Baal Kavita on ईश्वर की माया
ईश्वर की माया
कल सपने में देखा मैंने,
होता एक तमाशा ।
सुन कर तुमको विस्मय होगा,
उसका हाल खुलासा ॥
परदा उठा पड़ा दिखलाई,
एक नाचता लोटा ॥
पहले हुआ घड़े सा बढ़ वह,
पुनः मटर सा छोटा ॥
निकल-निकल कर उसमें से ही,
हुए हजारों लोटे।
कोई हलके भारी कोई,
पतले कोई मोटे ॥
लखते ही लखते लोटों से,
फर्श भर गया सारा।
पर उनसे भी ज्यादा बढ़ कर,
विस्मय बढ़ा हमारा ॥
उन लोटों से बाहर निकली
भाँति भाँति की नारी।
तरह-तरह के गहने पहने
रंग-बिरंगी सारी ।।
लोटा-लोटा कह कर सब वे,
लगीं नाचने गाने ।
वही बिगड़ कर लूटा-लूटा,
सब को लगा सुनाने ।
लूटा से भय हुआ चोर का,
छिपने की मन आई।
पर न एक भी पड़ा कहीं पर,
लोटा वहाँ दिखाई ।।
डर से थर-थर लगीं काँपने,
नाच गान सब भूला।
तब तक आसमान से उतरा,
बन लोटों का झूला ॥
झूल रहा था उसमें सुख से,
बालक एक निराला ।
हाथों में थी मुरली उसके,
उर में मोहन माला ।।
लख उसको सब का भय छूटा,
पुनः लगीं वे गाने।
वह बालक भी झूल-झूल कर,
मुरली लगा बजाने ॥
सब ने उस बंशी की ध्वनि में,
अपना राग मिलाया।
मिलते-मिलते मिली उसी के,
तन में सब की काया ॥
झूला भी मिट गया-अचानक,
किन्तु खड़ा हो बालक ।
बोला-"मैं ही हूँ इस नाटक,
का केवल संचालक ।।
हे दर्शक गण ! इस नाटक को,
समझो मेरी माया ॥
इसी भाँति मुझसे ही निकला;
मुझमें जगत समाया ॥
दुख-सुख तुम जो अनुभव करते,
वह सब भ्रम है मन का ।
मुझसे मन का मेल मिलाओ,
तजो भरोसा तन का।
इतने ही में निद्रा छूटी,
और न लखने पाया ।
पर जो कुछ देखा था,
उससे पूरा लाभ उठाया ।
अब मैं हर दम खुश रहता हूँ,
दुख-सुख सब सम मानूँ ।
निर्मर अपने कर्म उसी,
प्रभु की इच्छा पर जानूँ ॥
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