Baal Kavita on मेरा मन

मेरा मन
कभी यहाँ है, कभी वहाँ है,
इसकी पकड़े कौन नकेल ?
तेज रेलगाड़ी बन जाती,
चाल देख गुड़ियों का खेल ॥
दिन में रात, रात में दिन का,
ध्यान इसे हो आता है।
जहाँ चाहता है मुझ से,
बे पूछे ही भाग जाता है ॥
जंगल इसमें आ जमते हैं,
नदियाँ इसमें बहती हैं।
चीं ची करके चिड़ियाँ इसमें,
जाने क्या क्या कहती हैं !
मैं जब चाहूँ इसमें सूरज,
का गोला दिखलाता है।
धीरे-धीरे वही चन्द्रमा,
का टुकड़ा हो जाता है।
शकल दिखा कर भूतों की,
यह कभी डरा देता हमको ।
कभी उन्हीं से लड़ने को,
तलवार धरा देता हमको ।।
कभी हँसाता कभी रुलाता,
कभी खेलाता सब के साथ ।
जो-जो यह दिखला सकता है,
होता अगर हमारे हाथ ।।
तो जमीन से आसमान तक,
सीढ़ी एक लगाते हम ।
इन्द्रासन से हटा इन्द्र को,
अपना रंग जमाते हम ॥
पानी में हम आग लगाते,
बनता तेज हवा पर घर ।
बिना मास्टर के पढ़ जाते,
सारी पुस्तक सर सर सर ।।
अजी व्यर्थ की बातें छोड़ो,
इनमें क्या है कहो धरा।
खाते खाते मन के लडडू,
नहीं किसी का पेट भरा ॥


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