काव्य-गुण Kavya Gun
काव्य-गुण
काव्य क्या है?
कवि के द्वारा किया गया साहित्यिक कार्य ही काव्य है।
व्यापक अर्थ में किसी कवि की वह पद्यात्मक साहित्यिक रचना जिसमें ओजस्वी, कोमल और
मधुर रूप में ऐसी अनुभूतियाँ, कल्पनाएँ और भावनाएँ व्यक्त की गई हों जो मन
को मनोवेगों और रसों से परिपूर्ण करके मुग्ध करनेवाली हों।
काव्य-गुण क्या
है?
काव्य में चमत्कार, प्रवाह, ओज एवं प्रभाव उत्पन्न करने वाले तत्त्व
काव्य-गुण कहलाते हैं। उदाहरण के लिए रामचरितमानस के बाल कांड में हमें वाणी में
उदारता और मधुर गुण का उल्लेख मिलता है। किष्किंधा कांड में हनुमान जी की वाणी को
असंदिग्ध, अविस्तर तथा संस्कार क्रम
संबद्ध कहा गया है। इसी क्रम में महाभारत में परूष, मधुर
विचित्र पद पूर्ण विशेषण का उल्लेख मिलता है तो कालिदास की रचनाओं में श्लेष, प्रसाद, मधुर और ओज गुण का समावेश देखने को मिलता
है।
काव्य-गुण पर आचार्यों के मत
भरत ने दोष के विपर्यय को गुण कहा है- ‘अतएव
विपर्यस्ता गुणा: काव्येषु कीर्त्तिता:।’
दण्डी के अनुसार गुण काव्य का शोभाविधायक धर्म है।
वामन ने भी काव्य के शोभाकारी धर्मों को गुण कहा है - ‘काव्यशोभाया:
कर्त्तारो धर्मा: गुणा:’।
आनंदवर्धन ने अंगीरूप रस के आश्रित धर्म को गुण कहा है।
मम्मट ने काव्य प्रकाश में गुणों को रसाश्रित माना है। उनके
अनुसार गुण रस का अंग-रूप धर्म है जो उसी प्रकार उत्कर्ष प्रदान करता है, जैसे
आत्मा को शोर्यादि गुण उत्कर्ष प्रदान करते हैं।
‘ये रसस्यांगिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः।
उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः।’
आचार्य विश्वनाथ भी रस के अंगीभूत धर्मों को गुण मानते हैं।
निष्कर्षत: गुण वह तत्त्व है जिसमें काव्य के रचनापरक
स्वरूप का उन्नयन करके रस को उत्कर्ष प्रदान करने की क्षमता होती है।
काव्य गुणों की संख्या कितनी है?
भरत के नाट्यशास्त्र में गुणों की संख्या दस बताई गई है -
श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, एवं
कान्ति।
अग्निपुराण में गुणों की संख्या उन्नीस बताई गई है।
दण्डी भरतमुनि की तरह दस गुण मानते है , पर दोनों
के नामों में अंतर है।
वामन शब्दगत दस और अर्थगत दस गुण मानते हैं। दोनों प्रकार
के गुणों के नाम समान हैं।
भोजराज के ‘सरस्वतीकंठाभरण’ में गुणों
की संख्या चौबीस बताई गई है।
आचार्य कुन्तक ने औचित्य और सौभाग्य नामक दो साधारण गुण एवं
माधुर्य, प्रसाद, लावण्य और
आभिजात्य नामक विशेष गुणों का उल्लेख किया है।
जयदेव ने गुणों की संख्या आठ मानी है - श्लेष, प्रसाद, समता.
