अनुप्रास अलंकार Anupras Alankaar


अनुप्रास अलंकार Alliteration

अनु का अर्थ होता है, ‘बार-बार और प्रास का अर्थ होता है,‘पास। वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते हैं। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है की अनुरूप वर्णों का न्यास ही अनुप्रास अलंकार कहलाता है।

उदाहरण –

“मुदित महीपति मंदिर आए।

सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।”

पहले पद में वर्ण की आवृत्ति और दूसरे पद में वर्ण की आवृत्ति

“चारु चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही थीं जल थल में।”

इस पद में तथा वर्ण की आवृत्ति हो रही है।

“तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।”

इस पद में वर्ण की आवृत्ति हो रही है।

विशेष - अनुप्रास अलंकार सबसे अधिक प्रचलित और सहज अलंकारों में शुमार है।  

विशेष – फारसी तथा उर्दू में अनुप्रास और यमक-अलंकारों को “तजनीस” कहते हैं। हिंदी की तरह इन भाषाओं में भी इन अलंकारों के अनेक भेद हैं।

 

विस्तृत अध्ययन

दो-व्यंजन सम बरु स्वर असम, अनुप्रासऽलंकार ।

छेक, बृत्ति, श्रुति, लाट अरु, अंत्य पाँच विस्तार ।।

विवरण-जहाँ व्यजनों की समानता हो,चाहे उनके स्वर मिले वा न मिले, उसे अनुप्रास अलंकारकहते हैं। इसके 5 भेद हैं-

(1) छेक छेकानुप्रास

(2) वृत्ति वृत्यानुप्रास

(3) श्रुति  श्रुत्यानुप्रास

(4) लाट लाटानुप्रास

(5) अंत्य अंत्यानुप्रास

 

छेकानुप्रास

दो-बर्न अनेक किएक की, आवृत्ति एकै बार। .

सो छेकानुप्रास है, आदि अंत निरधार ।।

विवरण - जहाँ एक अक्षर की वा अनेक अक्षरों की आवृत्ति क्रम में केवल एक बार हो , चाहे वह आदि में हो चाहे अंत में जैसे –

राधा के बर-बैन सुनि, चीनी चकित सुभाय ।

दाख दुखी मिसरी मुरी, सुधा रही सकुचाय ॥

यहां बरऔर बैनमें की, ‘चीनीऔर चकितमें की, ‘दाखऔर दुखीमें की, ‘मिसरीऔर मुरीमें की, तथा सुधाऔर सकुचायमें का आवृत्ति शब्दों के अदि में हुई है।

जन-रंजन भंजन-दनुज, मनुज-रूप सुर भूप।

विश्व बदर-इव धृत-उदर, जोवत सोवत सूप ॥

इस उदाहरण के रंजनऔर भंजनमें दनुजऔर मनुजमें, ‘बदरऔर उदरमें, ‘जोवतऔर जोवतमें अंत के दो-दो अक्षरों की आवृत्ति एक बार है। रूपऔर भूपमें अंत में एक अक्षर की आवृत्ति है। विश्वऔर बदरमें, ‘सोवतऔर सूपमें आदि में एक-एक अक्षर की आवृत्ति है।

 

वृत्यनुप्रास

दो-बर्न अनेक कि एक की, जहँ सरि कैयो धार ।

सो है बृत्यनप्रास जी, पर वृत्ति-अनुसार॥  

विवरण - छेकानुप्रास की तरह आदि वा अन्त में एक वर्ण की वा अनेक वर्णों की आवृत्ति दो या दो बार से अधिक हो तो उसे वृत्यनुप्रास कहेंगे।

सूचना-इस अलंकार को समझने के लिये पहले यह समझ लेना चाहिए कि हिंदी कविता में वृत्तियाँ तीन है-(1) उपनागरिका वैदर्भी ।(2) परुषा गौड़ी (3) कोमला पांचाली ।

“धर्म धुरीन धीर नयनागर सत्य सनेह सील सुखसागर।

बिरति बिवेक बिनय बिज्ञाना: बोध जथारथ बेद पुराना।”

रघुनंद आनंद कंद कोसल चंद दसरथ-नंदन

“जप-माला छापा तिलक, सरें न एको काम।”

मन काँचै नाँचै वृथा, साँचै राँचै राम ॥”

“सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।

जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥”

 

 

