Baal Kavita on Kuhra कुहरा


कुहरा
देखो कैसा कुहरा छाया।
कुहरे में है जगत समाया ।
मानों निज रूठी बूँदों को,
बादल स्वयं मनाने आया ।
यद्यपि है अब नहीं अँधेरा,
भली भाँति हो गया सबेरा।
पर न पता चलता चिड़ियों ने,
है छोड़ा या नहीं बसेरा ॥
धूप अगर कुछ भी हो आती।
तो यों सरदी नहीं सताती ।।
ठंडक से वह जकड़ी तितली,
हाथ न मुन्नी के पड़ जाती ॥
हुई आह ! किरणों की बरसा ,
कुहरा सारा गया कतर सा ।
देखो जहाँ वहीं दिखता है ,
उठता-सा उज्ज्वल चद्दर-सा ।।
गई उधर वह खुल हरियाली ,
देखो कैसी छटा निराली ।
चहक उठीं खुश होकर चिड़ियाँ ,
लगी डोलने डाली डाली ।।
यदि चाहो यह दृश्य लुभाना ,
लखना लखकर मन बहलाना ।
जब तक जाड़े का मौसम है ,
प्रति दिन सुबह खेत में जाना ॥


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