समाधि, माधुर्य, ओज, सौकुमार्य
और उदारता।
प्राचीन आचार्यों में भामह ने तीन गुणों माधुर्य, प्रसाद और ओज के विषय में
विचार किया है। उनके पश्चात् संस्कृत तथा हिंदी के सभी आचार्यों ने इन्हीं तीन
गुणों को मान्यता प्रदान करके उनका विवेचन किया है।
माधुर्य :
मम्मट के अनुसार माधुर्य गुण से चित्त प्रसन्न होता है, उसका शृंगार
रस में आविर्भाव चित्त को उत्फुल्ल कर देता है। माधुर्य गुण की स्थिति शृंगार रस
में अधिक रहती है। जिस रचना को पढ़ या सुनकर हृदय आनंद से द्रवित हो जाए और जिसमें
कोमल, मधुर
शब्दों का प्रयोग हो, किसी बड़े समास, ट वर्ग, रेफ एवं
अनुनासिक वर्गों के संयोग का अभाव हो वहाँ माधुर्य गुण होता है।
ओज
आचार्य भामह के अनुसार चित्त को दीप्त और उत्तेजित करनेवाला
गुण ओज है। यह मन को विस्तृत कर देता है। उसकी योजना अधिकतर वीर रस में होती है।
जिस रचना को सुन या पढ़कर हृदय में आवेग एवं स्फूर्ति का संचार हो जाए और जिसमें
विशेषतः कठोर वर्गों, द्वित्व एवं संयुक्त अक्षरों, समास बहुल
तथा ट वर्ग युक्त शब्दों की योजना हो वहाँ ओज गुण होता है।
इन्द्र जिसि जंभ पर, बाड़व सुरम्भ पर,
रावन सदम्भ पर रघुकुल राज हैं।
पौन वारिवाह पर, सम्भु रतिनाह पर
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं।
प्रसाद:
प्रसाद का शाब्दिक अर्थ प्रसन्नता। अतः जिस काव्य को पढ़कर
मन प्रसन्न हो जाए, हृदय की कली खिल उठे वहाँ प्रसाद गुण होता
है। आचार्य मम्मट के अनुसार प्रसाद गुण सूखे ईंधन में आग की भाँति तथा स्वच्छ
पात्र में भरे जल की भाँति तुरंत मन में व्याप्त हो जाता है। इसमें क्लिष्टता आदि
नहीं होती, जिस काव्य रचना के पढ़ने या सुनने से ही हृदय में अर्थ का
प्रकाश हो जाय तथा जिसमें ऐसी सरल शब्द योजना हो, जिसके अर्थ उसी प्रकार तत्क्षण स्पष्ट हो जाय
जिस प्रकार निर्मल स्वच्छ जल के तल में पड़ी हुई वस्तु ऊपर से ही स्पष्ट दिखाई दे
जाती है, वहाँ
प्रसाद गुण होता है। प्रसाद गुण का समावेश सभी रसों में उपयुक्त है।
वह आता, दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता।
काव्य के गुण
प्रश्न 14. काव्य के गुणों का उदाहरण सहित परिचय दीजिए।
अथवा आचार्यों ने काव्य के कितने और कौन-से गण स्वीकार किये
हैं? उदाहरण
सहित समझाइये।
उत्तर-काव्यशास्त्र में सभी आचार्यों ने गुणों का विवेचन
किया है। महर्षि वेदव्यास ने अपने ‘अग्निपुराण’ में गण की स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की है।
अग्निपुराणकार का कथन
‘यः काव्ये महतीं छायामनुगृह्याभात्यसौ गुणः।’ अर्थात्
जो काव्य में महती शोभा को अनुग्रहीत करके आभा धारण करता है, वह गुण
है। इसके साथ ही अग्निपुराणकार महर्षि वेदव्यास ने अलंकारों को भी काव्य की शोभा
बढ़ाने वाला धर्म स्वीकार किया है
‘काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान प्रचक्षते।’ इसका
तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि गुण और अलंकार एक हैं अथवा समान तत्त्व हैं।
अग्निपुराणकार का तात्पर्य गुण और अलंकार दोनों को काव्य का शोभादायक घोषित करना
