कशास्त्र तथा कलाओं का मनन करना चाहिये। उन्होंने काव्य-हेतु के तीन साधन माने हैं-प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। पर वे प्रतिभा को महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य तत्त्व स्वीकार करते हैं। 4 (2) दण्डी-प्रतिभा, अध्ययन तथा अभ्यास, तीनों के सम्मिलित रूप को ही दण्डी काव्य-हेतु स्वीकार करते हैं। उन्होंने काव्यादर्शमें कहा है

नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।

आनन्दश्चाभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसम्पदः॥ इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि प्रतिभा के अभाव में भी अध्ययन तथा अभ्यास के कारण सरस्वती की सेवकों पर कृपा रहती है। डॉ० राजवंश सहाय हीरा

 (भारतीय आलोचनाशास्त्र) के अनुसार दण्डी ने दो प्रकार की काव्य कोटियाँ स्वीकार की-(क) उत्तम-इसमें प्रतिभा, अध्ययन और अभ्यास की अनिवार्यता स्वीकार की है। (ख) सामान्य-यह काव्य-प्रतिभा के अभाव में भी अध्ययन और अभ्यास द्वारा निर्मित हो सकता है।

(3) वामन–‘काव्यालंकार सूत्रवृत्तिमें आचार्य वामन ने काव्य हेतुओं का पर्याप्त विस्तार से विवेचन किया है। इन्होंने प्रतिभा को ही काव्य का मूल कारण स्वीकार किया हैं। इसे वे जन्मजात गुण भी स्वीकार करते हैं और उनके अनुसार इसके बिना काव्य-सृजन नहीं हो पाता

 कवित्वबीज प्रतिभानं कवित्वस्य बीजम्।इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उन्होंने अन्य तत्वों को अस्वीकार किया है। उन्होंने लोक-व्यवहार, शास्त्र, शब्दकोष आदि का उल्लेख भी किया है। साथ ही वे प्रतिभा को महत्त्वपूर्ण मानते हुए चित्त की एकाग्रता को भी उसका सहायक अवधानस्वीकार करते हैं।

(4) रुद्रट-अपने ग्रन्थ काव्यालंकारमें रुद्रट ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास तीनों ही को काव्य का हेतु स्वीकार किया है। उन्होंने प्रतिभा दो प्रकार की मानी। है- पहली सहजा जो कवि में जन्मजात होती है और काव्य-निर्माण का मूल कारण है दूसरी उत्पाद्य, यह अध्ययन से उत्पन्न होती है अथवा व्युत्पत्ति द्वारा उत्पन्न होती है। यह सहजा प्रतिभा को संस्कारित और परिष्कृत करती है। अतः रुद्रट ने सहजा प्रतिभा को काव्य का हेतु मानकर उत्पाद्य को उसके संस्कार का कारण माना है। उन्होंने व्युत्पत्ति को छन्द, कला, व्याकरण आदि का ज्ञान बताया है और यह भी कहा है कि सुकवि के निकट रहकर काव्याभ्यास करने से भी सन्दर रचना संभव है।

(5) आनन्दवर्धन-इन्होंने ध्वन्यालोकमें प्रतिभा को महत्त्व देते हुए कहा है... न काव्यार्थविरामोऽस्ति यदि स्यात् प्रतिभा गुणः।

इनके अनुसार प्रतिभाहीन कवि उत्तम काव्य-रचना नहीं कर सकता। प्रतिभाशाली कवि के पास प्रतिपाद्य-विषय का अभाव नहीं रहता। वह प्राचीन विषय को भी अपनी प्रतिभा के द्वारा नव्यता प्रदान करके उसमें नूतन भाव भर देता है।

(6) राजशेखर-ये प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों को काव्य का श्रेयस्कर हेतु मानते हैं

 प्रतिभाव्युत्पत्तिमिश्रः समवेते श्रेयस्यौ इति।राजशेखर के अनुसार प्रतिभा तथा व्युत्पत्ति से आपूर्ण होने पर ही कवि कवित्व प्राप्त करता है। उन्होंने बुद्धि के तीन प्रकार बताए हैं-(क) स्मृति-पूर्व विषयों का स्मरण करने वाली। (ख) मति-वर्तमान विषयों का मनन करने वाली। (ग) प्रज्ञाभविष्यदर्शिनी या दीर्घदर्शिनी। वे तीनों प्रकार की बुद्धि को कवि के लिए उपयोगी एवं आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार प्रतिभा भी दो प्रकार की होती है

(अ) कारयित्री-यह जन्मजात होती है। यह भी तीन प्रकार की होती है-सहजा, आहार्या और औपदेशिकी। जन्मजात प्रतिभा सहजा, अध्ययन से उत्पन्न आहार्या और सादि के कारण उत्पन्न प्रतिभा औपदेशिक कही जाती है। (ब) भावयित्री-इसका सम्बन्ध सहृदय और आलोचक से माना जाता है।

