अक से शुरू होने वाले शब्द

 अकंप-Akamp-वि० [सं० न०व० [भाव अकंपत्व जिसमें कंपन न हो। स्थिर।

अकंपन-Akampan-पुं० [सं० न० त०] १. कंपन का अभाव। २. [न० ब०] रावण की सेना का एक राक्षस ।

अकंपित-Akampit-भू० कृ० [सं० न० त०] जिसमें कंपन न हुआ हो । पुं० वौद्ध-गणाधिपों का एक भेद या वर्ग।

अकंप्य-Akampya-वि० [सं० न० त०] जिसे पाया न जा सके। अटल।

अक-Ak-पुं० [सं० अ-नहीं-क-सुख, न० त०] १. सुख का अभाव । २. सुख का विरोधी भाव। कष्ट, दु:ख, विपत्ति आदि। पुं० [सं० अघ] पाप। उदा०–बरबस करत विरोध हठि, होन चहत अक-हीन।-तुलसी। पुं०-आक (मदार)।

अकच-Akach-वि० [न० व०] जिसके सिर पर कच या बाल न हों। गंजा। पुं० केतु ग्रह का एक नाम ।

अकचकाना-Akchakana-अ० [सं० चकित] आश्चर्य में आना। चकित होना।

अकच्छ-Akaccha-वि० सं० अ-रहित--कच्छ वा कक्ष काछा या घोती] १. जिसके शरीर पर कपड़ा न हो। नंगा। २. दुराचारी। लंपट।

अकाटक-Akaatak-वि० [न० त०] १. जो कटु अथवा कड़वा न हो। २. जो थका न हो। अक्लांत । ३. जो जल्दी थके न

अकड़-Akada-स्त्री० [सं० आ अच्छी तरह + कड्ड=कड़ा होना] १. अकड़ने अथवा ऐंठने की क्रिया या भाव। तनाव। ऐंठ। २. अभिमान ।  शेखी। ३. धृष्टता । ढिठाई। .

अकड़ना-Akadana-अ० [हिं० अकड़-ना प्रत्य०] १. कड़े होने या सूखने के कारण खिंचना या तनना। ऐंठना। २. अभिमान या घमंड दिखाना। इतराना। ३. अभिमान, मूर्खता आदि के कारण दुराग्रह या धृष्टता. करना। ४. सरदी के कारण ठिठुरना' या स्तब्ध होना।

अकड़-फों-Akadafo-पुं० [हिं० अकड़-+फों (अनु०)] बहुत ही अभिमान भरा आचरण और व्यवहार।।

अकड़वाई-Akadawai-स्त्री० [सं० कड्ड-कड़ापन+हिं० वाई-वात] एक वात रोग जिसमें नसें तन जाती है और शरीर में पीड़ा होने लगती है।

अकड़बाज-Akadabaaj-वि० [हिं० अकड़-फा० वाज] १. अकड़ अथवा ऐंठ दिखलानेवाला। घमंडी। २. लड़ाका । पुं० वह जो अनुचित हठ या अभिमान करता हो। शेखीबाज ।

अकड़बाजी-Akadabaaji-स्त्री० [हिं० अकड़+फा बाजी] अकड़ने, ऐंठने या अभिमान दिखाने का भाव । शखी।

अकड़म-Akadam-पुं० सं० अकड म+अच] एक प्रकार का तांत्रिक चक्र।

अकड़ा-Akada-पुं० [सं० कड्ड कड़ापन] चौपायों को होनेवाला छत का एक रोग।

अकड़ाव-Akadaaw-पुं० [हिं० अकड़ अकड़ने की क्रिया या भाव । ऐंठन । तनाव !

अकड़ -Akad-पुं०=अकड़बाज ।

अकड़ैत-Akdait-वि० अकड़बाज

अकत-Akat--वि० [सं० अक्षत] १. पूरा। समूचा। २. बिलकुल। सब। क्रि० वि० एकदम से। बिलकुल। अकत्य-Akatya- वि०-अकथ्य।

अकब-Akab-वि० [सं० अय्य] १. जो कहा न जा सके। २. जो कहे जाने के योग्य न हो। ३. जिसका वर्णन करना बहुत कठिन या असंभव हो।

अकथनीय-Akathaneeya-वि० [सं० न० त०] १. जो कहा न जा सके। २. जिसका वर्णन न हो सके।

अकथह-Akathah-पुं० [सं० अ क य ह+अच्] दे॰ 'अकड़म'

अकथित-Akathit-भू० कृ० [सं० न० त०] १. जो कहा न गया हो। अनुक्त । २. गौण (कर्म)।

अकथ्य -वि० [सं० न० त०] १. जो कहे जाने के योग्य न हो। २. दे० 'अकथनीय'

अकबक-Akbak-पुं० [अनु०] १. आगा-पीछा। सोच-विचार। २. आशंका। डर। भय । ३. शक ! संदेह ।। अकनना-Aknna--स० [सं० आकर्णन-मुनना] १. सुनना। २. ध्यान लगा कर सुनना। ३. कान लगाकर या चोरी से सुनना। ४. आहट या थाह लेना। उदा०-अवनिय अकनि राम पग धारे।---तुलसी।

अकना-Akna-अ० [सं० आकुल] १. उकताना ! ऊबना। २. घबराना। पुं० ज्वार की ऐसी वाल जिसके दाने निकाल लिये गये हों।

अकनिष्ठ-Akanishth-वि० [सं० न० त०] १. जो कनिष्ठ या छोटा न हो। २. सब से छोटा। पुं० १. गौतम बुद्ध । २. बौद्ध देवताओं का एक वर्ग।

अकबक-Akabak-पुं० [हिं० अक (बक का अनु०) ---वकना का वक] १. इधर-उधर की और निरर्थक बात । संबद्ध प्रलाप । २. घबराहट या विकलता की ऐसी स्थिति जिसमें मनुप्य उक्त प्रकार की असंबद्ध बातें करता है। वि० मंसंबद्ध। वे-सिर-पैर का। उदा०--अकवक बोलत बैन कहाँ हम तुम्हें विकहें।--रत्नाकर।

अकबकाना-Akbakana-अ० [हिं० अकवक] १. अकबक या व्यर्य की बातें करना । २. चकित या भौचक्का होना। ३. घबराना। .

अकबर-Akbar-वि० [अ०] बहुत बड़ा । महान् । पुं० प्रसिद्ध मुगल सम्राट् जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर का संक्षिप्त नाम ! (सन् १५४२-~~-१६०५)

अकबरी-Akbari-वि० [अ०] अकबर नामक मुगल बादशाह से संबंध रखने वाला। जैसे--अकबरी अशरफी !स्त्री. १. एक प्रकार की मिठाई। २. लकड़ी पर की जानेवाली एक प्रकार की नकाशी।

अकबाल-Akbal-पुं० दे० 'इकबाल'

अकर-Akar-वि० [सं० न० त०] १. जो करने योग्य न हो। अनुचित । बुरा। २. जो कुछ न कर रहा हो। अक्रिय । निस्क्रिय । ३. जिसके कर (हाय) न हों। बिना हाथोंवाला। कर-विहीन। ४. जिसपर कर (शुल्क) न लगता हो या न लगा हो। कर-रहित ।

अकरकरा-Akarrara-पुं० [अ० अकराह :, सं० आकरकरम] उत्तरी अफ्रीका का एक पौधा जिसकी जड़ दवा के काम आती है।

अकरखना-Akarkhana-स० [सं० आकर्षण] १. आकृष्ट करना। खींचना। २. तानना। ३. चढ़ाना (धनुष पर तीर)। अकरण - वि० [सं० न० ब०] करण या इंद्रियों से रहित । पुं० ईश्वर या परमात्मा का एका नाम । वि० १. (कार्य) जो किये जाने के योग्य न हो। २. मनुचित । बुरा । ३. कठिन । दुष्कर।। पुं० [सं० न० त०] १. कुछ भी न करने की क्रिया या भाव। २. जो काम किया जाना चाहिए, वह न करना। कर्तव्य कर्म न करना। (ओमिशन) ३. किसी किये हुए काम को ऐसा रूप देना कि वहन किये हुए के समान हो जाय।

अकरणीय-Akaraneeya-वि० [सं० न० त०] (काम) जो किए जाने के योग्य न हो। अनुचित । बुरा।

