ल्हासा की ओर
ल्हासा की ओर
वह नेपाल से तिब्बत जाने का मुख्य रास्ता है।
फरी—कलिङ्पोङ्
का रास्ता जब नहीं खुला था, तो नेपाल ही नहीं हिंदुस्तान की भी चीज़ें इसी
रास्ते तिब्बत जाया करती थीं। यह व्यापारिक ही नहीं सैनिक रास्ता भी था, इसीलिए जगह—जगह फ़ौजी चौकियाँ
और किले बने हुए हैं, जिनमें कभी चीनी पलटन रहा करती थी। आजकल बहुत
से फ़ौजी मकान गिर चुके हैं। दुर्ग के किसी भाग में, जहाँ किसानों ने अपना बसेरा बना लिया है, वहाँ घर कुछ
आबाद दिखाई पड़ते हैं। ऐसा ही परित्यक्त एक चीनी किला था। हम वहाँ चाय पीने के लिए
ठहरे। तिब्बत में यात्रियों के लिए बहुत सी तकलीफ़ें भी हैं और कुछ आराम की बातें भी। वहाँ जाति—पाँति, छुआछूत का सवाल
ही नहीं है और न औरतें परदा ही करती हैं। बहुत निम्नश्रेणी के भिखमंगों को लोग
चोरी के डर से घर के भीतर नहीं आने देते; नहीं तो आप बिलकुल घर के भीतर चले जा सकते
हैं। चाहे आप बिलकुल अपरिचित हों, तब भी घर की बहू या सासु को अपनी झोली में से
चाय दे सकते हैं। वह आपके लिए उसे पका देगी। मक्खन और सोडा—नमक दे
दीजिए, वह चाय चोङी
में कूटकर उसे दूधवाली चाय के रंग की बना के मिट्टी के टोटीदार बरतन (खोटी) में
रखके आपको दे देगी। यदि बैठक की जगह चूल्हे से दूर हैं और आपको डर है कि सारा
मक्खन आपकी चाय में नहीं पड़ेगा, तो आप खुद जाकर चोङी में चाय मथकर ला सकते
हैं। चाय का रंग तैयार हो जाने पर फिर नमक—मक्खन डालने की ज़रूरत होती है।
परित्यक्त चीनी किले से जब हम चलने लगे, तो एक आदमी
राहदारी माँगने आया। हमने वह दोनों चिटें उसे दे दीं। शायद उसी दिन हम थोङ्ला के
पहले के आखिरी गाँव में पहुँच गए। यहाँ भी सुमति के जान—पहचान के
आदमी थे और भिखमंगे रहते भी ठहरने के लिए अच्छी जगह मिली। पाँच साल बाद हम इसी
रास्ते लौटे थे और भिखमंगे नहीं, एक भद्र यात्री के वेश में घोड़ों पर सवार
होकर आए थे; किंतु उस वक्त किसी ने हमें रहने के लिए जगह नहीं दी, और हम गाँव
के एक सबसे गरीब झोपड़े में ठहरे थे। बहुत कुछ लोगों की उस वक्त की मनोवृत्ति पर ही
निर्भर है, खासकर शाम के वक्त छङ् पीकर बहुत कम होश—हवास को
दुरुस्त रखते हैं।
अब हमें सबसे विकट डाँड़ा थोङ्ला पार करना था।
डाँड़े तिब्बत में सबसे खतरे की जगहें हैं। सोलह—सत्रह हज़ार फीट की ऊँचाई होने के कारण उनके
दोनों तरफ़ मीलों तक कोई गाँव—गिराँव नहीं होते। नदियों के मोड़ और पहाड़ों
के कोनों के कारण बहुत दूर तक आदमी को देखा नहीं जा सकता। डाकुओं के लिए यही सबसे अच्छी
जगह है। तिब्बत में गाँव में आकर खून हो जाए, तब तो खूनी को सज़ा भी मिल सकती है, लेकिन इन
निर्जन स्थानों में मरे हुए आदमियों के लिए कोई परवाह नहीं करता। सरकार खुफ़िया—विभाग और
पुलिस पर उतना खर्च नहीं करती और वहाँ गवाह भी तो कोई नहीं मिल सकता। डकैत पहिले आदमी
को मार डालते हैं, उसके बाद देखते हैं कि कुछ पैसा है कि नहीं।
हथियार का कानून न रहने के कारण यहाँ लाठी की तरह लोग पिस्तौल, बंदूक लिए
फिरते हैं। डाकू यदि जान से न मारे तो खुद उसे अपने प्राणों का खतरा है। गाँव में
हमें मालूम हुआ कि पिछले ही साल थोङ्ला के पास खून हो गया। शायद खून की हम उतनी
परवाह नहीं करते, क्योंकि हम भिखमंगे थे और जहाँ—कहीं वैसी
सूरत देखते, टोपी उतार जीभ निकाल, “कुची—कुची (दया—दया) एक पैसा” कहते भीख माँगने लगते। लेकिन पहाड़ की ऊँची