(7) महिमभट्ट-ये शक्ति तथा व्युत्पत्ति को समवेत रूप से काव्य का हेतु मानते हैं और अभ्यास को गौण। (8) मम्मट-इन्होंने काव्यप्रकाशमें लिखा है

शक्तिनिपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्।

काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे॥ अर्थात् कवि में रहने वाली स्वाभाविक प्रतिभारूपी शक्ति, लोक-व्यवहार, शास्त्र तथा काव्यादि के अध्ययन से निपुणता पाकर गुरु की शिक्षा के अनुसार अभ्यास से अधिक निपुण होकर काव्य का कारण बनती है।

मम्मट शक्ति को काव्य का बीज संस्कार मानते हैं, जिसके अभाव में काव्य-सृष्टि सम्भव नहीं

शक्तिः कवित्वबीजरूपाः।

(9) वाग्भट्ट-ये अपने अलंकार-तिलकमें प्रतिभा को महत्त्व देते हुए व्युत्पत्ति और अभ्यास को उसका सहायक मानते हैं

प्रतिभैव च कवीनां काव्य-करण कारणम्।

(10) केशव मिश्र-आप अपने अलंकार शेखरमें प्रतिभा को ही महत्त्व देते हैं और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को उसका सहायक मानते हैं

प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिविभूषणम्।

(11) हेमचन्द्र-इन्होंने काव्यानुशासनमें प्रतिभा को ही महत्त्व दिया और यह भी स्वीकार किया कि प्रतिभा के अभाव में व्युत्पत्ति और अभ्यास का महत्त्व भी कम हो जाता है

प्रतिभाऽस्य हेतुः प्रतिभा नवनवोल्लेखशालिनी प्रज्ञा।

(12) पंडितराज जगन्नाथ-इन्होंने रस-गंगाधरमें काव्य-निर्माण का हेतु प्रतिभा को ही स्वीकार किया

तस्य च कारणं कविगता केवलं प्रतिभा।काव्य-हेतुओं की समीक्षा-मुख्य रूप से काव्य के तीन हेतु ही स्वीकार किये गये हैं-(1) प्रतिभा, (2) व्युत्पत्ति और (3) अभ्यास। इनके अतिरिक्त समाधि अथवा अवधान की चर्चा भी हुई है। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है__(1) प्रतिभा-प्रतिभा का महत्त्व तो सर्वोपरि है ही। आचार्यों ने इसकी व्याख्या निम्नलिखित रूप से की है

(क) भट्टतौत-इनके अनुसार प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।अर्थात् वह शक्ति (प्रज्ञा) जो नवीन-नवीन विचार उत्पन्न करने वाली हो, कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा कहलाती है।

(ख) रुद्रट (काव्यालंकार)-जिस गुण के कारण स्थिर चित्त में अनेक प्रकार की वाक्यार्थों का स्फुरण हो, वह शक्ति ही प्रतिभा है।

(ग) कुन्तक-इनके वक्रोक्तिजीवितम्के अनुसारप्राक्तनाद्यतन संस्कार परिपाक प्रौढा प्रतिभा काचिदेव कविशक्तिः।

अर्थात् पूर्व-जन्म तथा इस जन्म के संस्कारों से उत्पन्न विशेष शक्ति प्रौढ़-रूप धारण करने पर प्रतिभा कहलाती है।

(घ) महिमभट्ट-इसे (प्रतिभा को) कवि का तृतीय नेत्र मानते हैं, जिससे त्रैलोक्यवर्ती समस्त भावों का साक्षात्कार होता है।

सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि प्रतिभा ऐसी जन्मजात विशेषता या शक्ति है जो नवीन सृजन में सहायक होती है।

प्रतिभा के प्रकार - अभिनवगुप्त ने प्रतिभा के दो प्रकार माने हैं - (क) आख्या-यह कवि की प्रतिभा है। (ख) उपाख्या-यह सहृदय या आलोचक की प्रतिभा है। राजशेखर ने भी प्रतिभा के दो रूप माने हैं-कारयित्री और भावयित्री।

अतः यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि संस्कृत के सभी आचार्यों ने प्रतिभा को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। महिमभट्ट व्यक्ति-विवेकमें तो यहाँ तक कहते हैं कि प्रतिभा के अभाव में कवि काव्य-सृजन करने में समर्थ नहीं हो सकता। यदि वह इस प्रकार का प्रयास करे भी तो वह उपहासास्पद होगा।

(2) व्युत्पत्ति या निपुणता-मम्मट के काव्यप्रकाशके अनुसार, लोक और शास्त्र के अध्ययन और अनुशीलन से जो चतुरता प्राप्त होती है, वही निपुणता है। रुद्रट ने अपने काव्यालंकार में इसे व्युत्पत्तिकहा है