अकरन-Akaran-वि० अकारण उदा-कर-कुठार मैं अकरन कोही।-तुलसी। वि० [सं० अकरण] १.न किये जाने के योग्य । अकरणीय । उदा०-रीती भरे, भरी ढरकावे अकरन' करन करे। सूर। २. अनुचित । निन्दनीय । बुरा । ३. कठिन । दुष्कर।

अकरनीय-Akaraneey-वि०-अकरणीय ।

अकरव-Akarav-मुं: [अ०] १. बिच्छू। २. वृश्चिक राशि। ३. वह घोड़ा जिसके मुंह पर के सफेद रोगों के बीच में दूसरे रंग के रोएँ हों। (ऐसा घोड़ा दोषयुक्त या खराब माना जाता है।)

अकरा-Akra-वि० [सं० अक्रय्य] १. जो महंगा अथवा यचिका मूल्य का होने से मोल लेने योग्य न हो। कीमती। २. अधिक मूल्य  का। महँगा। ३. अच्छा । बढ़िया । श्रेष्ठ। स्त्री० [सं०] आमलकी। आंवला। अकराथ-Akarath-वि०-अकारथ।

अकराम-Akraam-पुं० [अ० करम ( मा) का बहु०] कृपा । अनुग्रह । . पद-इनाम-अफराम पारितोषिक और अनेक प्रकार के अनुग्रह।

अकरार-Akrar-पुं० [हिं० अ+अ० करार=निश्चय, स्थिरता आदि] १. निश्चय या स्थिरता का अभाव। वि० जिसका कोई निश्चित रूप या मर्यादा न हो। अनिश्चित या अ-स्थिर। पुं० १. दे० 'इकरार। २. दे० 'करार।

अकराल-Akraal-वि० [सं० न० त०] १. जो कराल या भयंकर न हो। सौम्य । २. सुंदर। विo=कराल (भीषण)। अकरावना-वि० [?] १. डरावना। भयानक । २. मन में घृणा उत्पन्न करनेवाला।

अकरास-Akraas-पुं० [सं० अकर?] १. आलस्य। सुस्ती। २. अंगड़ाई।

अकराता-Akraata-वि० स्त्री० [हिं० अकरात) जिसे गर्भ हो। गर्भवती।

अकरी-Akri-स्त्री० [सं० आ = अच्छी तरह+किरण बिखराना] १. बीज बोने के लिए लकड़ी का एक प्रकार का चोंगा जो हल में लगा रहता है। २. एक प्रकार का क्षुप या पौधा। वि०-अक्रिय।

अकरुण---वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें करुणा या दया न हो। करुणा रहित । २. निर्दय। निष्ठुर। अकरूर-पुं० अक्रूर।

अकर्ण-Akarna-वि० [सं० न० ब०] १. जिसके कान न हों। बिना कानोंवाला। २. जिसके कान छोटे हों। ३. बहरा। ४. (नाव) जिसमें पतवार न हो। पुं० साँप।

अकर्तव्य-Akartvaya-वि० [सं० न० त०] (काम) जो करने योग्य न हो। अनुचित । बुरा। पुं० वह कार्य जिसे करना उचित न हो। अनुचित काम।

अकर्ता (तू)-वि० [सं० न० त०] १. जो कर्ता (करनेवाला) न हो। २. जो किसी काम में लगा न हो। सब कर्मों से अलग और आलिप्त। जैसे--सांख्य में पुरुष अकर्ता माना गया है।

अकर्तृक-Akritak-वि० [सं० न० ब०, कम्] १. जिसका कोई कर्ता या रचयिता न हो। कर्ताविहीन । २. जो (किसी का) किया हुआ न हो।

अकर्तृत्व-Akrititva-पुं० [सं० न० त०] १. अकर्ता होने की अवस्था या भाव । २. कर्तृत्व (या उसके अभिमान) का अभाव।

अकर्म-Akarma- (मन्)--पुं० [सं० न० त०] १. कर्म का अभाव । काम न करने का भाव । २. कर्म या कार्य का न होना । ३. न करने योग्य काम । अनुचित या बुरा काम।

अकर्मक-क्रिया-Akarmak kriya-स्त्री० [सं० अकर्मक, न० ब०, कम् अकर्मिका-क्रिया, कमं० स०] व्याकरण में, क्रिया के दो मुख्य भेदों में से एक, जिसके साथ कोई कर्म नहीं होता अथवा जिसमें कर्म की अपेक्षा नहीं होती। (इन्ट्राजिटिव वर्व) जैसे-दौड़ना, भटकना, सोना जादि।

अकर्मण्य-Akarmanya-वि० [सं० कर्मन्- यत्, न त०] [भाव० अकर्मण्यता] १. (व्यक्ति) जो कोई काम ठीक तरह से न कर सकता हो। निकम्मा। २. (पदार्य) जो किसी काम का या उपयोगी न हो। व्यर्थ ।

अकर्मण्यता- Akarmanyata-स्त्री० [सं० अकर्मण्य+तल्-टाप्] अकर्मण्य होने की अवस्था या भाव। अकर्मा (मन्)-Akarma-वि० [सं० न० व०] १. दे० 'अकर्ता । २. दे० 'अकर्मण्य'

अकर्मी (मिन्)-Akarmi-पुं० [सं० कर्मन् + इन्, न० त०] [स्त्री० अकर्मिणी १. अकर्म या बुरा कर्म करनेवाला । पापी। २. अपराधी। दोषी।

अकर्षण-Akarshan-पुं०=आकर्षण। ।

अकलंक-Akalank-वि० [सं० न० व०] भाव० अकलंकता) १. जिसमें कलंक अथवा दोष न हो। कलंक-रहित । २. सब तरह से निर्मल। पुं० एक प्रकार के जैन। पुं० दे० 'कलंक'

अकलंकता-Akalankata-स्त्री० [सं० अकलंक+तल-टाप] कलंक अथवा दोष से युक्त न होने का भाव ! निर्दोंषता ।

अकलंकित-Akalankit-वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कोई कलंक न लगा हो। २. निर्दोष और शुद्ध।

अकलंकी (किन्)-Akalnki--वि० [सं० न० त०] जिसमें कोई कलंक या दोष न हो। निष्कलंक। वि० दे० 'कलंकी'

अकल-Akal-वि० [सं० न० व०] १. जिसमें कल (अवयव या अंग) न हों। २. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हों। पूरा । समूचा । ३. उक्त कारणों से परमात्मा का एक विशेषण। ३. जिसमें कोई कला या विशेषता न हो। ५. बेचैन । विकल। व्याकुल । स्त्री०=अक्ल (बुद्धि)।

अकल-खुरा-Akalkhura-वि० [हिं० अकेला+फा० खोर] अकेला खानेवाला अर्थात् स्वार्थी या मतलबी । जैसे---अकल खुरा, जग से चुरा ।-कहा।

अकलवीर-Akalweer-पुं० [सं० करवीर?] एक पौधा जिसकी जड़ रेशम रंगने के काम आती है।

अकला-Akala-वि०=अकेला। 

अकलीम-स्त्री० [अ० इकलीम] १. ऊपर के लोकों में से सातवां लोक। २. सातों लोक। उदा०-औ सातू अकलीम में चावोगढ़ चीतौड़।-- बाँकीदास । ३. राज्य । ४. देश। प्रान्त । 

अकलुष-Akalush-वि० [सं० न० त०] १. जिसमें कलुष न हो। कलुष से रहित । २. पवित्र। शुद्ध। ३. निर्मल। साफ।

अकल्प-Akalp--वि० [सं० न०व०] १. नियंत्रण या नियम को माननेवाला । २. जिसमें क्षमता न हो। अक्षम । ३. कमजोर। दुर्बल । ४. अतुलनीय ।

अकल्पित-Akalpit-वि० [सं० न० त०] १. जिसकी कल्पना न की जा सके। कल्पना से बाहर। २. जो कल्पित अथवा मन-गढ़त न हो, बल्कि . जिसका कुछ आधार हो । वास्तविक । ३. पहले से जिसकी कल्पना या अनुमान न किया गया हो। अतर्कित।

अकल्मष-Akalmash--वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें कोई कल्मष न हो, निर्दोष । २. पवित्र । शुद्ध। पुं० कल्मष (दोष आदि) का अभाव।

अकल्याण-Akalyan-पुं० [सं० न० त०] १. कल्याण का अभाव। अशुभ या अमंगलजनक स्थिति । २. अहित। खराबी। हानि । वि० [सं० न० ब०] कल्याण-रहित ।