श्रुत्यनुप्रास

जहाँ तालु-कंठादि की, ब्यंजन-समता होय।

सोई श्रुत्यनुप्रास है, कहत सुघर कवि-लोय ॥

विवरण-जहाँ तालु, कंठ आदि स्थानों से उच्चरित होनेवाले व्यंजनों की अर्थात् एक स्थान से उच्चरित होनेवाले वर्णों की समता हो, उसे श्रुत्यनुप्रास कहते हैं।

स्मरण रहना चाहिए कि

(1)अ, , , , , , , ह और विसर्ग (:) का उच्चारण कंठ से होता है।

(2)इ, , , , , , ञ और श का उच्चारण तालु से होता है।

(3) , , , , , , ष का मूर्द्धा से होता है।

(4)ल, , , , , , ल और स का दाँतों से होता है।

(5) उ, , , , ,, म का उच्चारण होंठों से होता है।

(6) ए, ऐ का उच्चारण कंठ और तालु से होता है।

(7) ओ और औ का उच्चारण कंठ और होंठ से।

(8) व का दाँत और श्रोठ से।

(9) पंचम वर्ण और अनुस्वार का नासिका से।

विशेष  - इस विचार से जब कविता में ऐसे शब्द रखे जाते हैं जो एकस्थानीय उच्चारण वाले अक्षरों से बने हों, तो उस कविता में एक प्रकार की धारा-प्रवाहिनी शक्ति और मधुरता आ जाती है और उसका सुनना कानों को प्रिय लगता है।

“तुलसिदास सीदत निसि-दिन देखत तुम्हारि निठुराई।”

इसमें अधिकतर दंत्य अक्षर आए हैं इससे यह पद बहुत मीठा जान पड़ता है।

त्रेता युग की व्यथामयी

यह कथा दीन नारी की।

इसमें भी अधिकतर दंत्य अक्षर आए हैं इससे यह पद बहुत मीठा जान पड़ता है।

पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता?

इसमें शब्दों का संगठन वैसा नहीं है, इसलिए कानों को कटु जान पड़ता है। ।

 

लाटानुप्रास

सब्द अर्थ एकै रहै, अन्वय करतहिं भेद ।

सो लाटानुप्रास है, भाषत सुकवि अखेद ।।

विवरण- (पहले कहे हुए अनुप्रास अक्षरों के अनुप्रास हैं, पर लाटानुप्रास शब्द का अनुप्रास है)। शब्द और उसका अर्थ वही रहे, केवल अन्वय करने से अर्थ में भेद हो जाए, उसे लाटानुप्रासकहते हैं। यह अनुप्रास लाट देशवाले कवियों का निकाला हुआ है। इसीसे इसका यह नाम पड़ा है।

तीरथ- व्रत-साधन कहा, जो निसदिन हरि-गान ।

तीरथ-व्रत-साधन कहा, बिन निसदिन हरि-गान ।

यहाँ शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति है केवल तात्पर्य में भेद है; अर्थात् जो मनुष्य रात-दिन हरि-यश-गान करता रहे तो उसके लिए तीर्थ, व्रत और साधन आवश्यक नहीं हैं। जिस तीर्थ, व्रत और साधन में रात-दिन हरि यश-गान का विधान न हो वह तीर्थ, व्रत और साधन व्यर्थ है।

राम हृदय जाके बसैं, बिपति सुमंगल ताहि ।

राम हृदय जाके नहीं, बिपति सुमंगल ताहि ॥

जिसके हृदय में राम बसते हैं, उसके लिए विपत्ति भी सुमंगल हो जाती है और जिसके हृदय में राम नहीं हैं उसके लिए सुमंगल भी विपत्ति ही है।।

पूत सपूत तो का धन संचय,

पूत कपूत तो का धन संचय।

मुधा तीर्थ को भ्रमन है, रहैं हरी चित जासु ।

मुधा तीर्थ को भ्रमन है, रहैं न हरिचित जासु ॥

अंत्यानुप्रास

व्यंजन स्वरयुत एक-से, जो तुकांत में होहिं।

सो अंत्यानुप्रास है, अरु तुकांतहू ओहिं।।

विवरण-प्रत्येक छंद में चार चरण होते हैं। चारा चरणों के अंत्याक्षर तुकांतकहलाते हैं। इसी तुकांत को अंत्यानुप्रास कहते हैं। भाषा-काव्य में तुकांत बहुत अच्छा लगता है। इसी को फारसी तथा उर्दू में काफियाकहते हैं। भाषा काव्य में छह प्रकार तक के तुकांत हो सकते हैं -

“विद्यावान गुनी अति चातुर,

राम काज करिबे को आतुर।”

“भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।

मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।”

“प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर

आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मँह बीर रस।।”

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