छन्दो व्याकरण कला लोकस्थिति पद पदार्थ विज्ञानात्।

युक्तायुक्त विवेक व्युत्पत्तिरियम् समासेन ॥

अर्थात् छन्द, व्याकरण, कला, लोक की स्थिति, पद तथा पदार्थों के विशिष्ट ज्ञान से उपयुक्त विवेकयुक्त ज्ञान की प्राप्ति ही व्युत्पत्ति है। इस आधार पर इसके दो रूप माने गये हैं

(क) शास्त्रीय-यह अध्ययनजन्य है।

(ख) लौकिक-यह लोक-निरीक्षण से उत्पन्न होती है। शास्त्रीय व्युत्पत्ति के द्वारा कवि के कथन में सौन्दर्य एवं व्यवस्था का समावेश होता है तथा लौलिक व्युत्पत्ति के कारण अभिव्यंग्य की सम्यक् प्रस्तुति की जाती है। अतः अभिव्यंजना को दोषरहित एवं हृदयावर्जक बनाने के लिए व्युत्पत्ति या अध्ययन आवश्यक है।

- भारतीय आलोचनाशास्त्र । (3) अभ्यास-अभ्यास से तात्पर्य है-बार-बार उस कार्य को करना या निरन्तर प्रयास करना है-अविच्छेदेन शीलनमभ्यासः।

           अभ्यास का महत्त्व भी कम नहीं है। प्रतिभा होने पर भी बिना अभ्यास के श्रेष्ठ काव्य का सृजन सम्भव नहीं है। इसी से यह स्वीकार किया गया है-करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।। (4) समाधि अथवा अवधान-मन की एकाग्रता ही वह स्थिति है, जिसे समाधि या अवधान कहा जाता है। राजशेखर ने इसकी महत्ता स्वीकार की है। यह गुण भी कम महत्त्वपूर्ण नही है। किसी भी कार्य के लिए चित्त की एकाग्रता होना परम आवश्यक है,। फिर काव्य-सृजन तो एक महत्त्वपूर्ण कार्य है।

हिन्दी-विचारकों के अनुसार काव्य-हेतु काव्य-हेतु के सन्दर्भ में हिन्दी के विद्वानों ने अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये

हैं

(1) कुलपति ने रस-रहस्यमें लिखा है

शब्द अर्थ जिन ते बने, नीकी भाँति कवित्त।

सुधि द्यावन समरथ्थ तिन, कारण कवि को चित्त । टीका-कवित्त का कारण कहीं शक्ति, कहीं व्युत्पत्ति, कहीं अभ्यास, कहीं तीनों जानिये।

(2) भिखारीदास-तीन को काव्यहेतु मानते हैं-शक्ति या प्रतिभा, सुकवियों द्वारा काव्य-रीति का अध्ययन और लोकानुभव। वे शक्ति को जन्मजात मानते हैं

मा सक्ति कवित्त, बनाइवे की, जिन जन्म नछत्र में दीनी विधाता।स (3) श्रीपति-ये काव्य-हेतुओं की संख्या 6 मानते हैं

शक्ति निपुणता लोकमत, वित्पति अरु अभ्यास।

अरु प्रतिभा ते होत है, ताको ललित प्रकास॥’ (4) आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी-द्विवेदीजी के अनुसार, “कवि के लिए जिस बात की सबसे अधिक जरूरत होती है, वह प्रतिभा है।वे व्युत्पत्ति और अभ्यास को महत्त्व देते हुए कहते हैं-जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता, वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता।।।

(5) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-शुक्लजी प्रतिभा (रस-मीमांसा) को ही काव्य का प्रमुख हेतु मानते हुए व्युत्पत्ति और अभ्यास का भी महत्त्व स्वीकार करते हैं। 2 (6) सुमित्रानंदन पंत-ये प्रतिभा के साथ व्युत्पत्ति का महत्त्व भी स्वीकार करते

जोतो, हे कवि, निज प्रतिभा के फल से निष्ठुर मानव अंतर।’ (7) महादेवी वर्मा-ये भी काव्य-सृजन हेतु प्रतिभा और व्युत्पत्ति की महत्ता स्वीकार करती हुई अभ्यास मात्र को महत्त्व नहीं देती-साहित्य-सृजन केवल रुचि, इच्छा या विवशता का परिणाम नहीं है, क्योंकि उसके लिए एक विशेष प्रतिभा और उसे संभव करने वाले मानसिक गठन की आवश्यकता होती है।

(8) रामधारी सिंह दिनकर’- ये पतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को सामूहिक की से काव्य-सृजन का हेतु स्वीकार करते हैं- प्रेरणा को ठीक से ग्रहण करने और उसे ठीक-ठीक लिखने के अभ्यास और प्रयास को मैं कविता-साधन कहता हूँ।

(9) डॉ० नगेन्द्र-ये भी प्रतिभा को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। ये प्रतिभा को चेतना मानते हैं, जो अनुभूति, चिन्तन, विचार, संकल्प तथा कल्पना आदि क्रियाएँ सम्पादित करती है।

 

पाश्चात्य विचारकों के अनुसार काव्य-हेतु

(1) प्लेटो- ये प्रेरणा को ही महत्त्व देते हैं, क्योंकि इनके अनुसार प्रेरणा के अभाव में कोई स्फुरण संभव नहीं है।

There is no invention in him until he has been inspired.”