अकवन -Akavan- पुं० दे० 'मदार (पौधा)।

अकस-Akas-पुं० [सं० आकर्ष] १. किसी के प्रति मन में होनेवाला ऐसा दुर्भाव जो उसे अलग या दूर रहने की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। मन-मुटाव । २. बैर। शत्रुता। ३. ऐंठ। अकड़। पुं० [अ० अक्स, मि० सं० आकर्ष] १. छाया। परछाँहीं। २. प्रतिबिंब।

अकसना-Akasana-अ० [सं० आकर्ष, हिं० अकस] १. मन में दुर्भाव, द्वेष या बैर रखना। २. अकड़ या ऐंठ दिखाना। ३. विरोध, बैर या शत्रुता करना।

अकसर-Aksar-वि० [हिं० अकः एक---सर (प्रत्य॰)] जिसके साथ और कोई न हो। अकेला। उदा० कोन हेतु मन व्यग्र अति, अकसर आएहु नाथ।--तुलसी। कि० वि०बिना किसी को अपने साथ लिए। अकेले। अव्य० [अ० अक्सर बीच-बीच में। अधिक अवसरों पर। प्रायः।

अकसीर-Aksaeer-स्त्री० [अ० अक्सीर] वह रस या भस्म जो किसी निम्न कोटि की घातु को सोना या चाँदी के रूप में परिवर्तित कर दे। रसायन । वि० निश्चित रूप से अपना गुण, प्रभाव या फल दिखानेवाला । अचूक। अव्यर्थ।

अकास्मात्-Akasmaat-क्रि० वि० [सं० न - कस्मात, अलुक स०] १. एकदम से। अचानका। सहसा। २. दैव योग से और अन्तकित रूप में।

अकह-Akah-वि० १. दे० 'अकथ्य' । २. दे० 'अकथनीय'

अकहुआ-Akahua-वि० दे० 'अकयनीय'1०=आक (मदार) ।

अकांड-Akanda-वि० सं० न० ब०] १. (वृक्ष) जिसमें कांड या शाखाएँ न हो। शाखाओं से रहित (वृक्ष)। २. अचानक या असमय में होनेवाला। कि० वि० सं० न० त०] अचानक । सहसा। .

अकांड-तांडव-Akandtandav-पुं० [स० त०] बहुत ही छोटी बात को बहुत बढ़ाकर उसके संबध में व्यर्थ की जानेवाली उछल-कूद और हो-हल्ला।

अकाज-Akaj-पुं० [सं० अकार्य] १. खराब या बुरा काम। २. किसी काम में होनेवाली देर, बाधा या हानि। हरज'। कि० वि० बिना किसी फल या लाभ के। निष्प्रयोजन। व्यर्थ। उदा०--बीते जाये है, चौते जाये है, जनम अकाज रे। नानक । *

अकाजना-Akajana-अ० [हिं० अकाज] १. अकाज, हरज या हानि होना। २. निष्प्रयोजन या व्यर्थ हो जाना। किसी योग्य न रह जाना। उदाo-मानहुँ राज' अकाजेउ आजू।-तुलसी। स० अकाज (हरज या हानि) करना। अ० [हिं० काल] मर जाना।

अकाजी-Akaji-वि० [हिं० अकाज] स्त्री० अकाजिनी] १. जिसे कोई काम न हो।.२. अनाज या हरज करनेवाला। ३. कार्य में रोड़ा अटकाने वाला।

अकाट-Akat-वि० दे० 'अकाट्य'

अकाट्य-Akatya-वि० [हिं० अ-काटना, असिद्ध रूप] १. जो काटा न जा सके। २. तर्क, युक्ति आदि से जिसका खंडन न किया जा सके। जैसे-- अकाट्य प्रमाण।

अकाथ-Akaath-वि०=अकयनीय । कि० वि० [सं० अकृत] निष्फल। व्ययं। उदा.-कर्म धर्म तीरथ विनु राधन, खै गए सकल अकाथा।--सूर।

अकादमी-Akadami-स्त्री० [यू० एकडेमी] १. उच्च कोटि का विद्यालय। २. विद्वानों की वह संघटित संस्था जो किसी कला, विज्ञान, शास्त्र आदि की उन्नति, प्रचार और विवेचन के लिए बनी हो। (एकडेमी) जैसे साहित्य एकादमी, हिन्दुस्तानी एकादमी।

अकाम-Akaam-वि० [सं० न० ब०] जिसे किसी प्रकार की कामना या वासना न हो। निष्काम। *क्रि० वि० [हिं० मा काम] बिना किसी काम या प्रयोजन के । व्यर्य। पुं० अनुचित, बुरा या व्यर्थ का काम। अकामतः(तस्)-Akamat--क्रि० वि० [सं० अकाम---तस्] १. बिना किसी कामना के। २. बिना इच्छा या प्रयत्न के। अनजान में। यों ही।

अकामता-Akamata-स्त्री० [सं० अकाम-तल, टाम्] अकाम अथवा कामना से रहित होने का भाव।

अकामा-Akama-वि० [सं० न० ब०, टाम्] १. (किशोरी) जिसमें काम वासना अभी उत्पन्न न हुई हो। २. (स्त्री) जिसमें काम-वासना न रह गई हो।

अकामिक-Akaamik-वि० [सं० अकाम से] जिसके लिए कामना या चेष्टा न की गई हो। आप से आप हो जानेवाला। उदा---अति पुलकित तनु विहसि अकामिक विद्यापति ।

अकामी (मिन)-Akaami--वि० [सं० न० त०] १. जिसके मन में किसी प्रकार को कामना या वासना न हो। अकाम। २. जिसमें काम वासना न हो या न रह गई हो।

अकाय-Akaay-वि० [सं० न० ब०] १. जो बिना काया या शरीर के हो। काया-रहित । २. जिसका कोई आकार या रूप नहो। निराकार।

अकार-Akaar-पुं० [सं० अ-+कार] '' अक्षर और उसकी उच्चारण-ध्वनि । *पुं० दे० 'आकार। *पुं०=आकाश । उदा०दान मेरु बढि लाग अकारां-जायसी। '

अकारज-Akaaraj-पुं०-अकाज।

अकारण-Akaaran-वि० [सं० न०३०] १.जिसके मूल में कोई कारण न हो। जैसे--- अकारण वैमनस्य। २. जो आपसे आप उत्पन्न हुदा हो। स्वयंभू । कि० वि० बिना किसी कारण या वजह के। आप से आप। यों ही।

अकारय-Akaray-वि० [सं० अकार्याय] जिसका कोई अच्छा फल या परिणाम न हो। वे-फायदा। जैसे---सारा परिथम अकारथ गया। कि०वि०बिना किसी उपयोग या फल के। यों ही। व्यर्थ।।

अकारन-Akaran-दि-अकारण।

अकारांत-Akarant-वि० [सं० मकार-अंत, व० स०] जिसके अंत में हो।

अकारादि-Akaradi-वि० [सं० अकार-आदि, ३० स०] जिसके आदि या आरंभ में '' या अकार हो।

अकारिय-Akariy-वि० अकारथ । उदगार मुख्य वपु स्थान गिरन सम नत्य अकारिय। -चन्दवरदाई।

अकार्य-Akaryaवि० [सं० न० त०] १. (काम) जो किये जाने के योग्य न हो। अकर्तव्य । २. अनुचित । बुरा। ए-अकर्म।

अकाल-Akaal- पुं० [सं० न० त०] १. ऐसा काम या समय जो किसी विशिष्ट कार्य के लिए उपयुक्त न हो। कु-समय। २. ऐसा समय जिसमें अन्न वहुत कम ओर बहुत कठिनता से मिलता हो। दुर्भिक्ष । ३. किसी चीज को बहुत अधिक कमी या अभाव। जैसे--कपड़े या नमक का अकाल। वि० [सं० न० व०] १. जिसका काल न आ सके अथवा मृत्युन हो सके। अविनाशी। २. जो उचित या उपयुक्त समय पर न हो। असामयिक । जैसे---अकाल मृत्य, अकाल वृष्टि ।

अकाल-कुसुम--Akaal-kusum-पुं० [ष० त०] १. उपयुक्त अथवा नियत समय से बहुत पहले या पोछे किसी वृक्ष में लगनेवाला फूल जो उपद्रव, दुर्भिक्ष आदि का लक्षण माना जाता है। २. वह वस्तु जो अपने उपयुक्त समय से पहले या पीछे हो।

अकालज- Akaalja-पुं० [सं० अकाल/जन् (उत्पन्न होना)+] उचित समय से पहले या बाद (अकाल) में उत्पन्न होनेवाला।

अकाल-जलद- Akaaljalad-पुं० [ष० त०] वर्षा ऋतु से पहले या बाद (अकाल) में आनेवाला बादल।

अकाल-जात- Akaaljaat-वि० [स० त०] =अकालज !

