अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ
अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ
अर्थ-परिवर्तन क्या है?
किसी शब्द के अर्थ में परिवर्तन हो जाना ही अर्थ-परिवर्तन
कहलाता है। यह परिवर्तन समय के साथ-साथ होता जाता है।
अर्थ-परिवर्तन के उदाहरण
प्रत्येक शब्द बल्कि प्रत्येक भाषिक इकाई का अर्थ होता है, किंतु यह 'अर्थ' सर्वदा एक
नहीं रहता। उसमें परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए, संस्कृत का
शब्द आकाशवाणी लें। संस्कृत में इसका अर्थ 'देववाणी' है। अब
आकाशवाणी का अर्थ परिवर्तित होकर (हिंदी में) रेडियो (ऑल इंडिया
रेडियो) हो गया है।
संस्कृत का ही एक दूसरा शब्द ‘जंघ’ लें । इसका प्रयोग
संस्कृत भाषा में पैर के उस भाग के लिए होता है जो घुटने से नीचे होता है किंतु हिंदी
में यही शब्द ‘जंघा’ रूप में मिलता है, और इसका
अर्थ पैर का वह भाग होता है जो घुटने के ऊपर होता है। इस प्रकार जंघा का
अर्थ-परिवर्तन हो गया है।
'गँवार' शब्द का इतिहास
भी अर्थ-परिवर्तन का अच्छा उदाहरण है। पालि भाषा में प्राप्त शब्द ‘ग्रामदोरको’ से अनुमान लगता है कि
संस्कृत में यह शब्द ‘ग्रामदारक:’ रहा होगा, जिसका अर्थ था गाँव का रहने वाला','गाँव
का लड़का' अथवा 'गाँव वाला'। हिंदी आदि
आधुनिक भाषाओं में यह शब्द गँवार (हिंदी), गँयार
(बँगला), गमार (गुजराती) आदि रूपों में मिलता है तथा
इसका अर्थ 'असभ्य' और 'मूर्ख' हो गया है ।
तो हमने देखा कि आकाशवाणी, जंघा तथा गँवार का अर्थ कुछ से कुछ हो गया
है।
अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ (प्रकार)
अर्थ-परिवर्तन किन-किन दिशाओं में होता है? अथवा उसके कितने प्रकार होते हैं? इस विषय पर सबसे पहले फ्रांसीसी भाषाविज्ञानवेत्ता ब्रील ने
विचार किया था। उन्होंने तीन दिशाओं की खोज की थी :
अर्थ-विस्तार (Expansion of Meaning)
अर्थ-संकोच (Contraction of meaning)
अर्थादेश (Transference of Meaning)
विशेष द्रष्टव्य
किंतु इन तीनों के जो उदाहरण मिलते हैं, उनसे ज्ञात
होता है कि कुछ स्थानों पर अर्थ अपने मूल अर्थ से उत्कृष्ट हो गया है और कहीं पर
वह अपने मूल अर्थ से निकृष्ट या घटिया हो गया है। इस आधार पर इन्हें अर्थोत्कर्ष
और अर्थापकर्ष कहा जा सकता है।
अर्थ-विस्तार (Expansion of Meaning)-अर्थ-विस्तार का अर्थ है अर्थ का सीमित
क्षेत्र से निकलकर विस्तार पा जाना। उदाहरण के लिए संस्कृत का एक शब्द है ‘तैल’ जिसका मूल अर्थ है 'तिल का रस'। अर्थात्, संस्कृत में
मूलतः 'तिल के तेल' को ही 'तैल' कहते थे।
यही इसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ था। हिंदी आदि आधुनिक भाषाओं का ‘तेल’ शब्द इसी ‘तैल’ से विकसित है, किंतु इसका
अर्थ विस्तृत हो गया है । तैल का मूल अर्थ था 'तिल का तेल', किंतु ‘तेल’ का प्रयोग अब सभी चीजों