(2) अरस्तू-ये प्रतिभा के साथ सूझ-बूझ को भी महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार कवि-प्रतिभा जन्मजात होती है

“A man of born talent.”

(3) होरेस-ये प्रतिभा के साथ अभ्यास को महत्त्व देते हैं।

“For my part I fail to see the use of study without wit or of wit without training.”

(4) वेन जॉनसन- ये तीन विशेषताएँ स्वीकार करते हैं-

(क) प्रतिभा- जिसे वे प्रकृति-प्रदत्त (Natural endownment) मानते हैं,

(ख) व्युत्पत्ति-(लोकज्ञान) (Createness of study and multiplicity of reading), तथा

(ग) अभ्यास-इस पर उन्होंने विशेष बल दिया है।

(5) बर्नदते क्रोचे- इन्होंने स्वयं-प्रकाश ज्ञान (Intution) और बाह्याभिव्यंजना (Expression) का महत्त्व बताते हुए प्रतिभा तथा अभ्यास की महत्ता ही स्वीकार की है।

(6) टी. एस. इलियट - इनके अनुसार महान् रचना या महान् आलोचना उसी समय जन्म ले पाता है, जब तीन तत्त्व विद्यमान हों-

प्रौढ़ सभ्यता,

प्रौढ़-भाषा एवं संस्कृति तथा

प्रौढ़ कलाकार।

ये तीनों तत्त्व एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि इन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। प्रौढ़ता से तात्पर्य अभ्यास को ही स्वीकार करना है।

Frh -डॉ० देवीशरण रस्तोगी-साहित्यशास्त्रउपसंहार-संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेजी तीनों ही भाषाओं के विचारकों ने काव्य के प्रमुख तीन हेतु स्वीकार किये हैं-प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। यह भी सभी ने स्वीकार किया है कि प्रतिभा इनमें सर्वोपरि है, परन्तु अभ्यास और व्युत्पत्ति के सहयोग से प्रतिभा में निखार आ जाता है।

 

 

इन संपूर्ण कथनों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं—

1. प्रतिभा विशेष महत्त्वपूर्ण है, फिर भी, इसके साथ शास्त्रज्ञान तथा अभ्यास भी आवश्यक है। आचार्य भामह, रुद्रट, मम्मट, केशव मिश्र आदि परवर्ती आचार्यों के अनुसार प्रतिभा, व्युत्पन्नता एवं अभ्यास के बीच क्रमशः उत्पाद्य-उत्पादक एवं पोष्य-पोषक संबंध है।

2. दूसरा वर्ग प्रतिभा को स्वीकार करता है किंतु यह भी स्वीकार करता है कि बिना प्रतिभा के भी काव्य हो सकता है। आचार्य दंडी अभ्यास एवं - वामन काव्य ज्ञान को आवश्यक मानते हैं।

3. आचार्य मंगल अभ्यास को सर्वोच्च काव्य हेतु मानते हैं ।

4. आचार्य श्यामदेव समाधि को काव्य हेतु मानते हैं ।

5. राजशेखर के अनुसार अभ्यास और समाधि का समन्वित रूप एवं शक्ति, प्रतिभा एवं व्युत्पन्नता काव्य हेतु हैं। शक्ति कर्तृ स्वरूपा है और प्रतिभा तथा व्युत्पन्नता कर्म स्वरूपा । शक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, इसी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति में भी प्रतिभा उत्पन्न होती है।

6. कुछ केवल प्रतिभा को ही काव्य हेतु स्वीकार करते हैं। आनंदवर्धन, अभिनव गुप्त आदि । पण्डितराज जगन्नाथ तीनों तत्त्वों को मानते हैं किंतु अभ्यास एवं व्युत्पन्नता को प्रतिभा में पर्यवसित करते हए केवला प्रतिभा का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं।

 

अवधान       

चित्त की एकाग्रता ही अवधान है। एकचित्त (समाधि) व्यक्ति ही अर्थों को देख समझ और वर्णन कर सकता है। इस एकाग्रचित्तता या समाधि के लिए निर्जनता तथा ब्रह्म मुहूर्त काल आवश्यक है।  

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