अकाल-पक्य- Akaalpakya-वि० स० त०] उचित समय से पहले या पीछे अर्थात बिना मौसम के पकनेवाला (फल)। अकाल-पुरुष-पुं० [अकाल,न०व०, अकाल-पुरुष, कर्म० स०] परमेश्वर।

अकाल-प्रसव- Akaalprasav--[प० त०] स्त्री को निश्चित या ठीक समय से पहले या पोछे होनेवाला प्रसव ।

अकाल मृत्यु- Akaal mrityu-स्त्री० [स० त०] १. बुरे समय में होनेवाली मृत्यु । २. असामयिक मृत्यु । साधारणत: उचित या नियत समय से पहले होनेवाली मृत्यु।

अकाल-वृद्ध- Akaal vriddh-वि० [स० त०] जो उचित या नियत समय से पहले ही वृद्ध या बुड्ढा हो गया हो।

अकाल-वृष्टि- Akaal vrishti-स्त्री० [ष० त०] उचित या नियत समय से पहले या पोछे होनेवाली वर्षा।

अकालिक- Akaalik- वि० [सं० कालिक, काल+3न्, अकालिक, न० त०] अपने उचित या नियत समय से पहले या पीछे होनेवाला । असामयिक ।

अकाली-Akaali-पुं० [सं० अकाल--हिं० ई] १. सिक्खों का एक संप्रदाय विशेष । २. उक्त संप्रदाय का अनुयायी। वि० जिसका संबंध उक्त सम्प्रदाय से हो। अकावा-पुं० [सं० अर्की आक। मदार।

अकाश-दीप-Akashdeep-० [सं० आकाश-दीप] १. प्राचीन काल में नदी या समद्र के किनारे रात के समय ऊँचे बाँस में बाँधकर जलाया जानेवाला दीया जिसका उद्देश्य जल-पोतों का मार्गदर्शन करना होता था। २. बाँस में बाँधकर जलाया जानेवाला दीप।

अकास-Aakas- पुं०-आकाश।

अकासकृत-Akashkrit-पुं० [सं० आकाशकृत] बिजली ।

अदास-दीया-Akashdeeya-० अकाश-दीप।

अकास-नोम-Akasnom-पुं० [सं० आकाश निम्ब] एक प्रकार का पेड़।

अकासबानी-Akashbani-स्त्री०=आकाशवाणी।

अकासबेल-Akashbel-स्त्री० [सं० आकाशबेलि] अमर-बेल .

अकास बौर-Akashbour-पुं०-अकासबेल।

अकासी-Akashi-वि० [सं० आकाश] १. आकाश-सम्बन्धी। २. आकाश में रहने या उड़नेवाला। स्त्री. १. चील (पक्षी)। २. ताड़ का रस। ताड़ी।

अकिंचन-Akinchan-वि० सं० मयू० स०] १. जिसके पास कुछ भी न हो। दरिद्र। २. जो अपने सब कर्मों का भोग पूरा कर चुका हो। ३. दे० 'अपरिग्रहीं। पुं० १. वह जिसके पास अपने निर्वाह के लिए कुछ भी धन न हो। परम दरिद्र। (पॉपर) २. वह जैन साधु जो परिग्रह, धन, पत्नी, बच्चे और ममता से रहित हो चुका हो।

अकिंचनता-Akinchanta-स्त्री० [सं० अकिंचन--तल-बाप्] १. अकिंचन होने की अवस्था या भाव। २. परम दरिद्रता या निर्धनता। ३. परिग्रह और ममता का त्याग। (जैन)

अकिंचित्कर-Akinchitkar-वि० सं० किंचित कृ (करना)--ट, न० त०] १. जो कुछ न कर सके। अयोग्य । असमर्थ । २. तुच्छ । नगण्य। ३. जिसका कुछ भी फल न हो। व्यर्य का। निरर्थक।

अकि-Aki-अव्य० हिं० कि] किया/अथवा। उदा०--अगि जरों अकि पानि परों कैसि करों हिय का विधि घारौं। घनानंद।

अकित्ती -Akitti-स्त्री०=अकीत्ति।

अकिल-Akil-स्त्री० अक्ल ।

अकिलदाढ़-Akildadh-स्त्री० [हिं० अकिल-बुद्धि-दाढ़] वह दाढ़ अथवा दाँत जो मनुष्यों की युवावस्था में निकलता है और उनमें समझदारी आने का सूचक होता है।

अकीक-Akeek-पं० [अ० अकोका एक प्रकार का लाल पत्थर या रल।

अकीरति-Akiirati-स्त्री०=अर्कात्ति।

अकौति-Akouti-स्त्री० [सं० न० त०] बुरी कोर्ति । अपयश । निन्दा । बदनामी।

अकौतिकर- Akoutikar-वि० सं० अकीर्ति कृ (करना) +] (एसी बात) जिससे कीर्ति या यश घटे या बदनामी हो।

अकुंठ-Akunth-वि० [सं० न० ब०] १ जो कुंठित न हो। २ तीव्र । तेज। ३ तोखा। तीक्ष्ण १४ अच्छा । बढ़िया । ५. खुला हुआ। ६. स्थिर। ७. जो विघ्न-बाधाओं के सामने न झुकता हो।

अकुंठित-Akunthit-वि० सं० न० त०] दे॰ 'अकुंठ'

अकुटिल-Akutil-वि० [सं० न० त०] [भाव० अकुटिलता] १. जो टेढ़ा न हो। सोचा। २. जिसमें घुमाव न हो। ३. जिसमें कपट न हो। निष्कपट । भोला। सोचा।

अकुताना-Akutaana-अ०-उकलाना।

अकुल-Akul-वि० [सं० न०व०] १. जिसका कोई कुल या वंश न । २.जिसके कुल में कोई न रह गया हो। ३. निम्न या तुच्छ वंश का ।

अकुलीन-Akuleen- पुं० १. [सं० न० त०] दुरा, तुच्छ या नीच कुल । २. [सं० न०५०] शिव का एक नाम।

अकुलाना-Akulaana-अ० [सं० आकुलन] १. बाकुल होना। घबराना। २. 'जल्दी मचाना। ३. ऊबना। उकताना।

अकुलाहट-Akulahat-स्त्री० [हिं० अकुलाना] आकुल या विकल होने की अवस्था या भाव।

अकुलिनी -Akulini-वि० [सं० अकुलीना जो उत्तम कुल को न हो। जो निम्न कुल की हो। स्त्री० व्यभिचारिणी स्त्री।

अकुलीन-Akuleen-वि० [सं० न० त०] १. जो किसी उच्च कुल या परिवार का न हो। निम्न या नोच वंश का। २. पृथ्वी से संबंध न रखनेवाला। अपार्थिव।

अकुशल-Akunshal-वि० [सं० न० त०] १. जो कुशल न हो। २. गुणहीन । ३, आलसी। ४. अशुभ। पुं० १. अमंगल । बुराई । २. अशुभ या बुरा शब्द ।

अकूट-Akut-वि० सं० न० ब०] १. जिसमें कपट या छल न हो। २. जो अच्छे कुल या नसल का हो। ३. जो वास्तविक और विशुद्ध हो। (जेनुइन)।

अकूत-Akoot-वि० [सं० अ-हिं० कूतना] १. जो कूता न जा सके। जिसका अनुमान न हो सके। २. जो मात्रा में अत्यधिक हो। क्रि० वि० अकस्मात । अचानक ।

अकूपार-Akoopaar-पुं० [सं० कूप/(गति)--अग्, न० त०] १. समुद्र। सागर। २. कच्छप। कछुआ। ३. वह महाकच्छप जिसपर पृथ्वी आश्रित मानी जाती है। ४. बड़ा और भारी पत्थर। चट्टान । ५. सूर्य । वि०१. जिसका परिणाम अच्छा हो। २. अपार। असीम।

