अर्थ परिवर्तन के कारण Arth Parivartan Ke karan
अर्थ परिवर्तन के कारण
ध्वनि और भाषा की तरह अर्थ भी परिवर्तनशील है। इसमें होने
वाले निरंतर, सघन किंतु लचीले बदलाव को देखकर कहा जा सकता है, कि अर्थ
भाषा का सबसे अधिक परिवर्तनशील तत्त्व है। परिवर्तन के उक्त क्रम में किसी शब्द का
पुराना अर्थ पूरी तरह से समाप्त हो जाता है, तो कभी उस शब्द में नया अर्थ जुड़ जाता है।
कभी-कभी शब्दों के अर्थ में कुछ ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं, कि शब्द
की मूल आत्मा तक पहुँचना अति कठिन कार्य हो जाता है। अर्थ–परिवर्तन
के विषय की जटिलता की ओर विद्वानों ने अनेक बार संकेत भी किया है-'Changes of meaning is somewhat more complex that is usually
assumed'. शब्दों के
विशेष अर्थ में रूढ़ हो जाने से भी अर्थ-परिवर्तन की प्रक्रिया क्रियाशील हो जाती
है। अर्थ-परिवर्तन में भौगोलिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा बौद्धिक कारणों की भूमिका
सक्रिय रूप से तो रहती ही है, कुछ लोगों ने मनोविज्ञान को इस संदर्भ में
अधिक महत्त्व दिया है। कुल मिलाकर अर्थपरिवर्तन के कारणों को इस रूप में रेखांकित
किया जा सकता है
(1) पीढ़ी
परिवर्तन
पीढ़ी अपने साथ शब्दों का अर्थ भी बदलती चलती है। व्यक्ति
सामाजिक प्राणी है। बदलते समाज का प्रभाव उसके भाषा प्रयोग पर भी पड़ता है अर्थात्
सामाजिक स्थितियाँ जैसे-जैसे बदलती हैं, उसके अनुरूप ही शब्दों के अर्थ भी बदलते रहते
हैं। इस संदर्भ में 'पत्र' शब्द का उदाहरण लिया जा सकता है। इस शब्द का
अर्थ पहले ताड़पत्र या भोजपत्र हुआ करता था। पुस्तक लेखन में इसी का प्रयोग
प्रारम्भ में होता था। बाद में कागज का आविष्कार होने के बाद वही शब्द कागज के लिए
भी प्रयुक्त होने लगा, क्योंकि वह भी लिखने के काम आने लगा। फिर
उसके बाद कागज जैसे पतले दूसरे पदार्थों के लिए भी 'पत्र' शब्द का ही प्रयोग होने लगा। यथा-चाँदी का
पत्र, सोने का
पत्र, प्रमाण-पत्र
आदि। उसके बाद यंत्र-कला के आविष्कार के बाद कागज पर छपी हुई सामग्री को भी 'पत्र' कहा जाने
लगा। यथा-समाचार-पत्र, प्रश्नपत्र, निमंत्रण–पत्र आदि।
(2) परिवेश का
परिवर्तन
परिवेश के अंतर्गत हम तीन तरह के परिवेश को देख सकते हैं
(क) भौगोलिक परिवेश (Geographical)
(ख) भौतिक परिवेश (Material)
(ग) सामाजिक परिवेश (Social)
(क) भौगोलिक परिवेश
भौगोलिक परिस्थितियाँ भी
अर्थ-परिवर्तन में सहायक सिद्ध होती है। 'ऊष्ट' शब्द का प्रथम प्रयोग वेदों में
'भैसे के लिए हुआ है, ऊँट के लिए नहीं। अनुमान है कि
आर्य पहले जहाँ रहते रहे होंगे, वहाँ
'ऊँट' नहीं थे। बाद में वे जब शीतल
जलवायु के ऊष्ण स्थानों पर आ होंगे और 'ऊँट' को देखा होगा तो मैंसे के अर्थ
में प्रयुक्त किए जाने वाले 'ऊष्ट्र' शब्द को 'ऊँट' के अर्थ में प्रयोग करने लगे
होंगे। भौगोलिक परिवेश के कारण ही तो 'ठाकुर' शब्द उत्तरप्रदेश में 'क्षत्रिय जाति का तथा बंगाल में
रसोइये' का बोधक है। अंग्रेजी शब्द कॉर्न (Corn) भी स्कॉटलैंड में 'बाजरा', अमरीका