है। इस प्रकार अग्निपुराण में गुणों और अलंकारों का काव्य के प्रति समान महत्त्व
स्वीकार किया गया है। आचार्य वामन काव्यशास्त्र में रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक
माने जाते हैं। उन्होंने गुण का जो लक्षण बताया है, वह अग्निपुराणकार के गुण के लक्षण से पूरी
तरह मिलता है। आचार्य वामन द्वारा स्थापित गुण का लक्षण इस प्रकार है
- ‘काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गणाः।’ अर्थात्
काव्य की शोभा करने वाले अर्थात् बढ़ाने वाले धर्म गुण होते हैं। इससे स्पष्ट
प्रतीत होता है कि अग्निपुराणकार और उनके अनुयायी गुणों और अलंकारों को समान रूप
से काव्य का शोभाकारक मानते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि गुण और
अलंकार का काव्य में समान महत्त्व है तथा दोनों में कोई तात्त्विक भेद नहीं है।
आचार्य भट्टोद्भट ने गुण और अलंकार दोनों को काव्य का शोभाधायक तत्त्व माना है।
गुण और अलंकार में समानता स्वीकार करते हुए भी भट्टोद्भट ने दोनों में इस प्रकार
भेद बताया है-"लौकिक गुण शौर्यादि और लौकिक हार आदि में तो भेद हो सकता है, क्योंकि
शौर्य आदि गुणों का आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध होता है और हारादि अलंकारों का
शरीर के साथ संयोग सम्बन्ध होता है, इस आधार पर दोनों में भेद माना जा सकता है, किन्तु
काव्य के ओज आदि गुण और अनुप्रासादि अलंकार दोनों का काव्य से समवाय सम्बन्ध है।
काव्य में इन दोनों में अन्तर मानना परम्परा बन गया है, जिसे भेड़-चाल अथवा बिना-विचार किया हआ निर्णय कहा जा
सकता है।" इस विषय में आचार्य भट्टोद्भट की घोषणा इस प्रकार है
"समवायवृत्या शौर्यादयः संयोगवत्या तु हारादयः
इत्यस्तु गुणालंकाराणां भेदः ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि
समवायवृत्या स्थितिरिति गुड्डलिका प्रवाहेणैवैषां भेदः।"।
आचार्य भट्टोद्भट के पश्चात् आचार्य वामन ने भी गुण और
अलंकारों में भेद स्थापित करने का प्रयत्न किया। आचार्य वामन के मतानुसार काव्य का
शोभाकारक धर्म गुण कहा जाता है और उस शोभा की वृद्धि करने वाला धर्म अलंकार कहलाता
है--
‘काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्माः गुणाः
तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः।’
आचार्य मम्मट ने काव्य के तीन गुण स्वीकार किये हैं, जो वास्तव
में शब्द के गुण हैं। कुछ आचार्य गुणों की संख्या दस मानते हैं, उनका
खण्डन करते हुए आचार्य मम्मट ने कहा है
‘माधुयौजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश।’ अर्थात्
माधुर्य, ओज और
प्रसाद तीन ही गुण होते हैं, दस नहीं। आचार्य मम्मट ने माधुर्य गुण के
सम्बन्ध में कहा है
आह्लादकत्वं माधुर्यं श्रृंगारे दृतिकारणम्।
करुणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम्॥ अर्थात् चित्त
की द्रुति अर्थात् तरलता का कारण आह्लादकत्व अर्थात् आनंदस्वरूपता ही माधुर्य गुण
है तथा यह शृंगार रस में रहता है। यह माधुर्य गुण करुण, विप्रलम्भ