अकूर-Akoor-पुं०=अंकुर।

अकूल-Akool-वि० [सं० २०१०] १. जिसका कूल या किनारा न हो। कूल रहित । २. जिसकी कोई सीमा न हो। सीमा-रहित । अहल-विकाहि अवत? यहा। अधिक। अकृच्छ-पुं० [सं० न० त०] १. क्लेश का अभाव। २. सुगमता। आसानी। वि० [न० ब०] १. कष्ट, दुःख आदि से रहित। २. सुगम । सहज। अकृत---वि० सं०/कृ (करना)--क्त, न० त०] १. जो किया न गया हो। (अनडन) २. जो ठीक प्रकार से न किया गया हो। ३. जो किसी का बनाया न हो। स्वयंभू । ४. प्राकृतिक । ५. निकम्मा । व्यर्थ  का। ६. जो अभी ठोक या पूरा न हुआ हो। ७. जिसका पूरा विकास न हुआ हो। पुं० १. अधूरा काम ! २. कारण। ३. मोक्ष। ४. स्वभाव।

अकृत-कार्य-Akritkarya-वि० [सं० न० २०] जिसे अपने कार्य में सफलता न हुई हो। विफल-मनोरय।

अकृतज्ञ-Akritgya-वि० [सं० न० त०] [भाव' अकृतज्ञता] जो कृतज्ञ न हो। उपकार न माननेवाला।

अकृतजला-Akritjala-स्त्री० [सं० अकृतज्ञतल-टा] अकृतज्ञ होने की अवस्था या भाव।

अकृता-Akrita-स्त्री० [सं०कृ (करना)--क्त-टाप्, न० त०] ऐसी कन्या जिसे पिता ने पुत्रिका न बनाया हो। वि० दे० 'पुत्रिका

अकृतात्मा-Akritatma- (त्मन्)---वि० [सं० न-कृत-आत्मन्, न० ब०] १ अज्ञानी । २ (साधक) जिसे ईश्वर के दर्शन न हुए हों।

अकृति-Akriti-वि०-कृती।

अकृती-Akritii- (तिन्)---वि० [सं० न० त०] १. काम न करने योग्य । निकम्मा। २. जो दक्ष या पटु न हो । अनाड़ी । ३. जिसने कुछ भी न किया हो।

अकृत्य-Akritya-वि० [सं० न० त०] जो करने को योग्य न हो। पुं० दुष्कर्म । बुरा काम।

अकृत्यकारी-Akrityakaaree- (रिन्)---वि० [सं० अकृत्य/कृ--णिनि] बुरे काम करने वाला । कुकर्मी।

अकृत्रिम-Akritim-वि० [सं० न० त०] १ जो कृत्रिम या बनावटी न हो। असली। सच्चा। २. स्वाभाविक। ३. जिसमें छल-कपट या दिखावट नहो। जैसे--अकृत्रिम प्रेम।

अकृत्स्न-Akritsn-वि० [सं० न० त०] जो पूरा न हुआ हो। अधूरा या अपूर्ण ।

अकृपा-Akripa-स्त्री० [सं० न० त०] कृपा या अनुग्रह का न होना।

अकृषिक-Akrishik-वि० [सं० न० ब०, कम् ?] जिसका संबंध कृपि या खेती से न हो। (नॉन-एग्निकल्चरल)

अकृषित-Akrishit-वि० [सं० अकृष्ट] (खेत) जो जीता-बोया न गया हो। (नॉन-कल्टिवेटेड)

अकृष्ट-Akrisht-वि० [सं० कृप। क्त, न० त०] १. जो खोंचा या खिंचा हुआ न हो। २. दे० 'अकृपित'

अकृष्ण-Akrishn-वि० सं० २० त०] १. जो कृष्ण या श्याम न हो। उज्ज्वल । २. निर्मल 1 शुद्ध।

अकेतन-Aketan-वि० [स० ० ०] १. जिसका कोई ठिकाना या घर-बार न हो। २. जिसका घर नष्ट हो चुका हो। गृह-हीन।

अकेल-Akel-वि० अकेला। ।

अकेला-Akela-वि० [सं० एकाकिन्, गु० एकल एकल, रा० एकला, पं० इपाल्ला] १. जिसके साथ और कोई न हो। २. जिसे किसी का सहयोग या सहायता न प्राप्त होती हो। ३. जो ढंग, गुण, विशेषता आदि के विचार से सब से भिन्न हो। ४. जो वर्ग विशेष में सब से उत्तम हो। सर्वश्रेष्ठ। ५. बेजोड़। ६. खाली (मकान)। पुं० एकान्त या निर्जन स्थान। यौ० अकेला-दम-एक ही प्राणी। अकेला-दूकेला-जो या तो अकेला हो या जिसके साथ एकाध कोई और हो।

अकेले-Akele-क्रि० वि० [हिं० अकेला] १. बिना किसी साथी के। २. केवल । सिर्फ।

अकेहरा-Akehara-वि०=एकहरा।

अकैया-Akaiya-पुं० [सं० अक्ष-संग्रह करना लादने के लिए सामान भरने का थैला या गोन।

अकोट-Akot-वि० [सं० कोटि] करोड़ों । अगणित ।

अकोलर सौ-Akolar sou-वि० [सं० एकोत्तरशत] सौ से एक अधिक । एक सौ एक।

अकोर-Akor-पुं० [सं० उत्कोच ?] १. घूस । रिश्वत । २. भेंट। उपहार। ० दे० 'ॲकोर।

अकोला-Akola-पुं० [सं० अकोल] अंकोल वृक्ष। .

अकोविद-Akovid-वि० [सं० न० त०] १. जो कोविद या जानकार न हो। २. मूर्ख

अकोसना-Akosana-म० सिं० माकोशन] कोसना।

अकौआ-Akoua-पुं० [सं० अर्क] १. आक। मदार। २. गले के अन्दर का कौआ या घंटी। ललरी। -आक (मदार)।

अकोटा-Akota-पुं० [सं० अक्ष=धुरा--अटन धूमना] गड़ारी का डंडा। धुरा ! सीता-पुं० दे० 'उकवत'

अकोशल-Akoshal-पुं० [सं० न० त०] कौशल का अभाव। अयोग्यता।

अक्क-Akk-पुं०आक (मदार)।

अक्कड़-Akkad-पुं० [शामी] १. प्राचीन मैसोपोटामिया देश की एक प्रसिद्ध नगरी। २. उसके आस-पास का प्राचीन प्रदेश।  

अक्कड़ी-Akkadi-वि० [शामी अक्कड़] १. अक्कड़ नगरी से संबंध रखनेवाला। . २. अक्कड़ नगर या प्रदेश का रहनेवाला। स्त्री० उक्त प्रदेश को पुरानी भाषा।

अक्का-Akka-स्त्री० [सं०/अक् (टेडो चाल)+कल्, टाप] माता। माँ।

अक्खड़-Akkhad-वि० [सं० अलर टलनेवाला, प्रा० अक्खड़] [भाष० अक्खड़पन] न मुड़नेवाला। शिष्टता और सोजन्य का ध्यान छोड़कर, मनमावा और अनियंत्रित आचरण करनेवाला। उद्धत ओर उदंड। अक्खड़ता- Akkhadtaa-स्त्रो० 'अक्खड़-पन' के लिए भूल से प्रचलित असिद्ध रूप।

अक्खड़-पन- Akkhadpan-पुं० [हिं० अक्खड़न-पन] अक्खड़ होने की अवस्था या भाव।

अक्खर - Akkhar-मुंo अक्षर।

अक्खा- Akkha-पुं० दे० 'अकैया ।

अक्खो-मक्खो-Akkho-makkho-० [सं० अक्ष- मुख] (नजर से बचाने के लिए) दीपक को लौ तक हाथ ले जाकर बच्चे के मुँह पर 'अक्खो-मक्खो' कहते हुए फेरना।

अक्त-Akta-वि० सं० अंज् (मिलना, गति आदि)+क्त] १. जो किसी में मिला, साथ लगा या चिपका हो। २. पोता या रँगा हुआ।

अक्तूबर-Aktubar-पुं० [सं०] अंगरेजी साल का दसवाँ महीना।

अक्रम-Akram-वि० [सं० न० ०] १. जो क्रम से न हो। २. जिसे क्रम से न रखा गया हो। पुं० १. क्रम या सिलसिले का अभाव । क्रम-हीनता। २. अव्यवस्था। अक्रम (या दुष्कर्म)।