में 'मक्का' तथा इंग्लैण्ड में 'गेहूँ' का वाचक है।
(ख) भौतिक परिवेश
भौतिक परिस्थितियाँ
व्यक्तियों के साथ-साथ उसकी भाषा को भी प्रभावित करती हैं। भारत में पानी पीने का
कोई बर्तन रहा होगा, जिसे हम आज नहीं जानते। आज हम सभी पानी पीने के
बर्तन को 'गिलास' कहते हैं। यह
अंग्रेजी शब्द 'ग्लास' से बना है। पानी
पीने का उक्त पात्र चूँकि 'ग्लास' (काँच)
का बना हुआ था, इसलिए उसके आधार पर इसे 'गिलास' कहा गया। लेकिन तेजी से भौतिक परिवर्तन के
कारण आज उसका अर्थ-विस्तार हो गया। काँच से बने 'गिलास के
साथ काँसा, पीतल, चाँदी, प्लास्टिक, स्टेनलेसस्टील आदि किसी भी धातु से बने उक्त
आकृति के पात्र को 'गिलास' ही कहा जाता
है।
(ग) सामाजिक परिवेश
अलग-अलग सामाजिक संदर्भो
से भी अर्थ की आकृति बनती बिगड़ती रहती है। इस संदर्भ में 'भाई' शब्द को यहाँ उद्धृत किया जा सकता है जिसका
अर्थ है-'सहोदर' लेकिन अन्य संदर्भो
में भी इसका प्रयोग समाज में होता रहता है। जैसे-कोई किसी अनजाने व्यक्ति से पूछ
सकता है- 'भाई! मुझे बाजार जाने के लिए कौन सा रास्ता पकड़ना
पड़ेगा? पति अपनी पत्नी से कहता है, 'जरा
देखो भाई! साले साहब आए हैं।' पत्नी भी पति से कहती है,
'भाई! आपने तो मुझे तंग कर दिया। पिता अपने पुत्र से कहता है,
'देखो भाई! ध्यान से ये काम करना'। दुकानदार
अपने ग्राहक से कहता है, 'क्यों भाई! आपको क्या चाहिए?'
इसी तरह अंग्रेजी के 'मदर', 'फादर', 'सिस्टर' शब्द भी
जगह-जगह अपना अलग अर्थ देते हैं। गिरजाघर में 'मदर' का अर्थ समाजसेविका, 'फादर' का
अर्थ पादरी तथा 'सिस्टर' शब्द का अर्थ अस्पताल
में उपचारिका (नर्स) समझा जाता है।
(3) नम्रता प्रदर्शन
शिष्टाचार अथवा
चाही-अनचाही मजबूरी में सामान्यता शब्दों के अर्थ बदल दिए जाते हैं। महोदय, बन्धुवर, श्रीमान्, गुरुवर,
मान्यवर, महामहिम, अन्नदाता,
धर्मावतार, बाबाजी, प्रभो,
शाहंशाह, हुजूर, गरीब
नेवाज, गरीब परवर, साहब, खुदा, दयासागर, भक्तवत्सल,
दयानिधान तथा माई-बाप आदि संबोधनों का प्रयोग व्यक्ति अपनी विनम्रता
दिखाने के लिए करता है। इन संबोधनों का प्रयोग जिनके लिए किया जाता है, आवश्यक नहीं कि वह उसकी पात्रता रखते ही हों। विनम्रता-प्रदर्शन में
कभी-कभी अपनी ऊँची अट्टालिका को 'झोपड़ी' तथा दूसरे की झोपड़ी को “कोठी कह दिया जाता है।
विराजिए, कुटिया में तशरीफ रखिए, दूसरे
के घर के लिए आपका दौलतखाना कहाँ है, गरीब खाने में पधारिए,
–इत्यादि शब्दों में विनम्रता-प्रदर्शन के संदर्भ में हुए प्रयोग
में अर्थ-परिवर्तन हो गया है। जमीन पर जूठन गिर जाने के कारण घर के बच्चे भले ही
मार खा जाते हों, लेकिन नम्रता-प्रदर्शन में दूसरों के लिए
कह दिया जाता है, 'अरे! कमी हमारे यहाँ भी तो जनाब जूठन
गिराइए। इस तरह हम देख सकते हैं कि विनम्रता प्रदर्शन में बोले गए शब्द और
वाक्यांश अपना मूल अर्थ खोकर विशिष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने लगते हैं।
(4) भावावेश (Emotional
emphasis)
भावावेश में निकले अनेक शब्दों के कारण भी अर्थ में
परिवर्तन हो जाता हैं। कभी-कभी अपने से अपरिचित व्यक्ति को उसकी उम्र के हिसाब से