शृंगार और शान्त रस में उत्तरोत्तर चमत्कारजनक होता है। आचार्य मम्मट ने ओज गुण का
लक्षण इस रूप में प्रस्तुत किया है
दीप्त्यात्मविस्तृतेर्हेतुरोजो वीररसस्थितिः।
वीभत्स रौद्र रसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च॥ अर्थात् चित्त के
विस्तार की हेतु बनी हुई दीप्ति ही ओज गुण है और इसकी स्थिति वीर रस में होती है।
यह ओज सामान्यत: वीर रस में रहता है, किन्तु वीभत्स और रौद्र रसों में भी क्रमश:
इसका आधिक्य रहता है अर्थात् उत्तरोत्तर चमत्कार जनकता रहती है। आचार्य मम्मट के
अनुसार प्रसाद गुण का लक्षण इस प्रकार है
शुष्कन्धनाग्निवत् स्वच्छजलवत् सहसैव यः।
व्याप्नोत्यन्यत्प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थतिः॥ अर्थात्
सूखे ईंधन में अग्नि के समान तथा स्वच्छ वस्त्र में जल के समान जो गुण सहसा चित्त
में व्याप्त हो जाता है, उसे प्रसाद कहते हैं। इसकी स्थिति सर्वत्र
है। तात्पर्य यह है कि प्रसाद गुण सभी रसों तथा सभी प्रकार की रचनाओं में स्थित हो
सकता है।
- आचार्य वामन ने गुणों की संख्या दस बतायी है, जो इस
प्रकार हैं-(1) श्लेष, (2) समाधि, (3) उदारता, (4) प्रसाद, (B) माधुर्य, (6) अर्थव्यक्ति, (7) समता, (8) सौकुमार्य, (9) कान्ति तथा (10) ओज ।
आचार्य मम्मट ने तीन गुणों अर्थात् माधुर्य, ओज और
प्रसाद के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं(क) माधुर्य का उदाहरण
अनंगरंगप्रतिमं तदंगभंगीभिरंगीकृतमानताङ्ग्यः ।।
कुर्वन्ति यूनां सहसा स्वान्तानि शान्तापरचिन्तनानि॥
अर्थात् स्तनों के भार से झुके हुए अंगों वाली नायिका की कामदेव की रंगभूमि के
समान दिव्य देहलता को हाव-भाव ने इस प्रकार अपना लिया है, जिससे ये
भंगिमाएँ नवयुवकों के हृदय को अन्य विषयों की चिन्ता से रहित कर देती हैं। - (ख)
ओज का उदाहरणमूर्जामुदवृत्तकृताविरल गलगलद्रक्तसंसक्त धारा
धौतेशांघ्रि प्रसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नाम्।
कैलासोल्लासनेच्छा व्यतिकरपिशनोत्सर्पिदोधुराणां,
दोष्णां चैषां किमेतत् फलमिह नगरी रक्षणे यत्प्रयासः॥
अर्थात् उद्धतता के साथ काटे गये गले से अविरल बहती हुई रुधिर की धारा से धोये हुए
शिवजी के चरणों की कृपा से प्राप्त विजय से संसार में झूठी महत्ता को प्राप्त हुए
इन दस मस्तकों का और कैलास पर्वत को ऊपर उठाने की अभिलाषा की अधिकता के सूचक उत्कट
गर्व से गर्वित मेरी इन भुजाओं का क्या यही फल है कि इस नगरी की रक्षा का प्रयास
करना पड़े। (ग) प्रसाद गुण का उदाहरण
परिक्लानं पीनस्तनजघनसंगादुभयतः,
तनोर्मध्यस्यान्तः परिमिलनमप्राप्य हरितम्। इदं
व्यस्तन्यासं श्लथभुजलताक्षेप वलनैः,
कृशांग्याः सन्तापं वदति विसिनीपत्रशयनम्॥ अर्थात् स्थूल
स्तनों और जघन अर्थात् जंघा के सम्पर्क से दोनों ओर मलिन हुई, शरीर के
मध्य भाग से सम्पर्क न पाकर हरी-हरी, शिथिल भुजाओं के गिरने से तथा करवटें बदलने
से अस्त-व्यस्त यह कमलिनी पत्रों की शैया उस कृशांगी के सन्ताप को बता रही है।
अनेक आचार्यों ने माधुर्य, ओज और प्रसाद को शब्द का गुण माना है, काव्य का