अक्रम-संन्यास-Akram sanyas--० [सं० कर्म० स० बीच के आश्रमों का अतिक्रमण करके धारण किया जानेवाला संन्यास।

अक्रमातिशयोक्ति-Akramatishyaokti-स्त्री० [सं० अक्रम-अतिशयोक्ति, कर्म० स०] साहित्य में अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें कारण के आरंभ होते ही कार्य के पूरा हो जाने का उल्लेख होता है।

अक्रांत-Akrant-वि० सं०म० त०] १. जिसके आगे और कोई न निकला हो। सब से आगे बढ़ा हुआ। २. जो दबाया या हराया न गया हो।

अक्रांता-Akraanta-बो० [सं० अमांत-टाम्] बृहती नामक पौधा। भटकटैया।

अक्रित -Akrit-वि० दे० 'अकृत'

अक्रिय-Akriya-वि० [सं० न००] १. जो कुछ भी न कर रहा हो। क्रियाहीन । २. जो अभी अपना प्रभाव या फल न दिखा रहा हो। ३. सब प्रकार की चेष्टाओं से रहित । जड़।

अक्रिया-Akriya-स्त्री० [सं० न० त०] अक्रिय होने की अवस्था या भाव। क्रियाहीनता।

अक्रियावाद-Akriyawaad-पुं० [सं० क्रियावाद, प० त०, अक्रियावाद, १० त०] बौद्ध दर्शन का एक सिद्धान्त जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्य की क्रियाओं का कोई अच्छा या बुरा फल नहीं होता।

अक्री-Akri--वि०=अक्रिय।

अक्रूर-Akroor-वि० [सं० न० त०] जो क्रूर या निर्दय न हो। दयालु स्वभाववाला। पुं० एक यादव जो श्रीकृष्ण के चाचा थे।

अक्ल-Akl-स्त्री० [अ०] बुद्धि। समझ। मुहा०-~-अक्ल के घोड़े दौड़ाना अनेक प्रकार की बौद्धिक कल्पनाएँ करना। (व्यंग्य) अक्ल के पीछे लट्ठ लिये फिरना हर समय मूर्खता के काम करते रहना। अक्ल गुम होना=बुद्धि का सहसा अभाव हो जाना। अक्ल चकराना-इतना चकित होना कि बुद्धि कुछ काम न करे। अक्ल चरने जाना-बुद्धि या समझदारी का अभाव होना । अक्ल ठिकाने होना हानि आदि होने पर मूर्खता दूर होना। अक्ल दौड़ाना या लड़ाना-सोचने-समझने का प्रयत्न करना। अक्ल पर पत्यर (या परदा) पड़ना सहसा ऐसो स्थिति होना कि बुद्धि कुछ भी काम न करे। अक्ल मारी जाना-बुद्धि नष्ट होना। हतबुद्धि होना। अक्ल सठियाना-बुद्धि भ्रष्ट होना। पद--अक्ल का दुश्मन-मूर्ख। बेवकूफ। अक्ल का पुतला=बहुत बुद्धिमान् । अक्ल का पूरा-मूर्ख,जड़। (व्यंग्य) अक्ल का मारा=मूर्ख।

अक्लमंद-Aklamand-पुं० [अ०+फा०] बुद्धिमान् । समझदार।

अक्लमंदी- Aklamandi-स्त्री० [अ०-फा०] बुद्धिमत्ता। समझदारी।

अक्लम-Aklam-पुं० [सं० न० त०] क्लांति या थकावट का अभाव। वि० [न०व० न थकनेवाला।

अक्षंतव्य-Akshantavya-वि० [सं०/भम्। तव्यत्, न० त०] =अक्षम्य।

अक्ष-Aksha-पुं० [सं० /मक्ष् (व्याप्ति)- अच् या घञ्] १. खेलने का पासा । २. चौसर नामक खेल। ३. वह कल्पित रेखा जिसके आधार पर बस्तुएँ परिभ्रमण अथवा अपने सब कार्यों का संचालन करती हुई मानी जाती है। जैसे--पृथ्वी के दोनों धुरों को मिलानेवाली कल्पित सीधी रेखा, जिसपर पृथ्वो घूमती हुई मानी जाती है। ४. किसी चीज का धुरा या धुरी। जैसे--गाड़ी का अक्ष। (एक्सिल , उक्त दोनों अर्थो में)। ५. गाड़ी। ६. अक्षांश के विचार से भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण में किसी स्थान का गोलीय अंतर । ७. तराजू को डंडी। ८. व्यवहार। लेन-देन । २. मुकदमा। १०. कानून। ११. इंद्रिय । १२. तूतिया। १३. सांभर नमक । १४. सुहागा। १५. आँख। नेत्र। १६. बहेड़ा। १७. रुद्राक्ष। १८. साँप। १९. गरुड़। २०. आत्मा। २१. कर्ष नामक तोल जो १६ माशे को होती है। २२. दे० 'अक्षकुमार।

अक्षक-Akshak-पुं० [सं० अक्ष/कै+क] तिनिश का पेड़।।

अक्ष-कर्ण-Akshakarn-पुं० [कर्म० त०] समकोण त्रिभुज की सबसे लंबी भुजा। (ज्यामिति)

अक्ष-कुमार-Akshakumar-पुं० [मयू० स०] रावण का एक पुत्र ।

अक्षकूट-Akshakoot-पुं० [प० त०] आँख की पुतली ।

अक्ष-क्रीड़ा-Akshakreeda-स्त्री० [प० त०] पासे या चौसर का खेल।

अक्षज-Akshaja-वि० [सं० अक्ष जन् (उत्पन्न होना)---ड] अक्ष से उत्पन्न या बना हुआ। पुं०१. विष्णु । २. हीरा। ३. वन। ४. प्रत्यक्ष ज्ञान।

अक्षत-Akshat-वि० [सं०/क्षण (हिंसा)-पत, न० त०] १. जो क्षत' या टूटा-फूटा न हो अर्थात, पूरा। २. जिसके खंड या टुकड़े न हुए हों। अखंडित। ३. क्षत या घाव से रहित । पुं० १. कच्चा चावल जिसका उपयोग देव-पूजन में किया जाता है। २. धान का लावा। ३. जो। ४. शिव का एक नाम। ५. नपुंसक। हिजड़ा।

अक्षत-योनि- Akshatyoni-वि० [व० स०] (कन्या या स्त्रो) जिसका पुरुष से संबंध ' या मैथुन न हुआ हो। (वर्जिन)

अक्षत-वीर्य- Akshatveerya-वि० न० ब०] (पुरुष) जिसका वीर्य स्खलित न हुना हो। पुं० १. शिव । २. नपुंसक । (क्व०) ३. क्षय का अभाव ।

अक्षता- Akshata-वि० [सं०/क्षण+क्त्त-टा, न० त०] =अक्षत योनि । स्त्रों० १. वह स्त्री जिसका पुनर्विवाह तक किसी पुरुष से संयोग न हुआ हो । २. काकड़ा सींगी।

अक्ष-दर्शक-Akshadarshak-पुं० [प० त०] १. न्यायाधीश। २. धर्माध्यक्ष। ३. जूएखाने का मालिक।

अक्ष-द्यूत-Akshadyut-पुं० [अ० त०] पासों से खेला जानेवाला जूआ।

अक्ष-घर-Akshadhar-वि० [५० त०] धुरा धारण करनेवाला । पुं० १. विष्णु। २. गाड़ी का पहिया। ३. शाखोट नामक वृक्ष ।

अक्ष-धुर-Akshadhur-पुं० [प० त०] पहिए की धुरी।

अक्ष-पटल-Akshapatal-पुं० [५० त०] १. प्राचीन भारत के राज्य के आय-व्यय के लेखों का प्रधान विभाग। २. उस विभाग का प्रधान अधिकारी।

अक्षपद-Akshapad-पुं०-अक्षपाद ।

अक्ष-पाद-Akshapaad-पुं० [व० स०] १. न्यायशास्त्र के प्रवर्तक गौतम ऋषि । २. तर्क या न्याय शास्त्र का पंडित। ताकिको नैयायिक।