के तेल के लिए होता है, जैसे - सरसों का तेल, मूंगफली का
तेल, अलसी का तेल, आंवला का तेल, चमेली का
तेल, नारियल का तेल, नीम का तेल, मछली का तेल
और अंत में मिट्टी का तेल भी इसी में आ मिला। यहाँ तक कि अगर किसी से जबरन धूप में
काम करवाया जाए तो वह यह कह सकता है कि उसने तो मेरा तेल ही निकाल दिया।
'प्रवीण' शब्द को
देखें। इस शब्द का अर्थ पहले "प्रकृष्टोवीणायाम्' अर्थात् 'जो अच्छी
तरह वीणा बजाने वाला हो’- हुआ करता था। आज हर
काम में दक्ष, चतुर को 'प्रवीण' कहा जाता है, भले ही वह
चोरी में ही क्यों न हो। जैसे 'वह भोजन बनाने में प्रवीण है।' 'वह
बाँसुरी बजाने में प्रवीण है।' भोजन बनाने वाले और बाँसुरी बजाने वाले ने
भले ही कभी भी वीणा छुई भी न हो, फिर भी इनके लिए प्रवीण शब्द का प्रयोग किया
जाता है।
यही स्थिति ‘कुशल’, 'गवेषणा', 'गवाक्ष', 'निपुण', 'स्याही', ‘महाराज’, ‘सब्ज़’, ‘इतिश्री’ आदि शब्दों की है। 'कुश' को उखाड़ते
समय सामान्यतया सावधानी बरतते हैं। एक तो तृणों से कुश की पहचान करना फिर बिना
खरोंच अथवा चीर लगे 'कुश' को उखाड़
लेना बहुत निपुणता और सावधानी का काम होता था, वही कुशल
माना जाता था। आज लगभग प्रत्येक काम में, जैसे-
'कुशल' लोगों की भीड़ लगी है। कुश का अर्थ
उसमें गायब हो गया है। इसी तरह 'गवेषणा' क्रिया का
प्रयोग गायों को ढूँढने में हुआ करता था। आज किसी तरह की खोज भले ही वह वैज्ञानिक
ही क्यों न हो- 'गवेषणा' कही जाती
है। ‘गवाक्ष’ पहले गाय की आँख के अर्थ में प्रयुक्त हुआ करता था। लेकिन
आज इसका अर्थ खिड़की अथवा झरोखा हो गया है। ‘निपुण' का अर्थ पहले 'पुण्य कमाने
वाले के लिए हुआ करता था, लेकिन आज तो किसी भी गलत-सही वस्तु का चतुराई
से उपार्जन 'निपुणता' के भीतर ही
आता है। ‘स्याही शब्द का अर्थ 'स्याह' अर्थात् 'काला' हुआ करता
था। लेकिन आज हर प्रकार की रोशनाई या मसि ‘स्याही' कही जाती है, यथा-नीलीस्याही, कालीस्याही, लालस्याही।
गायों के रहने के स्थान को पहले गोशाला या गोष्ठ कहते थे। किंतु अब उसमें भैंस, बकरी, बैल भी
बंधते हैं, फिर भी उसे गोशाला या गोष्ठ ही कहते हैं। इसी
तरह 'महाराज' शब्द पहले
केवल महाराजा के लिए प्रयुक्त होता था, किंतु बाद में इसका अर्थविस्तार हुआ कि किसी
भी भद्रपुरुष को महाराज कह सकते हैं। 'महाराज' शब्द रसोइया
के लिए भी चलता है। इसी तरह ‘सब्ज़’ का अर्थ है ‘हरा’ पहले पालक, भिंडी जैसी हरी
तरकारियों के लिए सब्जी का प्रयोग होता था अब तो लाल-लाल टमाटर और गाजर, सफेद मूली और नीले बैंगन के लिए भी ‘सब्जी’ शब्द का प्रयोग होता
है। ‘इतिश्री’ संस्कृत में लेखक अपनी कृति के अंत में पुष्पिका में लिखते
थे ‘इति श्री ___ कृतम समाप्तम्’ आदि अब
किसी भी काम की समाप्ति इतिश्री कहलाती है।
अर्थ-संकोच (Contraction of meaning) यह अर्थ विस्तार का ठीक उलटा है। प्रायः देखा