नहीं। वैसे गुण को काव्य से अलग नहीं किया जा सकता। काव्य की रचना सार्थक शब्दों
के माध्यम से होती है। जब काव्य में शब्द की उपयोगिता है तो शब्द के गुण भी काव्य
को अवश्य प्रभावित करेंगे। न्यायशास्त्र के अनुसार गुण और गुणी का समवाय अर्थात्
नित्य सम्बन्ध है। जहाँ गुणी जायेगा, वहाँ उसका गुण भी जायेगा-इस तथ्य को एक सरल
उदाहरण से समझा जा सकता है। एक शब्द है-काला कौवा। यहाँ काला विशेषण अथवा गुण है
और कौवा विशेष्य अथवा गुणी है। जहाँ पर कौवा जायेगा, वहाँ पर काला अवश्य जायेगा। काला गुण या
विशेषण को कौवा अर्थात गणी अथवा विशेष्य से अलग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार
गुणों को भी शब्द से अलग नहीं किया जा सकता। यदि काव्य में शब्द जायेंगे तो शब्द
के गुण अर्थात् प्रसाद, ओज और माधुर्य भी जायेंगे। आचार्य मम्मट ने
शब्दार्थ को काव्य का लक्षण स्वीकार करते हुये अदोषौ और सगुणौ भी कहा है। यदि सगुण
को शब्द से मिलाकर काव्य की परिभाषा में प्रयुक्त करें तो शब्द के गुण काव्य के
गुण कहे जा सकते हैं। किसी को भी शब्द के गुणों को काव्य के गुण मानने में किसी
प्रकार का दोष नहीं है। डॉ० पारसनाथ द्विवेदी ने आचार्य मम्मट के काव्य लक्षण को
प्रस्तुत करते हुये भूमिका के रूप में लिखा है-आचार्य मम्मट आनंदवर्धन की इस
मान्यता का अनुसरण करते हुये कहते हैं कि माधुर्यादि गुण वस्तुतः रस के ही धर्म
हैं, वर्गों के
नहीं।
- ‘रसस्यैव माधुर्यादयो गुणा, न
वर्णानाम्।’ अर्थात् ये माधुर्यादि रस में नियत रूप से रहते हैं, रस के
धर्म हैं, वर्णों के
आश्रित नहीं होते। ये वर्ण माधुर्यादि गुणों के व्यंजक मात्र हैं।
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुधित्।
- हारादि वदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः॥ -
अर्थात् जो धर्म शब्द रूप अंग के द्वारा उसमें विद्यमान अंगी अर्थात् रस को
कभी-कभी उपकृत करते हैं, वे अनुप्रास, उपमा आदि हार आदि के समान अलंकार कहे जाते
हैं।
यहाँ पर ग्रन्थकार का अभिप्राय यह है कि अलंकार काव्य के
शब्द और अर्थ रूप अंगों के उत्कर्ष के द्वारा जहाँ पर वह सम्भव है, वहाँ पर
उस मुख्य रस का उपकार करते हैं, वे कंठ आदि अंगों के उत्कर्षाधान द्वारा
आत्मा के भी उपकारक हार आदि के समान अलंकार कहलाते हैं। जहाँ पर रस नहीं है, वहाँ
उक्ति वैचित्र्य मात्र के बोधक होते हैं। कहीं वे रस के होने पर भी उसका अर्थात्
काव्य का उपकार नहीं करते। सम्भवतः इसी कारण आचार्य मम्मट ने अपने काव्य लक्षण में
स्वीकार कर लिया है कि कहीं अलंकार न हो, तो ऐसे शब्दार्थ भी काव्य हो सकते हैं
‘तददोषौ शब्दार्थों सगुणवनलंकृती पुनः क्वापि।’ अर्थात्
दोषरहित गुणसहित शब्दार्थ यदि कहीं अलंकार रहित हों, तब भी काव्य होते हैं। ‘अनलंकृती
पुन: क्वापि’ के कारण आचार्य विश्वनाथ, कविराज आदि हाथ धोकर मम्मट के पीछे पड़ गये।
- डॉ. निरूपण वेदालंकार ने साहित्य दर्पण की
भूमिका में काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट के ‘काव्यलक्षण का खण्डन’ शीर्षक से