स्नेह वश चाचाजी, ताऊजी, माताजी, बहनजी, पिताजी तथा मैयाजी कह दिया जाता है। इन सभी
शब्दों का अर्थ पारिवारिक सम्बन्धी न होकर केवल सम्बोधन मात्र होता है, जो
भावावेश के कारण अर्थ परिवर्तन के साथ प्रयुक्त होता है। इसी तरह क्रोध के आवेश
में अपने ही प्रिय बच्चों को साला, नालायक, गधा, शैतान, उल्लू, पाजी आदि कह दिया जाता है। उक्त सभी शब्द
भावावेश के कारण अपना रूढ़ अर्थ खो देते हैं। बाद में वे ही अर्थ-परिवर्तन के कारण
बनते हैं।
(5) व्यंग्य (Irony)
कभी-कभी सही बात न कह कर व्यंग्य तथा कुटिल ध्वनि का सहारा
लेकर जब किसी पर आक्षेप या कटाक्ष किया जाता है, तब बहुधा अर्थ में उलटफेर की संभावना बढ़
जाती हैं। व्यंग्य में उच्चरित शब्द केवल दूसरों पर आक्षेप लगाने के लिए ही नहीं
किए जाते, अपितु
व्यंग्य के द्वारा उस व्यक्ति के मर्म पर भी प्रहार करने का उद्देश्य होता है, इसलिए इस
प्रकार के शब्द जिनके लिए प्रयुक्त किए जाते हैं, उनके लिए उल्टा अर्थ देते हैं। जैसे यदि किसी
कंजूस को 'दानवीर कर्ण ', दुबले-पतले को 'पहलवान', अन्यायी
को 'धर्मराज' या 'धर्मावतार' मूर्ख को 'बृहस्पति', झूठ
बोलने वाले को 'हरिश्चन्द्र' भिखारी को 'लक्ष्मीपति' या निरक्षर को 'सरस्वतीपुत्र' कहा जाए
तो इससे इनका रूढ़ अर्थ नहीं, बल्कि उल्टा अर्थ ही निकलता है। इसी तरह बहुत
देर करके आने वाले से यदि कहा जाए–' बहुत जल्दी आ गए' - यहाँ
भी व्यंग्य द्वारा अर्थ परिवर्तन होता है। आलंकारिकता अथवा लाक्षणिकता हर व्यक्ति
की आकांक्षा अच्छी जिंदगी जीने की होती है। उसकी यह प्रवृत्ति भाषिक प्रयोगों में
भी साथ लगी रहती है। सीधी-सादी भाषा में उसे कोई स्वाद नहीं मिल पाता। अनेक
लाक्षणिक प्रयोग अर्थ–परिवर्तन में सहायक सिद्ध होते हैं। जैसे
अविवेकी पुरुष को 'काठ का उल्लू' कहना, बहादुर व्यक्ति को 'सिंह', चालाक
को 'कौआ', अध्ययन
करने वाले को 'किताबी कीड़ा', खतरनाक को 'साँप' या 'काला नाग', सज्जन को 'गौ', मोटे को 'हाथी', पतले को 'सीकिया पहलवान', आदि लाक्षणिक तथा आलंकारिक प्रयोगों से
अर्थ-परिवर्तन हुआ करता है। अपनी भाषा को मनोहर, मनोरम बनाने के लिए मनुष्य अलंकारों, मुहावरों
तथा शब्द-शक्तियों आदि का भी प्रयोग करता है। इस प्रकार के प्रयोग भावों को मूर्त करते
हैं। फलतः शब्दों के मूल अर्थ में परिवर्तन हो जाता है।
(7) सामान्य के
लिए विशेष का प्रयोग
कभी-कभी किसी वर्ग-विशेष
का प्रतिनिधित्व उसी वर्ग की किसी एक वस्तु से हो जाता है। 'स्याह शब्द से बने स्याही का अर्थ होता है- 'काला।
लेकिन नीली, हरी, लाल, सभी प्रकार की रोशनाई स्याही कही जाती है। यथा-नीलीस्याही, हरीस्याही, लालस्याही। 'सब्ज'
का अर्थ होता है हरा' । अतः इसके आधार पर बने ‘सब्जी' शब्द का अर्थ होना चाहिए 'हरी तरकारी | किंतु गाजर की सब्जी, आलू की सूखी सब्जी, सूरन की सब्जी-सभी सब्जी में ही
शामिल हैं। कुछ शब्द अपने वर्ण के पुल्लिंग या स्त्रीलिंग दोनों के बोधक होते हैं।
कोयल, भेड़िया, भालू, कौवा, सियार, तोता, छिपकली लोमड़ी, चींटी, गिलहरी