जाता है कि पहले कोई शब्द विस्तृत अर्थ का वाचक था किंतु बाद में वह सीमित अर्थ
में प्रयुक्त होने लगता है। व्युत्पत्ति के आधार पर उसे विस्तृत अर्थ का वाचक होना
चाहिए किंतु उसका प्रयोग सीमित अर्थ में होता है। अर्थपरिवर्तन की इस दिशा को
अर्थसंकोच कहते हैं।
'मृग' शब्द पहले
सभी जंगली जानवरों के लिए प्रयुक्त होता था किंतु अब यह शब्द एक पशु विशेष के लिए
रूढ़ हो गया है। 'पंकज' ‘पंक+ज’ का शाब्दिक अर्थ है-कीचड़ में उत्पन्न होने
वाला, किंतु अब यह शब्द 'कमल' के अर्थ में
रूढ़ हो गया है। 'वेदना' शब्द का अर्थ
सुख और दुख दोनों के अनुभव के लिए था। अब केवल 'दुख' अर्थ रह गया
है। 'मंदिर' का अर्थ
पहले 'भवन' था किंतु अब
'देवालय के अर्थ में रूढ़ हो गया है।
अर्थ संकोच के कारण है। समास, उपसर्ग, प्रत्यय, विशेषण, पारिभाषिकता और नामकरण
जैसे नीलाम्बर (बलराम), पीताम्बर (कृष्ण), दशानन
(रावण), गजबदन (गणेश), पुरारी
(शिव), शब्द बहुब्रीहि समास के कारण संकुचित अर्थ के
वाचक हो गए हैं।
इसी तरह उपसर्ग भी अर्थ को सीमित कर देते हैं। जैसे, 'हार' शब्द
विभिन्न उपसर्गों के सहयोग से विभिन्न अर्थों का वाचक हो जाता है, जैसे विहार, प्रहार, उपहार, संहार आदि।
इसी तरह के अन्य उदाहरण देखिए- 'योग' शब्द उपसर्ग
से संयोग, वियोग, उपयोग, आयोग, प्रयोग। 'कार' शब्द उपसर्ग
से- आकार, प्रकार, विकार, संस्कार, प्रतिकार ।
प्रत्यय लगाने से भी अर्थसंकोच होता है, जैसे- कुटी से कुटीर, बाग-बगीचा, देग-देगचा
अर्थ परिवर्तन का सबसे बड़ा साधन है- विशेषण। जैसे, 'जन' का अर्थ है 'लोग' लेकिन इस 'जन' शब्द में जब
'दुर्' या 'सत्' विशेषण लग
जाता है तो वह 'दुर्जन; व 'सज्जन' शब्द विशेष
शब्द का वाचक हो जाता है। इसी तरह 'कमल' शब्द में 'नीलकमल', 'श्वेतकमल', 'रक्तकमल' आदि विशेषण
लग कर अर्थ का संकोच कर देते हैं।
शब्दों का पारिभाषिक रूप में प्रयोग हमेशा उसके अर्थ को संकुचित
कर देता है। जैसे 'संत' शब्द का
अर्थ बहुत व्यापक है। किंतु हिंदी साहित्य के ‘निर्गुण काव्यधारा के संत कवियों’ के संदर्भ में संत शब्द अपने संकुचित अर्थ में प्रयोग होता
है। इसी तरह 'रस’ शब्द
के भी अनेक अर्थ हैं। किंतु काव्यशास्त्र
में प्रयोग होने पर वह एक विशेष संकुचित अर्थ का द्योतक हो जाता है।
नामकरण के चलते भी बहुत से शब्दों का अर्थ संकुचित हो जाता
है, जैसे- मानव, दानव, गौरी, अशोक, हिमालय, नर्मदा, कृष्ण आदि
शब्द नामकरण के रूप में प्रयुक्त होने के कारण संकुचित अर्थ के द्योतक हो जाते है।
अर्थादेश (Transference of Meaning) 'आदेश' का अर्थ
होता है-'परिवर्तन' । अर्थादेश
में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता बिल्कुल बदल जाता है अर्थात् पहले वह शब्द
किसी दूसरे अर्थ का वाचक था किंतु बाद में दूसरी अर्थ का वाचक बन गया। जैसे, ‘असुर' शब्द वेद
में 'देवता' अर्थ का
