Baal Kavita on ओला


ओला
देखो पड़ा हुआ है ओला ।
कैसा सुंदर इसका चोला ॥
हो मानों हीरे का रोड़ा।
जो न कभी जा सकता तोड़ा।
पर यह तो है गला जा रहा।
क्यों ऐसा दुख भला पा रहा ॥
इसका भी है कारण बच्चों ।
किया गर्व था धारण बच्चो ।।
पहले यह सागर के तल पर ।
था पानी बिलकुल चम्मच भर ।।
लहरों में आदर पाता था ।
उछल उछल हँसता गाता था ।।
सूरज की किरणों में पड़ कर ।
भाप बना यह निज तन तजकर ॥
उठते-उठते ऊपर आया ।
मिली घनों में इसकी काया ।।
बिजली चमकी गरजा बादल ।
समझा इसने है मुझमें बल ॥
इस प्रकार हो गया गुमानी ।
भूल गया सागर का पानी ॥
फिर तो जब नीचे को देखा।
तुच्छ बहुत सागर को लेखा ।
यों घमंड में उड़ता ऊपर ।
आज गिर पड़ा देखो भूपर ।
अब न रही वह बिजली प्यारी।
या बादल के महल-अटारी ॥
देखो हीरे-सा सुंदर तन ।
रहा धूल में है बच्चो! सन ।।
है जो पदवी पा इतराता ।
स्वजनों से तज देता नाता ।।
उसे चाहिए नहीं भुलानी ।
ओले की यह करुण कहानी ॥


Comments