अक्ष-बंध-Akshabandh-पु० [सं०प० त०] नजर बाँधने को विद्या। नजरबंदी।

अक्षम्-Aksham-वि० [सं०/क्षम् (सहना)+अच, न० त०] १. जिसमें क्षमता या शक्ति न हो। अशक्त । असमर्थ । २. जिसमें कार्य करने की योग्यता न हो। अयोग्य । ३. जो साधारण दोषों के लिए भी किसी को क्षमा न करें। जिसमें सहनशीलता न हो। असहिष्णु। ४. जो किसी का उत्कर्य या सुख अच्छी दृष्टि से न देख सके। ईर्ष्या करनेवाला।

अक्षमता-Akshamata-स्त्री० [सं० अक्षमतल-टाप्] १. अक्षम होने को अवस्था या भाव। २. अशक्तता। असमर्थता। ३. ईर्ष्या। डाह।

अक्ष-मापक-Akshamaapak-पुं० [प० त०] ग्रह-नक्षत्र यादि देखने का एक यंत्र ।

अक्ष-माला-Akshamaala-स्त्री० [अ० त०] १. वसिष्ठ की पत्नी अरुंधती। २. रुद्राक्ष को माला। ३. वर्णमाला। ,

अक्ष-माली(लिन्)-Akshamaali-वि० [सं० अक्षमाला-इनि] रुद्राक्ष की माला धारण करनेवाला। पुं० शिव।

अक्षम्य-Akshamya-वि० [सं० २० त०] १. (व्यक्ति) जिसे क्षमा न किया जा सकता हो। २. (अपराध या दोष) जिसके लिए कर्ता को क्षना न किया जा सकता हो।

अक्षय-Akshay-वि० [सं० न० ब०] १. जिसका क्षय या नाश न हो। अविनाशी। २. गरीब । निर्धन पुं० परमात्मा का एक नाम' या विशेषण।

अक्षय कुमार- Akshay Kumar-पुं०-अक्षकुमार।

अक्षय-तृतीया- Akshay Triteeya-स्त्री० [कर्म० स०] वैशाख शुक्ल-तृतीया। आखातीज।

अक्षय-धाम - Akshay Dhaam(न)-पुं० [कर्म० स०] १. वैकुंठ। २. मोक्ष ।

अक्षय नवमी- Akshay Navami-स्त्री० [फर्म० स०] कार्तिक शुक्ल पक्ष नवमी। (पर्व)

अक्षय-पद- Akshay pad-पुं० [कर्म० स०] मोक्ष। वि० दे० 'परमपद'

अक्षय-लोक- Akshay lok-पुं० [कर्म० स०] स्वर्ग।

अक्षय-वट- Akshay Vat- [कर्म० स०] प्रयाग और गया के प्रसिद्ध वटवृक्ष जो हजारों वर्ष पुराने कहे जाते हैं।।

अक्षय-वृक्ष- Akshay Vriksh-पुं० = अक्षयवट ।

अक्षया- Akshayaa--स्त्री० [सं० अक्षय | टाप्] गणित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट ऐसी तिथियाँ जो कुछ विशिष्ट दिनों में पड़तो हो। जैसे----रविवार को होनेवालो सप्तमी, सोमवार को होनेवाली अमावस्या या मंगलवार को होनेवाली चौथ।

अक्षयिणी- Akshayini-स्त्री० [सं० क्षयिणी, क्षय-इनि- डोप, अक्षयिणी, न० त०] पार्वती।

अक्षयी (यिन्)- Akshayee-वि० [सं० क्षय--इनि, न० त०] [स्त्रो० अक्षयिणी] जिसका क्षय या नाश न हो। अक्षय। '

अक्षय्य- Akshayay-वि० [सं०/क्षि (क्षय)यत निन प्रकार क्षय न किया जा सके। प्रायः एक-सा सद .

अक्षर-Akshar-वि० [सं०/क्षर+अन्च्, न० त०] १. जिसका क्षर' या हो। अविनाशी। नित्य । २. अच्युत। ३. स्थिर :पुं० १. ध्वनिगत लघुतम इकाई । वर्ण। (एलफावेट) २. वह चिह्न या संकेत जो उक्त ध्वनि का सूचक होता है। (लेटर) मुहा० अक्षर घोंटना=अक्षर लिखने का अभ्यास करना। पद-विधना के अक्षर-भाग्य का लेख जो बदल या मिट नहीं सकता। ३. आत्मा। ४. परमात्मा या ब्रह्म का वहनाच्या आश्रय से उसने प्रकृति और पुरुष का रूप धारण ६. धर्म। ७. तपस्या । ८. मोक्ष। ९. जल।

अक्षर-क्रम- Akshar Kram-पुं० [प० त०] नामों, शब्दों आदि का उन्हें रखने या लगाने का वह क्रम जिसमें उनके . कम से रहते हैं जिस क्रम से वे वर्णमाला में होते हैं (आर्डर)

अक्षर-गणित- Akshar Ganit-पुं० [प० त०] बीजगणित। : :

अक्षरच्छंद-पुं Aksharcchand- पुं० ति० त०] वर्णवृत्त।

अक्षर-जीवक- Akshar Jeevak-पुं० [सं० अक्षर/ जी+पवुल-अक] अक्षर –

अक्षर-जीवी- Akshar Jeeve- (विन्)---पुं० [अक्षर / जो+गिनि,] पढ़ा-लिखा व्यक्ति

अक्षर-ज्ञान- Akshar ज्ञान- पुं० [प० त०] अक्षरों के पढ़ने-लिखने का ज्ञान । साक्षरता।

अक्षर-धाम- Akshar धाम- (1)-पुं० [प० त०]. ब्रह्मलोक।

अक्षर-न्यास- Akshar Nyas--पुं० [प० त०] १. लिखावट। २. लेख। ३. तांत्रिक पूजन में वह क्रिया जिसमें मंत्र के एक-एक अक्षर का उच्चारण करते हुए शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है।

अक्षर-पंक्ति- Akshar Pankti-स्त्री० [प० त०] चार चरणों का एक वैदिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में २० वर्ण होते हैं।

अक्षर-बंध- Akshar Bandh-पुं० [ब० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त।

अक्षर-माला- Akshar Maala-स्त्री० [प० त०] वर्णमाला।

अक्षर-योजना- Akshar Yojana-स्त्री० [प० त०] किसी विशेष उद्देश्य से अथवा कोई विशेष रूप देने या विशेष अर्थ निकालने के लिए किसी विशेष क्रम से कुछ अक्षर बैठाना। जैसे—मुक्तक की अक्षर-योजना।

अक्षर-विन्यास- Akshar Vinyas-पं० [५० त०] १. लिखावट । २. शब्दों के वर्गों का विन्यास। अक्षरी। हिज्जे।

अक्षरशः (शस)- Aksharashah -क्रि० वि० सं० अक्षर-शसा (कथन या लेख के) एक-एक अक्षर का ध्यान रखते हुए अथवा उनका अनकरण या पालन करते हुए। ठीक ज्यों का त्यों।

अक्षरा- Aksharaa-स्त्री० [सं० अक्षर+अच्, टाप्] १. शब्द। २. भाषा।

अक्षराक्षर- Aksharakshar--पुं० [सं० अक्षर-- अक्षर, ब० स०) योग में एक प्रकार की समाधि। क्रि० वि० [अव्य० स०] =अक्षरशः ।

'अक्षरारंभ- Aksharambh-पुं० [सं० अक्षर-आरंभ, ५० त०] (किसी को ) पहले पहल अक्षरों का ज्ञान या परिचय कराना। पढ़ाना आरंभ करना ।

अक्षरार्थ- Akshararth-पुं० [सं० अक्षर -- अर्थ, प० त०] १. शब्द के प्रत्येक अक्षर का अर्थ। २. शब्दों का अर्थ। शब्दार्थ। (भावार्थ से भिन्न)

अक्षरावस्थान- Aksharawasthan-पुं० दे० 'अपश्रुति'

अक्षरी- Akshari--स्त्री० [सं०/ अश्+(व्याप्ति) सरन, डोप] १. शब्दों के अक्षरों का उनके ठोक क्रम के अनुसार उच्चारण करना अथवा लिखना । वर्तनी। हिज्जे। २. वर्षा ऋतु ।

अक्ष-रेखा- Akshar Rekha-स्त्री० [प० त०] वह सीवी रेखा जो किसी गोले के केन्द्र से उसके तल के किसी विन्टु तक सीधी पहुँचती है। घुरी की रेखा।

अक्षरौटी- Aksharouti-स्त्री. १. दे० 'अखरावट'। २. दे० 'अखरोटी'

