रेडियो नाटक
रेडियो नाटक
कैसे बनता है रेडियो नाटक
इस पाठ में.......
Ø रेडियो नाटक की परंपरा
Ø सिनेमा, रंगमंच और रेडियो नाटक, समानता और
अंतर
Ø रेडियो नाटक में ध्वनि संकेतों की महत्ता
Ø रेडियो नाटक की अवधि और पात्र
Ø रेडियो नाटक का लेखन
कला सिर्फ़ स्वप्न नहीं, स्वप्न को जीवन में सच करने का कर्म भी है।
ऐसा सामाजिक और राजनैतिक कर्म जिसमें उत्पीड़न की ज़ंजीरों में कैद मनुष्य की मुक्ति
के बीज छिपे रहते हैं।
—विनोद दास
रेडियो नाटक की परंपरा
आज से कुछ दशक पहले एक जमाना ऐसा भी था, जब दुनिया
में न टेलीविज़न था, न कंप्यूटर। सिनेमा हॉल—थिएटर थे
तो, लेकिन उनकी
संख्या आज के मुकाबले काफ़ी कम होती थी और एक आदमी के लिए वे आसानी से उपलब्ध भी
नहीं थे। ऐसे समय में घर में बैठे मनोरंजन का जो सबसे सस्ता और सहजता से प्राप्त
साधन था, वो था- रेडियो, रेडियो पर
खबरें आती थीं, ज्ञानवर्धक कार्यक्रम आते थे, खेलों का आँखों देखा हाल प्रसारित होता था, एफ़. एम.
चैनलों की तरह गीत-संगीत की भरमार रहती थी। टीवी. धारावाहिकों और टेलीफ़िल्मों की कमी को पूरा
करते थे रेडियो पर आने वाले नाटक।
सिनेमा, रंगमंच और रेडियो नाटक, समानता और अंतर
सिनेमा और रंगमंच की तरह ही रेडियो नाटक में चरित्र होते
हैं उन चरित्रों के आपसी संवाद होते हैं और इन्हीं संवादों के ज़रिये आगे बढ़ती है
कहानी। बस सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में विजुअल्स अर्थात् दृश्य नहीं
होते। यही सबसे बड़ा अंतर है, रेडियो नाटक तथा सिनेमा या रंगमंच के माध्यम
में। इन सबमें एक कहानी, कहानी का वही ढाँचा, शुरुआत-मध्य-अंत, इसे यूँ
भी कह सकते हैं, परिचय-द्वंद्व समाधान। बस ये सब होगा आवाज़ के माध्यम से। रेडियो पूरी तरह से
श्रव्य माध्यम है इसीलिए रेडियो नाटक का लेखन सिनेमा व रंगमंच के लेखन से थोड़ा
भिन्न भी है और थोड़ा मुश्किल भी।
रेडियो नाटक लेखन में कुछ ध्यातव्य
रेडियो नाटक की कहानी का चयन समझदारी से करें।
शब्द छोटे-छोटे और लोक प्रचलित होने चाहिए।
रेडियो नाटक के उद्घोषक की आवाज स्पष्ट, गंभीर और आकर्षक होनी चाहिए।
आपको संवादों के माध्यम से पात्रों का चरित्र चित्रण करना होता
है।
संवादों को प्रभावशाली और बोधगम्य बनाने के लिए ध्वनियों की
आवश्यकता है।
आमतौर पर रेडियो नाटक की अवधि 15 मिनट से 30 मिनट
होती है।
रेडियो नाटक में पात्र सीमित (अधिकतम 7 से 8) होते हैं।
फ़िल्म की तरह रेडियो में एक्शन की गुंजाइश नहीं होती।
रेडियो नाटक की अवधि छोटी क्यों होती है?
आमतौर पर रेडियो नाटक की अवधि 15 मिनट से 30 मिनट
होती है। उसकी दो वजहे हैं, श्रव्य माध्यम में नाटक या वार्ता जैसे
कार्यक्रमों के लिए मनुष्य की एकाग्रता की अवधि 15-30 मिनट ही होती है। इससे ज़्यादा नहीं। दूसरे
सिनेमा या नाटक में दर्शक अपने घरों से बाहर निकल कर किसी अन्य सार्वजनिक स्थान पर
एकत्रित होते हैं। मतलब वो इन आयोजनों के लिए एक प्रयास करते हैं और अनजाने लोगों
के एक समूह का हिस्सा बनकर प्रेक्षागृह में बैठते हैं। अंग्रेज़ी में इन्हें कैपटिव
ऑडिएंस कहते हैं, अर्थात एक स्थान पर कैद किये गए दर्शक। जबकि टी.
