जीवन में आगे बढ़ो
जीवन में आगे बढ़ो
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
इन झाड़ियों में भँवरे,
तू क्यों भटक रहा है?
सूखी कटीली डालों में,
तू क्यों लटक रहा है?
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
फिर तो नहीं खिलेंगी
मुरझा गई कली जो,
किस आस से तू इनमें,
सिर अब पटक रहा है?
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
खुशहाल थी ये बगिया,
देखे तूने जहाँ गुल,
पर्दा जुदाई का अब,
इन पर लटक रहा है।
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
ऐसा फिरा है पानी,
सब ढल गई जवानी,
अब वह न रंग न रूप
इन पर चटक रहा है,
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
समझा जिसे था तूने,
प्यारा वह एक सहारा,
उस ही हवा का झोंका,
अब तुझको झटक रहा है।
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
कुछ तो सोच जरा तू ,
पागल क्यों बन रहा है?
चितवन पर किसकी तू
अब तक भटक रहा है।
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
काँटों से इनके बिंधकर,
लहू-लुहान होकर,
मर जाएगा तू- एक दिन
मेरे दिल में ये खटक रहा है।
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
देर नहीं हुई है,
मौका पड़ा है आगे,
आगाज़ कर तू फिर से
यही जीत का घटक रहा है।
देखो दिन ढल रहा है,
आगे ही बढ़ रहा है।
Nice
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Sir ye appne likha hai
ReplyDeleteAnd nice poem