अनेकार्थक शब्दों के अर्थ निर्णय के साधन Arth Nirnay Ke Sadhan
अनेकार्थक शब्दों के अर्थ निर्णय के साधन
वैयाकरणों ने अनेकार्थक शब्दों के अर्थ-निर्णय के भी चौदह
साधन बताए हैं। इनकी कुल संख्या इस प्रकार है- संयोग, वियोग, साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य शब्द
की सन्निधि, सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति
तथा स्वर।
(1) संयोग
व्यक्तियों अथवा वस्तुओं का प्रसिद्ध संबंध संयोग कहलाता
है। अनेकार्थक शब्दों में निश्चित अर्थ की तलाश में संयोग काफी सहायक होता है।
यथा-‘द्विज’ शब्द के अर्थ है-‘ब्राह्मण’, ‘पक्षी’, ‘चन्द्रमा’ तथा ‘दाँत’ । यदि यह कहा जाए कि द्विज को दान देना
चाहिए. तो इसका सीधा अर्थ ‘ब्राह्मण’ ही लिया जाएगा, क्योंकि
दान का संयोग (संबंध) उससे ही होता है।
(2) वियोग
प्रसिद्ध वस्तु-संबंध के अभाव को वियोग कहा जाता है।
अनेकार्थी शब्दों के वास्तविक अर्थ-निर्णय में इस साधन से भी मदद मिलती है। यथा-‘देह’ शब्द के कई अर्थ होते हैं, लेकिन यदि
यह कहा जाए कि- ‘जिय बिनु देह नदी बिनु बारी’ तो यहाँ देह का अर्थ शरीर ही लिया जाएगा, क्योंकि जीवन के वियोग अथवा अभाव में देह का
कोई अस्तित्व नहीं।
(3) साहचर्य
साहचर्य का अर्थ है संपर्क में रहना। निरंतर एक साथ प्रयुक्त
किए जाने वाले शब्दों से भी अर्थबोध में सहायता मिलती है। उदाहरण के लिए ‘राम-सीता’। एक ओर राम के जहाँ
अनेक अर्थ हैं- दशरथ पुत्र राम, बलराम, परशुराम, वहीं सीता
के भी अनेक अर्थ हैं, यथा- जनक-दुहिता तथा हल की नोंक। किंतु यहाँ
राम और सीता के अन्य अर्थ न होकर एक साथ निरंतर प्रयुक्त किए जाने के कारण इनका
अर्थ ‘दशरथ पुत्र राम’ तथा ‘जनक की पुत्री सीता’ ही लिया जाता है।
(4) विरोध
प्रसिद्ध साहचर्य की तरह विरोध भी अर्थ निर्णय में सहायक
होता है। विरोध का अर्थ होता है- पारस्परिक वैमनस्य । यदि यह कहा जाए कि लंका में
राम-रावण के बीच भयंकर युद्ध हुआ था, तो यहाँ राम का अर्थ दशरथ पुत्र ही जाना जाएगा, अन्य राम
नहीं। वह इसलिए कि राम-रावण का विरोध प्रसिद्ध है।
(5) अर्थ
‘प्रयोजन’ ‘अर्थ’ का दूसरा नाम है। बहुअर्थी शब्दों में
निश्चित अर्थ की तलाश इसके माध्यम से की जाती है। जैसे- ‘कर’ शब्द के अनेक अर्थ हैं - हाथ, किरण, टैक्स, भूतकालिक
प्रत्यय तथा सूँड़ है। यदि यह कहा जाए कि, हाथी का
कर काट लिया जाए तो वह पानी नहीं पी सकता, तो यहाँ ‘कर’ का अर्थ ‘सूँड़’ से ही होगा, क्योंकि ‘सूँड़’ से ही हाथी जल पी सकता है- हाथ, किरण, टैक्स अथवा
भूतकालिक प्रत्यय से नहीं।
(6) प्रकरण
इसे ‘प्रसंग’ भी कहा गया है। अर्थ-निर्णय का यह महत्त्वपूर्ण साधन है।
प्रसंग-भेद से एक ही कथन कई अर्थ बिखेरता है। कक्षा की घंटी, परीक्षा
की घंटी, टेलीफोन की घंटी, प्लेटफार्म
की घंटी, सड़क पर खाद्य पदार्थ बेचते समय विक्रेता
द्वारा बजाई गई घंटी, साहित्यिक कार्यक्रमों में बजने वाली घंटी, साइकिल की
घंटी, कचहरी अथवा खजाने की घंटी, कारागार
में बजने वाली घंटी तथा किसी के आगमन की सूचना देने वाली घर में लगाई गई घंटी के प्रसंगानुसार
अलग-अलग अर्थ हैं।
(7) लिंग
लिंग का अर्थ यहाँ ‘चिह्न’ विशेष से है। स्त्रीलिंग अथवा पुल्लिंग से