वी. या रेडियो ऐसे माध्यम हैं कि आमतौर पर इंसान अपने घर में अपनी मर्ज़ी से इन
यंत्रों पर आ रहे कार्यक्रमों को देखता सुनता है। सिनेमाघर या नाट्यगृह में बैठा
दर्शक थोड़ा बोर हो जाएगा, लेकिन आसानी से उठ कर जाएगा नहीं। पूरे
मनोयोग से जो कार्यक्रम देखने आया है, देखेगा। जबकि घर पर बैठ कर रेडियो सुननेवाला
श्रोता मन उचटते ही किसी और स्टेशन के लिए सुई घुमा सकता है या उसका ध्यान कहीं और
भी भटक सकता है। इसलिए अमूमन रेडियो नाटक की अवधि छोटी होती है, और अगर
आपकी कहानी लंबी है तो फिर वह एक धारावाहिक के रूप में पेश की जा सकती है, जिसकी हर
कड़ी 15 या 30 मिनट की
होगी। यहाँ एक बात और समझ लीजिए। रेडियो पर निश्चित समय पर निश्चित कार्यक्रम आते
है, इसलिए
उनकी अवधि भी निश्चित होती है15 मिनट, 30 मिनट, 45 मिनट, 60 मिनट वगैरह।
रेडियो नाटक कैसे लिखें –
मान लीजिए दृश्य कुछ इस प्रकार का है, रात का
समय है, और जंगल
में तीन बच्चे, राम, श्याम और मोहन रास्ता भटक गए हैं। फ़िल्म या
मंच पर इसे प्रकाश, लोकेशन/मंच सज्जा, ध्वनि
प्रभावों और अभिनेताओं की भाव-भांगिमाओं से दिखाया जा सकता था। रेडियो के लिए इसका लेखन कुछ इस प्रकार
होगा।
कट—1 या पहला हिस्सा
(जंगली जानवरों की आवाज़ें, डरावना
संगीत। पदचाप का स्वर।)
राम - श्याम, मुझे बड़ा डर लग रहा है, कितना
भयानक जंगल है।
श्याम - डर तो मुझे भी लग रहा है राम! इत्ती रात हो गई घर
में अम्मा—बाबू सब परेशान होंगे!
राम - ये सब इस नालायक मोहन की वजह से हुआ। (मोहन की नकल
करते हुए) जंगल से चलते है, मुझे एक छोटा रास्ता मालूम है...
श्याम - (चौंककर) अरे! मोहन कहाँ रह गया? अभी तो यहीं था! (आवाज़ लगाकर) मोहन! मोहन!
राम - (लगभग रोते हुए) हम कभी घर नहीं पहुँच पाएँगे...
श्याम - चुप करो! (आवाज़ लगाते हुए) मोहन! अरे मोहन हो!
मोहन - (दूर से नज़दीक आती आवाज़) आ रहा हूँ! वहीं रुकना! पैर
में काँटा चुभ गया था।
(नज़दीक ही कोई पक्षी पंख फड़फड़ाता भयानक स्वर
करता उड़ जाता है।) (राम चीख पड़ता है।)
राम - श्याम, बचाओ!
मोहन - (जो नज़दीक आ चुका है।) डरपोक कहीं का।
राम - (डरे स्वर में) वो... वो... क्या था?
मोहन - कोई चिड़िया थी। हम लोगों की आवाज़ों से वो खुद डर गई
थी। एक नंबर के डरपोक हो तुम दोनों।
श्याम - मोहन रास्ता भटका दिया, अब
बहादुरी दिखा रहा है...
रेडियो
नाटक में इन दृश्यों को प्रस्तुत करें
(क) घनी अँधेरी रात (ख) सुबह का समय
(ग) बच्चों की खुशी (घ) नदी का किनारा
(ङ) वर्षा का दिन
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