अक्षर्य- Aksharya-वि० [सं० अक्षर+यत्] अक्षर-संबंधी। पुं० एक वैदिक साम का नाम ।

अक्ष-वाट-पुं० [प० त०] १. अखाड़ा। २. जूआखाना।

अक्ष-विद्या- Aksha Vidya- स्त्री० [प० त०] १. जुए से संबंध रखनेवाली सब बातों का ज्ञान । २. जूआ।

अक्ष-शाला- Aksha Shaala-स्त्री० [५० त०] प्राचीन भारतीय राज्यों का वह विभाग जिसके अधिकार में सोने, चाँदी, टकसाल आदि का प्रबन्ध रहता था।

अक्ष-सूत्र- Aksha Sootra-पुं० [प० त०] १. रुद्राक्ष की माला। २. जयमाला ।

अक्ष-हीन- Aksha Heen-वि० [तृ० त०] जिसे आँखों से दिखाई न दे। अंधा।

अक्षांश- Akshansha-पुं० [सं० अक्ष-अंश, प० त०] १. किसी चीज के बेड़े बल का या चौड़ाई की बोर का विस्तार या परिणाम। २. भूगोल में वह कल्पित रेखा जो याम्योत्तर वृत्त को ३६० अंशों या भागों में विभक्त करके उसमें के किसी अंश से भूमध्य रेखा के समानांतर खींची जाती है। ३. उक्त रेखा के आधार पर किसी स्थान की वह स्थिति या दूरी जों भूमध्य रेखा के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से स्थिर की जाती और संख्या-सूचक अंशों में बतलाई जाती है। (लैटीच्यूड) ४. क्रांतिवृत्त के उत्तर या दक्षिण होने के विचार से किसी नक्षत्र का कोण बनानेबाला अंतर।

अक्षार- Akshaar -वि० सं० न० ब०] १. जिसमें क्षार न हो। क्षार-रहित । २. जो स्वयं क्षार न हो। क्षार से भिन्न । पुं०-अक्षार-लवण ।

अक्षार-लवण- Akshaar Lavan-० [सं०क्षार-लवण, कर्म० स०,न-क्षार लवण, न० त०] वह लवण (नमक) जिसमें खार न हो। प्राकृतिक नमक ।

अक्षावाय- Akshaavaaya--पुं० [सं० अक्ष-आVवप् (फैकना) + अण्] जुआरी।

अक्षि-Akshi-स्त्री० [सं०/अश् (व्याप्ति) +क्सि] १. माख। नेत्र। २. दो की संख्या।

अक्षिक- Akshik-० [सं० अक्ष+ठन् – इक] आल का पेड़।

अक्षि-कूट- Akshi Koot (कूटक)-पुं० [प० त०] आँख की पुतली।

अक्षि-गोलक- Akshi Golak-०प० त० आँख का डेला जिसके बीच में पुतली होती है। (आई-बाल)

अक्षित- Akshit-वि० [सं० अक्षीण] १. जिसका क्षय न हुआ हो। २. न छीजने वाला। ३. जिसे चोट न लगी हो। पुं० १. जल। २. दस लाख की संख्या।

अक्षि-तारक- Akshi Tarak-पुं० [प० त०] आँख का तारा।

अक्षि-तारा- Akshi Taara-स्त्री० [प० त०] =अक्षितारक ।

अक्षिति- Akshiti- वि० [सं० न० ब०] जिसका क्षय या नाश न हो। स्त्री० [/क्षि-क्तिन, न० त०] नश्वरता।

अक्षि-पटल- Akshi Patal-पुं० [प० त०] आँख का ऊपरी भाग या परदा।

अक्षि-लोम- Akshi Lom-(मन्)-पुं० [अ० त०] वरीनी।

अक्षि-विक्षेप- Akshi Vikshep-पुं० [ष० त०] तिरछी नजर। कटाक्ष।

अक्षी-Akshii-वि०-अक्षीय।

अक्षीण-Aksheen-वि० [सं० न० त०] १. जो क्षीण (या दुबला-पतला) न हो २. मोटा। हृष्ट-पुष्टः। ३. जो किसी तरह घटा न हो।

अक्षीय-Aksheeya-वि० [सं० अक्ष-+छ-ईय] १. अक्ष से संबंध रखने या उसमें होनेवाला। (ऐक्सिबल) २. किसी वस्तु के उदर या भीतरी भाग में होने या उससे संबंव रखनेवाला। (वेन्ट्रल)

अक्षीव-Aksheev-वि० [सं०/ क्षी+क वा क्त, न० त०] जो मतवाला या मत्त न हो। अमत्त। पुं० १. समुद्री नमक। २. सहिजन का पेड़ ।

अक्षुण-Akshuna-वि०-अक्षुण्ण ।

अक्षुण्ण -Akshunna-वि० [सं० न० त०] १. जो क्षुण्ण, खंडित या टूटा-फूटा न हो। पूरा। समूचा। २. जो कम न हुआ हो। बिना घटा हुमा । ३. जो कुशल या चतुर न हो। अनाड़ी। ना-समझ। ४. जी हारा न हो। अपराजित।

अक्षध्य-Akshdhya-वि० [सं० न० त०] (पदार्थ) जिसे खाने से भूख न लगे या वहुत कम लगे। भूख बन्द करनेवाला।

अक्षेत्र-Akshetra-वि० सं० न० त०] १.जो क्षेत्र न हो। २. जो क्षेत्र बनने के लिए उपयुक्त न हो। जैसे--अक्षेत्र भूमि, अक्षेत्र छात्र आदि। ३. जिसे प्रकृति, शरीर आदि के स्वरूप का ज्ञान न हो, अर्थात् तत्त्वज्ञान से रहित या शून्य । पुं० १. क्षेत्र का अभाव। २. ऐसी भूमि जिसमें खेती न हो सकती हो। ३. ज्यामिति में वह आकृति जो ठीक या शुद्ध न हो।

अक्षेत्री-Akshetri- (त्रिन्)-वि० [सं० क्षेत्र-+इनि, न० त०] जिसके पास खेत न हो।

अक्षेम-Akshem-पुं० [सं० न० त०] १. क्षेम का अभाव। २. भशुभ, हानि कारक आदि होने की अवस्था। अमंगल।

अक्षीट-Aksheet- [सं०/अक्ष- ओट] अखरोट।

अक्षोनि-Akshini- स्त्री० - अक्षौहिणी।

अक्षोभ-Akshobh-वि० [सं० न० ब०] १. जिसमें क्षोम या उद्वेग न हो। फलतः सान्त । २. गम्भौर और अधीर। f० सं० न० त०] १.क्षोभ या उद्वेग का अभाव । फलतः शांति। २. हाथी बाँधने का खूँटा

अक्षोभ्य-Akshobhya-वि० [सं०/ क्षुभ् (विचलित होना)+णिच्-+-यत्, न० त०] १. जिसमें क्षोभ न उत्पन्न किया जा सके। २ जो कभी क्षुब्वन होता हो। सदा पीर और शान्त बना रहनेवाला। पुं० गौतम बुद्ध का एक नाम।

अक्षौहिणी -Akshouhini- यो० [सं० ऊह--इनि, अक्ष - कहिनी, प० त०] प्राचीन काल की चतुरंगिणी सेना जिसमें १,०९,३५० पैदल, ६५,६१० घोड़े, २१,८७० रथ और २१,८७० हाथी होते थे।

अक्स-Aks-पुं० [अ०] [वि. अक्सी] १. छाया। परछाई। २. प्रतिबिंब। ३. चित्र । तस्वीर। ४. मन में छिपा हुआ द्वेष या शत्रुता।

अक्सर-Aksar-क्रि० वि० [अ०] अनेक अवसरों पर। प्रायः। बहुधा। वि० दे० 'अकसर।

अक्सी-Aksiवि० [अ०] १. अक्स या छाया से संबंध रखनेवाला। अक्स या प्रतिबिम्ब के रूप में पड़नेवाला। जैसे--अनसो तसवीर-छायाचित्र। ३. मन में अक्स (अकस) या द्वेष रखनेवाला।

अक्सीर-Akseer-वि० [अ०] निश्चित रूप से अपना गुण,प्रभाव या फल दिखानेवाला। पु० यह 'कल्पित' रासायनिक पदार्थ जिसके योग से दूसरी धातुएँ चाँदी या सोना बन जाती हों। रसायन । कीमिया। 

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