आदि शब्द अपने वर्ण के दोनों लिंगों का बोध कराते हैं। 'दुहिता'
शब्द का अर्थ 'गाय दुहने वाली लड़की' हुआ करता था। कालान्तर में उक्त 'दुहिता' शब्द सभी लड़कियों के साथ चिपक गया और सभी लड़कियाँ 'दुहिता' हो गई। यही स्थिति 'वर'
शब्द की है। वर जब 'दुर्लभ हो गया तो 'दूलह' कहलाने लगा, किंतु आज
सुलभ-दुर्लभ सभी 'वर' दूलहा' ही कहे जाते हैं।
(8) अज्ञान एवं भ्रांतिजनक
शब्द का प्रयोग
बहुत सारे शब्दों का अर्थ भ्रान्ति अथवा न
जानकारी के अभाव के कारण भी बदल जाता है। जैसे अशिक्षित एवं अज्ञानी लोग 'खालिस' की जगह 'निखालिस,
फालतू की जगह 'बेफालतू', 'ट्रामा सेंटर' को 'ड्रामा
सेंटर, 'अनेक की जगह 'अनेकों, पूज्य की जगह 'पूज्यनीय', स्वास्थ्य
की जगह 'स्वास्थ', पेनाल्टी की जगह 'पिलान्टी, शब्द का प्रयोग करते है।
(9) तद्भवता
अनेक तद्भव शब्दों ने
अर्थ-परिवर्तन में काफी भूमिका निभाई है। ये तद्भव शब्द अपना असली अर्थ खोकर नए
अर्थ के वाचक हो गए हैं। इनके तत्सम अर्थ तथा बाद में ओढ़े गए नए अर्थ से कोई
ताल्लुकात ही नहीं लगता। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
1. श्रेष्ठ
(उत्तम व्यक्ति) > सेठ (धनसंपन्न व्यक्ति)
2. वंश (कुल) >
बाँस (वृक्ष विशेष)
3. भद्र (सज्जन)
> भद्दा (बुरे अर्थ में)
4. वत्स (मानव का
बच्चा) > बछड़ा (गाय का नर बच्चा)
(10) शोभन शब्दों के प्रयोग
इसे 'सुश्राव्यत्व' भी कहते हैं। इसका अर्थ है सुनने में
अच्छा लगना। समाज में अमंगलसूचक, भद्दे, अश्लील, लज्जास्पद, घृणास्पद
शब्दों के प्रयोग से व्यक्ति निरंतर बचने की कोशिश करता है। इनकी जगह अच्छे,
मंगलसूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इनके प्रयोग के पीछे
व्यक्ति की मंशा यही होती है कि श्रोता के मन में किसी तरह का खोट या अशुभ,
अपशकुन भाव उत्पन्न न हों। व्यक्ति संकोच, घृणा,
अंधविश्वास तथा अमांगलिक कार्य-व्यापारों को सीधे न व्यक्त करके
उन्हें प्रकारान्तर से अभिव्यक्ति का रूप देता है, जैसे -
मलमूत्र से संबंधी क्रिया-कलापों को व्यक्ति सीधे न कह कर अन्य शब्दों के जरिए व्यक्त
करता है। इसके मूल में उसका निजी संकोच कार्य करता है। यथा-शौच जाना, बाहर जाना, मैदान जाना, खेत
में जाना, नित्य कर्म, दिशा फिरना,
लघुशंका, दीर्घशंका आदि। इसी तरह घृणास्पद
वस्तुएँ देखने अथवा सुनने में ठीक नहीं लगती हैं, अतः
व्यक्ति उनके सीधे प्रयोग से भरसक बचने की कोशिश करता है। मृत्यु और रोग के संदर्भ
में अमंगलवाची शब्दों का व्यवहार सर्वाधिक होता है। मृत्यु, व्यक्ति
के जीवन का सबसे भयावह क्षण है। इसलिए वह इसकी चर्चा तक नहीं करना चाहता है। यही
कारण है कि मृत्यु की जगह पंचतत्त्वप्राप्ति, गंगालाभ,
काशीलाभ, मोक्ष लाभ, बैकुण्ठ
लाभ, ऊपर जाना, बैकुण्ठ वास, स्वर्गवास, कीर्तिशेष, नामशेष,
स्मृति शेष, देहांत, सद्गति
को प्राप्त होना आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। यहाँ भी शब्द और वाक्यांश
अपने मूल अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ देते हैं।
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