Aalo-Andhari – Baby Haaldaar आलो—आँधारि’ — बेबी हालदार पाठ का सार

 

 

पाठ का सार

लेखिका, बेबी हालदार का तेरह वर्ष की उम्र में दुगुनी उम्र के व्यक्ति से विवाह के कारण सातवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़नी पड़ी। 12—13 वर्षों बाद पति की ज़्यादतियों से परेशान होकर तीन बच्चों सहित पति का घर छोड़ दुर्गापुर से फ़रीदाबाद आ गई। कुछ समय बाद गुड़गाँव चली आई। अपने पति से अलग अपने तीन बच्चों (दो लड़के और एक लड़की) समेत एक किराए के मकान में रहने लगी और घरेलू नौकरानी का काम करने लगी। इसके बावजूद उसे अपने बच्चों के भविष्य की चिंता और अधिक काम करके अधिक पैसे कमाने की चिंता सदा सताती रहती थी क्योंकि जितने रुपए उसे मिलते थे उतने में घर का किराया और अन्य खर्च बड़ी मुश्किल से पूरा हो पाता था। आर्थिक संकट के साथ-साथ उसे सामाजिक संकटों का भी सामना करना पड़ता था जब आस-पड़ोस की महिलाएँ उससे उसके काम और उसके पति के बारे में पूछती थी तो न चाहकर भी उसे इस अनचाही स्थिति को झेलना पड़ता था। 

लेखिका की पहचान सुनील नामक एक युवक से थी और उसने सुनील को काम ढूँढ़ने के लिए कह रखा था। एक दिन सुनील ने बेबी को एक मालिक से मिलवाया और उस मालिक ने बेबी को आठ सौ रुपए महीने की पगार पर काम में रख लिया। मालिक बड़ा ही नेक इंसान था। वहाँ लेखिका सुबह से दोपहर तक घर के सभी काम निपटा कर अपने घर जाया करती थी और अपने बच्चों को खाना बनाकर खिलाया करती थी। इतने कम पैसों में बच्चों की परवरिश, घर का किराया ये सब उसके लिए बहुत मुश्किल होता था। इसलिए उसने किसी दूसरे जगह भी काम की तलाश शुरू कर दी। इसके अलावा उसने कम किराए वाला दूसरा मकान भी ले लिया। किराया तो कम था मगर असुविधाएँ अधिक थीं। घर में बाथरूम न होने के कारण शौच आदि के लिए बाहर जाना पड़ता था और वातावरण नया होने के कारण लोगों का व्यवहार भी ठीक नहीं था। बच्चों के साथ अकेली महिला होने के कारण लोग तरह-तरह की बातें करते थे। इधर लेखिका के काम से मालिक इतने खुश थे कि उन्होंने लेखिका का पूरा  ख्याल रखना शुरू कर दिया। उसने लेखिका से कहा कि मुझे तातुश कहकर पुकारा करो। तातुश एक शिक्षक रह चुके थे उन्हें पढ़ाई-लिखाई का महत्त्व पता था।  उन्होंने एक दिन लेखिका से कहा कि वह पढ़ना-लिखना फिर से शुरू करे। पहले पहल तो लेखिका को यह बड़ा अजीब लगा पर तातुश के बार-बार कहने पर उसने आग्रह स्वीकार कर लिया। अब लेखिका तातुश के घर से काम करके आती बच्चों को खाना पका कर खिलाती और देर रात तक पढ़ती-लिखती रहती थी। इसी क्रम में उसे पढ़ने-लिखने में रुचि पैदा हो गई।

परंतु लेखिका बिना स्वामी के रहती थी और इस पुरुष प्रधान समाज में जिसके घर में स्वामी नहीं होता है उसे कुछ अलग ही नज़रों से देखा जाता है। यहाँ मकान मालकिन उससे बेवजह के सवाल-जवाब करती और मकान मालकिन का लड़का उससे छेड़ने करने की कोशिश करता। एक दिन जब वह तातुष के घर से काम करके लौटी तो देखा कि उसके बच्चे रो रहे हैं पता चला कि उनके घर तोड़ दिए गए हैं। सभी अपने परिवारों के साथ कहीं दूसरे जगह पर चले गए पर लेखिका और उसके बच्चों ने पूरी रात खुले आसमान के नीचे बिताई। उसकी इस हालत पर तरस खाकर भोला दा नाम का एक व्यक्ति उसकी मदद करने के लिए वहाँ पहुँचा। उसे इस बात का दुख हो रहा था कि उसके दो-दो भाई यहाँ आस-पास रहते हैं पर उसकी खोज-खबर लेने कोई भी नहीं आया। इन स्थितियों में लेखिका को एक पुरुष की कमी महसूस होती है।

