वो जीत गई - A Poem on Women

 

वो जीत गई

आखिर पहले मैं ही बोला,

सोचा था मैंने जीवन में, जीतूँगा हर इक नारी से,

जाने कबसे ग्रसित था मैं, मीठी-सी इस बीमारी से,

मैं पर्वत-सा मजबूत बना, बनी वह किरण इक प्यारी-सी,

मैं काँटे-सा रहा तना, वो दिखी मुझे फुलवारी सी,

देखा मैंने उसको, उससे खुदको मैंने तोला,

आखिर पहले मैं ही बोला,

आखिर पहले मैं ही बोला।

मैं क्रूर बनता जाता था, वो कोमल बनती जाती थी,

मैं जितना ही चिल्लाता था, वो उतनी ही मुसकाती थी,

मैं क्रोधाग्नि जलाता था, वो प्रेमजल बरसाती थी,

मैं पुरुषाभिमान दिखाता था, वो स्नेहधारा बहाती थी,

मैं पागलपन तक पहुँच गया, तब उसने ही तो अमृत घोला,

आखिर पहले मैं ही बोला,

आखिर पहले मैं ही बोला। 

नारी की क्षमता नर से बढ़ी मिली है हर बंधन में,

नारी की ममता नर से देखी गई है हर क्रंदन में,

नारी की समता नर से श्रेष्ठ हुई है जन-जन में,

नारी की सुंदरता ऐसी खुशबू जैसे हर चंदन में,

हृदय समर्पित करके उसको, मैंने अपना अंतर खोला,

आखिर पहले मैं ही बोला,

आखिर पहले मैं ही बोला।

अविनाश रंजन गुप्ता

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