समय का फेरा Baal Kavita on Time's Nature
समय का फेरा
करता सदा समय है फेरा ।
रात गई फिर हुआ सबेरा ॥
गया सबेरा तो दिन आया ।
दिन भर में दिन गया बिताया ॥
फिर आई संध्या की बेला।
समय इसी विधि करता खेला ॥
यों ही बीती अगणित सालें ।
चली समय ने अगणित चालें ।
फूल मनोहर जो खिलता है।
रूप जिसे सुंदर मिलता है।
वही सूख जाता दो दिन में ।
परिवर्तन होता छिन-छिन में ॥
कहीं शहर जंगल हो जाता।
और कहीं जंगल बस जाता॥
कहीं न रहते दोनों भू पर ।
आ जाते समुद्र या ऊसर ॥
जिस घर में हम खेला करते ।
लड़कों को ले मेला करते ॥
कभी वहीं पर दादा मेरे।
मुझसे ही थे करते फेरे ॥
कभी यहीं पर हम न रहेंगे।
और न ऐसी बात कहेंगे ॥
आ पहुँचेंगे नाती-पोते ।
शोर मचाते हँसते-रोते ।।
फिर जाने होवेगा क्या-क्या ?
और यह घर खोएगा क्या क्या ?
और न जाने क्या-क्या पाकर ?
बिगड़ेगा सुधरेगा यह घर ॥
इसी तरह यह देश हमारा ।
जाने कैसा होगा प्यारा॥
कभी राम थे इसमें खेले ।
कष्ट अनेकों इसमें झेले ।
कभी हुए वे इसके स्वामी।
कभी कृष्ण आए अति मानी ॥
और अब हैं हम देखो कैसे ।
उनके ही बच्चे हा ! ऐसे ॥
आगे क्या होने वाला है ?
कौन इसे कहने वाला है ?
हाँ जब पूरा होगा चक्कर ।
फिर चमकेगा भारत सुंदर ।।
दुखी अगर हो प्यारे बच्चो!
करो न सोच हमारे बच्चो !
होगा सही समय का फेरा ।
फिर आएगा वही सबेरा ॥
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