Baal Kavita on Book पुस्तक


पुस्तक
बच्चो ! देखो कागज की,
पुस्तक में है कैसी माया !
इसका सा साथी इस जग में,
कहीं नहीं मैंने पाया ।
खुलते ही यह बिन बोले,
बाते अनेक बतलाती है।
दुश्मन हो या दोस्त किसी,
से कुछ भी नहीं छिपाती है ।
प्रेम बढ़ाता जो इससे वह,
महाचतुर हो जाता है।
नहीं गुरु भी इतनी बातें,
इस प्रकार सिखलाता है।
जिन विद्वानों के समीप तक,
पहुँच नहीं हम पाते हैं।
वे ही पुस्तक में हमको,
अपना दिल खोल दिखाते हैं।
मरे हुए लोगों को भी,
हम पुस्तक में जीता पाते।
सुनते उनकी प्यारी बातें,
' अपना मन बहलाते ॥
घर बैठे हम पुस्तक में कर,
सैर जगत की लेते हैं।
हुए हजारों वर्ष जिन्हें वे,
दृश्य दिखाई देते हैं।
इसीलिए यह मैंने बच्चो!
है निज मन में अनुमाना।
पा जाने पर पुस्तक है कुछ,
शेष न रह जाता पाना ॥
इसीलिए कहता हूँ इसका,
सा न दूसरा है साथी ।
पुस्तक पढ़ना छोड़ न चाहूँ
गा चढ़ना हरगिज हाथी ।
बिन पुस्तक के राजा होने,
भी न कहीं मैं तो जाऊँ।
चाह यही है मनचाही मैं,
पढ़ने को पुस्तक पाऊँ ॥



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