मैं क्या चाहता हूँ!

मैं क्या चाहता हूँ!
मैं चाहता हूँ एक दिन तलवार हो इस हाथ में ।
हों साथ ही मेरे सभी मजबूत साथी साथ में ।
डंका बजा कर युद्ध का लूँ जीत सब संसार ही।
लोग समझे हो गया श्रीराम का अवतार ही ॥
फिर चाहता हूँ दूसरे दिन फूल हो इस हाथ में ।
हों साथ ही मेरे सभी सुकुमार साथी साथ में ।
डंका बजा कर प्रेम का लू जीत सब संसार ही।
लोग समझे हो गया श्रीकृष्ण का अवतार ही ॥
फिर चाहता हूँ तीसरे दिन सूत हो इस हाथ में ।
हो एक चरखे के सिवा साथी न कोई साथ में ।।
डंका स्वदेशी का बजे लखता रहे संसार ही।
लोग समझे देश की सब दीनता है जा रही ।
फिर चाहता हूँ अंत में कुछ भी न हो इस हाथ में ॥
हों एक भी साथी तथा संगी न मेरे साथ में ।
है जो नहीं पड़ता दिखाई जा उसी से मैं मिलूँ ।
और फिर सबके दिलों में सत्यता बन कर खिलूँ ॥
इस तरह मैं चाहता हूँ कुछ न कुछ सब रोज ही।
हा ! किन्तु सच्ची बात की पायो न कर कुछ खोज ही।
चिंता बड़ी है बढ़ रही, हूँ सोचता दिन रात मैं ।
अब बालको! तुम ही कहो हूँ चाहता क्या बात मैं ?


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