वाचक था किंतु बाद में यह 'राक्षस या ‘दैत्य’ का वाचक बन गया। 'आकाशवाणी' का अर्थ
पहले 'देववाणी' था अब उसका प्रयोग
'अखिल भारतीय रेडियो के लिए होता है। 'साहस' शब्द पहले
डकैती आदि बुरे कामों का बोधक था लेकिन आज अच्छे अर्थ को बोधक हो गया। तटस्थ पहले
तट पर स्थित अब किसी का पक्ष न लेने वाला, तिलांजलि देना पहले मूलत: किसी की मृत्यु के बाद हाथ में
तिल और पानी लेकर मृतक के नाम पर देना, अब
छोड़ देना। खाट खड़ी करना किसी की मृत्यु के बाद उसकी मृत्यु के संकेतस्वरूप खाट
उलटी खड़ी कर देना, अब दुर्दशा करना। इन उदाहरणों पर विचार करने
से दो बातें सामने आती हैं। पहला-कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है और बाद में
अच्छा हो जाता है। दूसरा-कुछ का अर्थ पहले अच्छा रहता है और बाद में बुरा हो जाता
है। इन्हीं को क्रमशः अर्थोत्कर्ष और अर्थापकर्ष कहते है।
अर्थोत्कर्ष (Elevation of meaning) जब शब्दों में अर्थ परिवर्तन से अर्थ में
उत्कर्ष आता है तो उन्हें अर्थोत्कर्ष की श्रेणी में रखा जाता है। जिन शब्दों के
अर्थ में उत्कर्ष हुआ है। इनके उदाहरण निम्नवत हैं1. 'मुग्ध' शब्द पहले 'मूर्ख' अर्थ में था
अब अच्छे अर्थ में 'मोहित होना' के रूप में प्रयुक्त
होता है। बोपदेव ने अपने व्याकरण पुस्तक का नाम ‘मुग्धबोध’ रखा था, अर्थात जो मूढ़ को भी बोध करा दे। । 2. 'साहस' शब्द पहले
डाका डालना, चोरी करना, व्यभिचार
करना आदि अर्थ में था किंतु अब ‘उत्साहयुक्त कार्य' के अर्थ में
प्रयुक्त होता है। 3. 'कर्पट' शब्द पहले
फटे-चिथड़े के लिये प्रयुक्त होता था किंतु अब कर्पट अर्थात् कपड़ा अच्छे वस्त्र
के रूप में प्रयुक्त होता है। 4. गोष्ठ-गोष्ठी ‘गोष्ठ' शब्द गौशाला
के लिए प्रयुक्त होता था किंतु अब गोष्ठ शब्द से बना गोष्ठी शब्द सभ्य समाज की सभा
के लिए प्रयुक्त होता है। 5. सभ्य शब्द का अर्थ पहले सभा के योग्य या सभा में
बैठने के योग्य। अब एक प्रशंसासूचक शब्द।
अर्थापकर्ष (Deterioration of meaning) अर्थ परिवर्तन से कुछ शब्दों के अर्थ में
हीनता, निकृष्टता या अपकर्ष हो जाता है। इसी को
अर्थापकर्ष कहते है। अर्थापकर्ष के उदाहरण इस प्रकार हैं, जैसे- 1. 'भद्दा' शब्द भद्र
धातु से बना है, जिसका अर्थ भला होना चाहिए किंतु अब यह बुरे
के अर्थ में प्रयोग होता है। 2. 'शौच' शब्द 'शुचि' धातु से बना
है, अतः पवित्र कार्य के लिए प्रयुक्त होता था किंतु अब ‘मल
त्याग' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। 3. ‘पुंगव’ का मूल अर्थ ‘श्रेष्ठ’ था अब उसी से ‘पोंगा’- मूर्ख। ‘हरिजन’ मूल अर्थ भक्त अब ‘अछूत’। 4. वज्रवतुक = मूल
अर्थ पक्का ब्रह्मचारी, अब बजरबट्टू – मूर्ख।
नग्न-लुंचित – जैन साधुओं के लिए आदर के साथ प्रयुक्त। अब इसका परिवर्तित रूप है
नंगा-लूच्चा।
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