Baal Kavita On Dust धूल


धूल
जब मैं छोटा-सा बच्चा था ,
खेला करता था अति धूल ।
कहती थी माँ-"फूल रहा है,
वाह ! धूल में क्या ही फूल ॥"
मुझसे ही कितने ही बच्चे,
थे सच्चे मेरे साथी ।
कोई बन जाता था घोड़ा,
कोई बनता था हाथी ।
लकड़ी के हल बैल बना कर,
कोई बनता चतुर किसान ।
कहीं बाग तालाब, दीखते ,
बनते कहीं खेत खलिहान ।
मनमाना घर बना धूल में,
खेला करते थे सब लोग ।
 हाय ! न अब आ सकता है,
जीवन में वह सुखमय संयोग ।
खेल न है वह मेल न है वह ,
गए धूल में मिल सारे ।
चिंताओं में चूर पड़े हैं,
सब संगी साथी प्यारे ॥
अरी धूल ! तू तो है अब भी,
हाँ, न रहा बचपन मेरा ।
पर इससे क्या-उर में है,
वैसा ही पूर्ण प्यार तेरा ॥
मातृभूमि की सेवा का जो,
लेते हैं अपने सिर भार ।
वे अवश्य ही बाल्य काल में,
कर चुकते हैं तुझको प्यार ॥


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