Baal Kavita on Crow कौवा


कौवा
वह बैठा है कौवा काला ।
उसे खिलाऊँ माँ ! रोटी ला ।।
काँ! काँ ! काँ! चिल्लाता है वह ।
कौवे कई बुलाता है वह ॥
आँगन में अब आए हैं सब ।
खाने को अकुलाए हैं सब ॥
काँ! काँ ! कैसे बोल रहे हैं।
सारे घर में डोल रहे हैं।
कौआ-कोयल दोनों काले।
दोनों नभ में उड़ने वाले ॥
पर न समझ में मेरे पाती।
कोयल ही क्यों तुझको भाती ?
फलता है जब आम हमारा ।
बहती है जब रस की धारा ।।
कोयल तब कू ! कू ! कर आती।
फल झड़ते ही पर न लखाती ।।
उसको है निज मतलब प्यारा ।
कभी न करती ध्यान हमारा ॥
घर में कभी न आई मेरे ।
सदा लगाती बन में फेरे ॥
पर, लख तो कौवा बेचारा ।
देता हर दम साथ हमारा ।।
जब हम उठ आँगन में आते ।
इसको छत पर बैठा पाते ।
जब फिर हम पढ़ने जाते हैं।
इसे मदरसे में पाते हैं।
मिलता वहीं जहाँ हम जाते ।
घर घर इसे फुदकता पाते ॥
जाड़ा गर्मी वर्षा सब दिन ।
ओझल होता नहीं एक दिन ॥
यहीं भीगता सर्दी खाता।
हमें छोड़ कर अन्य न जाता ॥
इसे देश अपना प्यारा है।
जाति प्रेम भी अति न्यारा है ।।
यही पाठ यह हमें पढ़ाता ।
फिर क्यों नहीं किसी को भाता ॥
बोली नहीं सुरीली इसकी।
चाल नहीं चटकीली इसकी ।। 
इससे बुरा कहे जा इसको ।
महामूर्ख मैं समझूँ उसको ॥
है जो मीठी बोली वाला।
दुष्ट वही होता है आला ॥
माँ ! वह कैसी मीठी बोली ?
जिसमें विष की पुड़िया घोली ॥
इससे तो कटु भाषा वाला।
कहीं श्रेष्ठ है कौवा काला ॥
ला ! ला ! ला ! ला! रोटी ला ! ला!
बहुत आ गए कोवे, ला! ला!
इनको आज खिलाऊँगा मैं ।
कुछ को पकड़ जिलाऊँगा मैं ॥
साथ इन्हीं के खाऊँगा मैं ।
खेलूँगा सुख पाऊँगा मैं ॥



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