लिखा है___ “आचार्य
मम्मट ने काव्य का लक्षण ‘तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि’ अर्थात्
दोषरहित, गुणसहित
और कहीं-कहीं अलंकारशून्य अथवा अस्फुटालंकार वाले शब्द और अर्थ काव्य कहलाते हैं, किया
है।" इस काव्य लक्षण का विवेचन करते हुये आचार्य विश्वनाथ कहते हैं
1) अदोषौ-यदि दोष से रहित शब्दार्थ को ही काव्य माना जाये तो
न्यनक्कारो ह्यममेवमे यदरपस्त त्राप्यसौ तापसः, सोऽप्यत्रैव निहन्ति
राक्षसकुलं जीवत्महो रावणः। धिग्धिक्छक्रजितं प्रबोधितवता किं कुम्भकर्णन वा,
स्वर्ग ग्रामठिका विलंठन वथोच्छनैः किमेभिर्भुजैः। अर्थात् मेरे
शत्रु हैं। यह शत्रु सद्भाव अर्थात् शत्रु का होना मेरा सबसे बड़ा तिरस्कार है।
तीनों लोकों के अधिपति तथा सम्पूर्ण शत्रुओं के विजेता का भी कोई शत्र हो, इसी अनादर को प्रदर्शित करने
के लिये तिरस्कार का आरोप किया है। उन शत्रुओं में भी वह तपस्वी अर्थात् राम है।
तात्पर्य यह है कि मैं तपस्वी जनों का विनाश करने वाला हूँ और वह तपस्वी राम मेरा
शत्रु है। यह मेरा दूसरा तिरस्कार है। यहाँ पर राम के प्रति अतिशय द्वेष को बताने
के लिये अदस सौ) अर्थात् यह सर्वनाम से राम का निर्देश किया गया है, ‘राम’ इस नाम से नहीं। और वह भी तपस्वी होता हुआ
राक्षस कुल का संहार कर रहा है। कहीं छिपा नहीं बैठा है, यहीं
लंका में है, कहीं दूर नहीं है। वह एक-दो का नहीं, पूरे राक्षस कुल का नाश कर रहा है। यह मेरे लिए तीसरा तिरस्कार है। इससे
भी बढ़कर आश्चर्य की बात यह है कि रावण जीवित है, जी रहा है।
इस प्रकार के अनेक पराभव होने पर रावण का जीवित रहना भी आश्चर्य है। इससे बढ़कर
कोई भी आश्चर्य नहीं हो सकता। देवराज इन्द्र को जीतने वाले मेघनाद को धिक्कार है।
इन्द्र को जीतने वाला तपस्वी भी राम का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा है। सोने से जाग्रत
हुए अथवा जगाये गये कुम्भकर्ण से भी कोई लाभ नहीं है। उसने भी राम की पराजय रूपी
कार्य का सम्पादन नहीं किया है, उसने राम को हराया नहीं है।
स्वर्ग रूपी छोटे अथवा तुच्छ ग्राम को लूटने के कारण व्यर्थ ही गर्वीली इन से कोई
लाभ नहीं है। मेरी ये भुजायें राम को पराजित नहीं कर पायी हैं। तात्पर्य यह है कि
मेरी ये भुजायें भी निष्प्रयोजन हैं।
म यह श्लोक दोषपूर्ण है। इसमें विधेयाविमर्श दोष है। इस
आधार पर इसमें काव्यत्व नहीं होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि इस श्लोक में दो
स्थानों पर विधेयाविमर्श दोष है। इसे अविमृष्ट विधेयांश दोष भी कहा जाता है। पहला
दोष ‘न्यक्करो ह्यमेव’ में है तथा दूसरा दोष ‘स्वर्ग
ग्रामठिकाविलंठनवथोच्छनैः किमेभिर्भजैः’ में है। जहाँ पर
विधेय का अप्राधान्य रूप से कथन होता है, वहाँ विधेयाविमर्श
दोष होता है। न्यक्कारोह्यमेव में ‘न्यक्कार’ विधेय है और ‘अयम’ उददेश्य है।
नियमानुसार उद्देश्य ‘असौ’ को पहले आना
चाहिए तथा ‘न्यक्कार’ को विधेय होने के
कारण बाद में होना चाहिए। यहाँ पर रचना की विपरीतता होने के कारण अप्राधान्य का