हालाँकि, तातुश के पास जब लेखिका अपनी समस्या लेकर गई तो तातुश ने उन्हें अपने छत पर का एक कमरा खाली करवा कर उन्हें रहने के लिए दे दिया। अब लेखिका तातुश के घर में अपने दो बच्चों के साथ रहने लगी और उसका बड़ा बेटा किसी और के घर में काम करता था। अब यहाँ लेखिका फिर से पढ़ना-लिखना शुरू कर देती है। उसकी लिखी रचना को तातुश फोटोकोपी करवा कर अपने संबंधियों को भी भेजा करते थे, उन्हें लेखिका की रचना बहुत पसंद आती थी। फिर भी लेखिका अपने बड़े बेटे को लेकर थोड़ी-चिंतित रहा करती थी। तातुश ने जब यह जान लिया तो उन्होंने उसके बड़े बेटे को एक ऐसी जगह नौकरी दिलवा दी जो उसे पढ़ाएगा भी। यह सब देखकर लेखिका तातुश के प्रति समर्पित हो जाती थी।

इस प्रकार तातुश के घर में लेखिका का जीवन चलने लगा। उसे और उसके दोनों बच्चों को ठीक से खाना मिलने लगा। तातुश उनका बहुत ख्याल रखते। जब उनमें से कोई बीमार हो जाता तो वे उनकी दवा का प्रबंध करते। लेखिका उनका सद्व्यवहार देखकर दंग रह जाती और सोचती कि उसने कोई अच्छे कर्म किए थे जो तातुश जैसे इंसान मिले। तातुश का निरंतर लेखिका को लेखन के लिए प्रेरित करते और लेखिका का हौसला बढ़ाते रहते थे। 

जब तातुश के छोटे लड़के अर्जुन दा के दो मित्र वहाँ आकर रहने लगे तो लेखिका का काम कुछ बढ़ गया था। मगर उन लोगों का व्यवहार इतना अच्छा था कि वह खुशी-खुशी सारा काम करती थी। नए आए लोग भी उससे अपनों जैसा व्यवहार करते थे। वे लेखिका के बच्चों का ख्याल रखते,  लेखिका को बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के विषय में अच्छी-अच्छी बातें बताते और इस तरीके से लेखिका की लेखन कौशल में विकास होता जाता। अब लेखिका को किताब पढ़ने, अखबार पढ़ने और लिखने के कार्य में आनंद आने लगा। वह निरंतर लेखन कार्य करती रही। तातुश के जोर देने पर उसने उत्साह के साथ अपने जीवन की घटनाओं को कागज पर उतारना शुरू कर दिया। घर की व्यस्त दिनचर्या के बीच लेखिका ने अपना लेखन जारी रखा। कोलकाता और दिल्ली के तातुश के दोस्त भी लगातार लेखिका का उत्साह बढ़ाते रहे। कोलकाता के मित्र ने लेखिका को आशापूर्णा देवी का उदाहरण देकर बताया कि वह भी कितने व्यस्त कामों के बीच लिखने के लिए समय निकालती थी। इससे लेखिका का हौसला बढ़ा। लेखिका उन्हें जेठू कहकर संबोधित करने लगी थी। कोलकाता की एक अध्यापिका शर्मिला भी लेखिका का उत्साह बढ़ाती थी।

इसी बीच एक दिन अचानक लेखिका के बाबा उससे मिलने आ पहुँचे। उनके आने से उसे पता चला कि  उसकी माँ का स्वर्गवास हो गया है। उसके भाइयों को पता था मगर उन्होंने बताया नहीं। लेखिका अपनी माँ को याद करके रोती रही। बाद में समय ने सब ठीक कर दिया।

लेखिका का कोलकाता और दिल्ली के मित्रों से पत्र-व्यवहार शुरू हो चुका था। लेखिका की रचना उन सभी को बहुत अच्छी लगती थी। आखिर वह दिन भी आ गया जब लेखिका की लेखन-कला को पत्रिका में जगह मिली। लेखिका को पत्रिका मिली तो उसमें उसकी रचना छपी थी। शीर्षक था-आलो-आँधारि, बेबी हालदार! लेखिका इतनी प्रसन्न थी कि सारा काम-धाम छोड़कर सबको अपनी रचना दिखाती घूम रही थी। तातुश के प्रति उसका मन कृतज्ञता से भर आया। उसने तातुश के पैर छुए, उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।

 

 

 

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