नहीं। उक्त चिह्न किसी विशेष अर्थ का द्योतक है। यदि यह कहा जाए कि “अम्बर
में सघन जलधर छाए हुए हैं।” तो यहाँ ‘जलधर’ का अर्थ 'छाये' चिह्न से
बादल ही लिया जाएगा, समुद्र नहीं।
(8) अन्य शब्द की सन्निधि
सन्निधि का अर्थ है- सन्निकटता, समीपता।
शब्दों की पारस्परिक निकटता भिन्नार्थक शब्दों में निश्चित अर्थ तय करने में सहायक
होती है। यथा- ‘राणा –शिवाजी’। राणा-शिवाजी उपाधि धारी अनेक व्यक्ति हैं, किन्तु
राणा शब्द की सन्निधि से शिवाजी का अर्थ ‘छत्रपति शिवाजी’ तथा शिवाजी की सन्निधि से ‘राणा’ का अर्थ ‘महाराणा प्रताप’ ही होगा।
(9) सामर्थ्य
इसका अभिप्राय है, संबंधित कार्य को कर सकने की क्षमता। किसी
कार्य को संपादित करने में जिस वस्तु की क्षमता का प्रयोग किया जाए, वहाँ उस
सामर्थ्यवान वस्तु के आधार पर अर्थ ग्रहण किया जाता है। “तुम्हारी सफलता से मेरे हृदय को कल
पड़ गया।” में अनेकार्थी ‘कल’ शब्द का अर्थ ‘मशीन’, ‘बिता हुआ दिन’, ‘आने वाला दिन’ न होकर ‘चैन’ होगा।
“मधुमत्त-कोकिल लगी कूजने” में अनेकार्थी ‘मधु’ शब्द का अर्थ ‘सुरा’, ‘शहद’ आदि न करके ‘वसंत’ किया जाएगा। क्योंकि
कोकिल को मदमत्त करने की क्षमता मधु, सुरा, अथवा शहद में न होकर ‘वसंत’ में ही होती है।
(10) औचित्य
औचित्य का आशय यहाँ योग्यता से है। अनेकार्थी शब्दों का
निश्चित अर्थ योग्यता के आधार पर किया जाता है। “आकाश मडंल में उगा हुआ द्विज अपनी शीतल चाँदनी से लोगों को
नहला रहा है।”, में ‘द्विज’ शब्द का अर्थ पक्षी, ब्राह्मण
अथवा दाँत नहीं होगा बल्कि ‘चंद्रमा’ होगा, क्योंकि आकाश में उगकर चाँदनी बिखेरने की
योग्यता केवल उसी में है।
(11) देश
देश का अर्थ ‘स्थान-विशेष’ से है। स्थान-विशेष से भी अनेकार्थी शब्दों
का अर्थ निश्चित होता है। जैसे ‘गोली’ शब्द का अर्थ युद्ध के मैदान में, बच्चों की
खेल में तथा दवा के संदर्भ में स्थान-भेद से अलग-अलग लिया जाता है।
(12) काल
समय जहाँ अर्थ-निर्णय में सहायक हो, वहाँ काल
वैशिष्ट्य होता है। उदाहरण के लिए पुन: ‘मधु’ शब्द को लिया जा सकता है। इसके अनेक अर्थ
होते हैं। यथा-सोमरस, शहद, दूध, वसंत, सुरा
इत्यादि । यदि यह कहा जाए कि ‘मधु’ में कोयल का मादक स्वर किसे आकृष्ट नहीं करता? तो यहाँ 'मधु' का अर्थ और
कुछ नहीं, वसंत ही लिया जाएगा, क्योंकि वसंत
ऋतु में ही कोयल का स्वर उन्मादक होता है।
(13) व्यक्ति
व्यक्ति
का अभिप्राय यहाँ स्त्रीलिंग तथा पुल्लिंग से है। लिंग-भेद भी अर्थ स्पष्ट करने
में काफी सहायक होता है। यथा ‘टीका’ शब्द को लिया जा सकता है। इसके अनेक
अर्थ-तिलक, कलंक, पुस्तक की
टीका, उपहार, सोने का
आभूषण-विशेष तथा एक रस्म आदि होते हैं। परन्तु लिंग-भेद से इनका अर्थ भेद हो जाएगा।
मस्तक का टीका का आशय होगा, ‘तिलक’ (पुल्लिंग)
तथा ग्रंथ की टीका का मतलब होगा- ‘व्याख्या’ (स्त्रीलिंग)।
(14) स्वर
स्वर का अर्थ यहाँ ध्वनियों के आरोह तथा अवरोह रूप में
उच्चारण से है। स्वरों के आरोह, अवरोह से भी अर्थ निर्धारण में काफी सहयोग
मिलता है। वेदों में उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वर अर्थ-निर्णय में
जहाँ सहायक होते हैं, वहीं स्वर-रहित होने पर संबोधन-सूचक हो जाते
हैं।
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