प्रथम निर्देश कर दिया गया है। जैसेमा अनुवाद्यमनुकृत्वैव न विधेयमदीरयेत्।
न ह्यलब्धास्पदं किञ्चित् कुत्रचित् प्रतितिष्ठति। अर्थात्
अनुवाद्य का अनुकरण न करके यदि विधेय का कथन किया जाता है तो वह उचित स्थान को
प्राप्त करने के कारण थोड़ा भी और कहीं भी प्रतिष्ठित नहीं होता।
इसी प्रकार ‘स्वर्गग्रामठिका विलुण्ठन वृथोच्छूनैः’ में ‘वृथा’ पद विधेय
है, पर यह
समास में आकर गौण हो गया है। अतः यहाँ पर भी विधेयाविमर्श दोष है। इस प्रकार इस
पद्य में विधेयाविमर्श दोष होने के कारण काव्यत्व नहीं है। इसके विपरीत ध्वनिपूर्ण
होने के कारण इस पद्य की काव्यता आचार्य आनंदवर्धन ने अपने ग्रन्थ ‘ध्वन्यालोक’ में
स्वीकार की है। इस दृष्टि से उक्त दोष अर्थात् विधेयाविमर्श दोष के होते हुये भी
काव्यत्व स्वीकार करने से तददोषौ आदि काव्य की परिभाषा में अव्याप्ति दोष होता है, जबकि
परिभाषा को दोषरहित होना चाहिए। आचार्य मम्मट के अनुसार दोषशून्य पद्य ही काव्य का
नाम प्राप्त कर सकता है। ‘न्यक्कार:’ यह पद्य सदोष होता हुआ भी इसमें काव्यत्व
स्वीकार किया गया है।
सुप्तिङवचन सम्बन्ध स्तथा कारक भक्तिभिः ।
कृत्तद्वित समासैश्च द्योत्यो लक्ष्य क्रमः क्वचित् ।।
अर्थात् सुप् और तिङ् के वचनों के सम्बन्ध से तथा काव्यों की विभक्तियों के द्वारा
तथा कृत, तद्धित और
समास से कहीं पर लक्ष्य का क्रम जानना चाहिए।
इस नियम के आधार पर अनेक स्थलों पर सुप् आदि को
काव्यंग्यपूर्ण होना निश्चित है। फिर भी
(1) ‘मे यदरयः’ यहाँ पर अस्मत् शब्द के कथन से मेरे शत्रुओं
का होना किसी प्रकार की दशा में सम्भव नहीं है, क्योंकि यह व्यंग्य होता है।
6 (2) बहुवचनान्त शब्द अरयः (बहुत से शत्र) पहले तो
मेरे शत्रु भी नहीं है, इसके अतिरिक्त एक-दो नहीं हजारों की संख्या
में हैं। मेरे सम्बन्ध में यह अनुचित है, यह अर्थ प्रकट हो रहा है। एकता या
(3) ‘तत्राप्यसौ तापसः’ यहाँ पर
तपः शब्द के बाद मतुप् अर्थ वाला अण् प्रत्यय है। इससे रावण के पौरुष की हीनता
प्रकट होती है। ‘तत्रापि’ शब्द शत्रु के होने में असम्भवता की ओर संकेत
करता है।
आचार्य मम्मट के काव्य लक्षण में ‘अनलंकती
पुनः क्वापि’ अर्थात् कहीं अलंकारहीनता का सबसे उग्र विरोध आचार्य
पीयूषवर्ष जयदेव ने किया है। उन्होंने ‘चन्द्रालोक’ के प्रथम मयूख में अलंकारहीन काव्य की
स्वीकृति का विरोध करते हुए लिखा है
अंगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती॥ जो कृती अर्थात्
विद्वान् अलंकार रहित शब्द और अर्थ को काव्य स्वीकार करता है, वह अग्नि
को उष्णताहीन क्यों नहीं मान लेता?
इस प्रकार काव्य के लक्षण में अलंकार की अर्थात् शब्द और
अर्थ की शोभावृद्धि करने वाले अलंकार का होना काव्य में भी गुणों का होना सिद्ध
करता है। इस प्रकार शब्द के समान काव्य में भी गुणों की सत्ता अनुचित नहीं है। इस
आधार पर कहा जा सकता है कि ओज, प्रसाद और माधुर्य काव्य के भी गुण होते हैं।
इनके काव्य गुण होने का किसी को विरोध नहीं करना चाहिए।
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