Hindi Divas par ek nibandh

 

हिंदी अस्मिता के लिए

सत्ता औ रसमय, दोनों हिंदी के साथ दिखता है। फिर हिंदी इतनी दयनीय क्यों? क्या हमारी सामाजिक इच्छाशक्ति में कहीं कोई कमी रह गई है या हम हिंदी को उसकी स्वाभाविक दीनता से निकालने के इच्छुक नहीं दिखते? हिंदी का व्यापक आधार है, उसकी पहुँच, उसके सरोकार सभी कुछ व्यापक हैं, किंतु हिंदी कहाँ, कैसी है? क्या कर्मकांडों से अलग हिंदी अपनी जगह बना पा रही है? क्या हम चाहते हैं कि वह रोजगार और शिक्षा की भाषा बने? क्या हम आश्वस्त हैं कि हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ हिंदी माध्यम के स्कूलों में पढ़कर भी किसी तरह की हीनता और अपराधबोध की शिकार नहीं बनी रहेंगी? क्या हिंदी और भारतीय भाषाओं की सामूहिक शक्ति इतनी है कि वे अंग्रेजी को उसके स्थान से पदच्युत कर सकें। यह संकल्प हममें या हमारी नई पीढ़ी में दिखता हो, तो बताइए? अंग्रेजी को हटाने की बात दूर, सिर्फ हिंदी को उसकी जमीन पर पहली भाषा का दर्जा दिलाने की बात है। आज भी किसी कस्टमर केयर में फोन लगाया जाता है तो आईवीआरएस यही कहता है कि अंग्रेज़ी के लिए 1 दबाइए और हिंदी के लिए दो। आखिर हिंदी भाषा की इतने अवहेलना क्यों?

कितना अच्छा होता कि हमारे न्यायालय आम जनता को न्याय उनकी भाषा में दे पाते। दवाइयाँ  हमारी भाषा में मिल पातीं। यह अँधेरा हमने किसके लिए चुना है? कल्पना कीजिए कि इस देश में इतनी बड़ी संख्या में गरीब, मज़बूर लोग, अनुसूचित जाति-जनजाति, पिछड़े वर्ग के लोग नहीं होते, तो हिंदी और भारतीय भाषाएँ कहाँ दिखतीं। हिंदी माध्यम और भारतीय भाषाओं के माध्यम से स्कूलों में प्रायः इन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे जा रहे हैं।

कई बार लगता है कि गरीबी मिट जाएगी, तो हिंदी और भारतीय भाषाएँ भी लुप्त हो जाएँगी। गरीबों के देश में होना हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ होना है। समय बदल रहा है मजदूर ज्यादा समय रिक्शा चलाकर अब अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहता है। दलित अंग्रेजी माता के मंदिर बना रहे हैं। उन्हें पता है कि अंग्रेजी का ज्ञान ही उन्हें पद और प्रतिष्ठा दिला सकता है। ऐसे में, हिंदी का क्या होगा, उसकी बहनों, भारतीय भाषाओं का क्या होगा? हिंदी को मनोरंजन, बाजार, विज्ञापन और वोट माँगने की भाषा तक सिमटता हुआ हम सब देख रहे हैं। वह ज्ञान-विज्ञान, उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा तक, कहीं अब भी अंग्रेजी का विकल्प नहीं बन सकी है। उसकी शक्ति उसके फैलाव से आँकी जा रही है, किंतु उसकी गहराई कम हो रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि मातृभाषाओं की स्थिति में कुछ सुधार होगा और उनमें शिक्षा के इंतजाम बेहतर होंगे। प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत रुचि और प्रयासों से इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई हिंदी और भारतीय भाषाओं में हों, इसके संस्थागत इंतजाम हो रहे हैं। आगे विधि और अन्य अनुशासनों की शिक्षा का भी काम भारतीय भाषाओं में होगा। अपनी भाषा को अधिकार दिलाने के लिए हमें ही आगे आना होगा।

हिंदी की मजबूती से भी प्रेरित होना चाहिए। ध्यान दीजिएगा, आरएनआई की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष  2020-21 में भारत में समाचार पत्रों की एक दिन में कुल 38,64,82,373 प्रतियाँ प्रकाशित होती हैं। इसमें 18,93,96,236 प्रतियों के साथ 49.01 प्रतिशत हिस्सा हिंदी भाषा के समाचार पत्रों का है जबकि इसके मुकाबले अंग्रेजी की सिर्फ -3,49,27,239 प्रतियाँ प्रकाशित होती हैं। सेंसस इंडिया और आईआरएस की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार इंटरनेट पर हिंदी पढ़ने वालों की संख्या प्रति वर्ष 96 फीसदी बढ़ रही है, जबकि अंग्रेजी में 18 फीसदी। अनुमान के मुताबिक मार्च, 2023 तक 24 करोड़ लोग इंटरनेट पर हिंदी का उपयोग करने लगेंगे। 2023 तक 8.4 करोड़ लोग डिजिटल पेमेंट के लिए हिंदी का उपयोग करने लगेंगे, जबकि 2016 में यह संख्या सिर्फ 2.2 करोड़ थी। सरकारी कामकाज के लिए 2016 तक 2.4 करोड़ लोग हिंदी का इस्तेमाल करते थे, जो 2023 में 9.9 करोड़ हो जाएगी। 2016 में डिजिटल माध्यम में हिंदी समाचार पढ़ने वालों की संख्या 5.5 करोड़ थी, जो 2023 में बढ़कर 15.9 करोड़ होने का अनुमान है। यही कारण है कि हिंदी को हल्के में नहीं लिए जाए, सिर्फ मानसिकता सुधारने की ज़रूरत है, ताकि हिंदी को यथोचित लाभ मिले।

संतोष है कि इस देश के सपने अब भी हिंदी और भारतीय भाषाओं में देखे जा रहे हैं। लेकिन आज आम शहरी बच्चे पर अगर आप गौर करें, वास्तविकता का पता चलेगा। उसने अंग्रेजी में सोचना शुरू करदिया है। वह अपनी कापियाँ अंग्रेजी में लिखता है, संवाद हिंग्लिश में करता है। अनेक अभिभावक अपने बच्चे की खराब हिंदी पर भले ही क्षोभ न मनाएँ पर गलत अंग्रेजी पर दुखी हैं। हिंदी की चुनौतियाँ वैसी ही हैं, जैसी कभी संस्कृत के सामने थीं। अंततः, संस्कृत लोकजीवन से निर्वासित हो गई और देश देखता रह गया।

आज हमारी बोलियों ने एक-एक कर दम तोड़ना शुरू कर दिया है। हजारों-हजार शब्द और अभिव्यक्तियाँ समाप्त हो रही हैं। कितने लोकगीत, लोकाचार और लोककथाएँ विस्मृति के आकाश में विलीन हो रही हैं। बोलियों के बाद क्या भाषाओं का नंबर नहीं आएगा, इस पर भी सोचिए। आज भी महानगरीय जीवन में अच्छी हिंदी बोलने वाले को भौंचक्के होकर देखा जा रहा है, उसकी तारीफ़ की जा रही है कि 'आपकी हिंदी बहुत अच्छी है।' वहीं शेष भारत के संवाद की शुरुआत 'मेरी हिंदी थोड़ी वीक है' कह कर हो रही है। दोनों तरह के भारत आमने-सामने हैं। जीत किसकी होगी, तय नहीं। पर खतरे को समझकर आज ही हमने अपनी तैयारी नहीं की, तो कल बहुत देर जाएगी।

 

संकलित

Comments