चढ़ाई थी, पीठ पर
सामान लादकर कैसे चलते? और अगला पड़ाव 16—17 मील से कम नहीं था। मैंने सुमति से कहा कि
यहाँ से लङ्कोर तक के लिए दो घोड़े कर लो, सामान भी रख लेंगे और चढ़े चलेंगे।
दूसरे दिन हम घोड़ों पर सवार होकर ऊपर की ओर
चले। डाँड़े से पहिले एक जगह चाय पी और दोपहर के वक्त डाँड़े के ऊपर जा पहुँचे। हम
समुद्रतल से 17—18 हज़ार फीट ऊँचे खड़े थे। हमारी दक्खिन तरफ़ पूरब से पच्छिम की
ओर हिमालय के हज़ारों श्वेत शिखर चले गए थे। भीटे की ओर दीखने वाले पहाड़ बिलकुल
नंगे थे, न वहाँ बरफ़
की सफ़ेदी थी, न किसी तरह की हरियाली। उत्तर की तरफ़ बहुत कम बरफ़ वाली
चोटियाँ दिखाई पड़ती थीं। सर्वोच्च स्थान पर डाँड़े के देवता का स्थान था, जो पत्थरों
के ढेर, जानवरों की
सींगों और रंग—बिरंगे कपड़े की झंडियों से सजाया गया था। अब हमें बराबर उतराई पर चलना था।
चढ़ाई तो कुछ दूर थोड़ी मुश्किल थी, लेकिन उतराई बिलकुल नहीं। शायद दो—एक और सवार
साथी हमारे साथ चल रहे थे। मेरा घोड़ा कुछ धीमे चलने लगा। मैंने समझा कि चढ़ाई की
थकावट के कारण ऐसा कर रहा है, और उसे मारना नहीं चाहता था। धीरे—धीरे वह
बहुत पिछड़ गया और मैं दोन्क्विक्स्तो की तरह अपने घोड़े पर झूमता हुआ चला जा रहा
था। जान नहीं पड़ता था कि घोड़ा आगे जा रहा है या पीछे। जब मैं ज़ोर देने लगता, तो वह और
सुस्त पड़ जाता। एक जगह दो रास्ते फूट रहे थे, मैं बाएँ का रास्ता ले मील—डेढ़ मील चला
गया। आगे एक घर में पूछने से पता लगा कि लङ्कोर का रास्ता दाहिने वाला था। फिर
लौटकर उसी को पकड़ा। चार—पाँच बजे के करीब मैं गाँव से मील—भर पर था, तो सुमति
इंतज़ार करते हुए मिले। मंगोलों का मुँह वैसे ही लाल होता है और अब तो वह पूरे
गुस्से में थे। उन्होंने कहा-“मैंने दो टोकरी कंडे फूँक डाले, तीन—तीन बार चाय
को गरम किया।” मैंने बहुत नरमी से जवाब दिया-“लेकिन मेरा
कसूर नहीं है मित्र! देख नहीं रहे हो, कैसा घोड़ा मुझे मिला है! मैं तो रात तक
पहुँचने की उम्मीद रखता था।” खैर, सुमति को जितनी जल्दी गुस्सा आता था, उतनी ही
जल्दी वह ठंडा भी हो जाता था। लङ्कोर में वह एक अच्छी जगह पर ठहरे थे। यहाँ भी
उनके अच्छे यजमान थे। पहिले चाय—सत्तू खाया गया, रात को
गरमागरम थुक्पा मिला।
अब हम तिङ्री के विशाल मैदान में थे, जो पहाड़ों
से घिरा टापू—सा मालूम होता था, जिसमें दूर एक छोटी—सी पहाड़ी
मैदान के भीतर दिखाई पड़ती है। उसी पहाड़ी का नाम है तिङ्री—समाधि—गिरि। आसपास
के गाँव में भी सुमति के कितने ही यजमान थे, कपड़े की पतली—पतली चिरी बत्तियों के गंडे खतम नहीं हो सकते
थे, क्योंकि
बोधगया से लाए कपड़े के खतम हो जाने पर किसी कपड़े से बोधगया का गंडा बना लेते थे।
वह अपने यजमानों के पास जाना चाहते थे। मैंने सोचा, यह तो हफ्ता—भर उधर ही लगा देंगे। मैंने उनसे कहा कि जिस
गाँव में ठहरना हो, उसमें भले ही गंडे बाँट दो, मगर आसपास
के गाँवों में मत जाओ; इसके लिए मैं तुम्हें ल्हासा पहुँचकर रुपये
दे दूँगा। सुमति ने स्वीकार किया। दूसरे दिन हमने भरिया ढूँढ़ने की कोशिश की, लेकिन कोई न
मिला। सवेरे ही चल दिए होते तो अच्छा था, लेकिन अब 10—11 बजे की तेज़ धूप में चलना पड़ रहा था। तिब्बत
की धूप भी बहुत कड़ी मालूम होती है, यघपि थोड़े से भी मोटे कपड़े से सिर को ढाँक
लें, तो गरमी
खतम हो जाती है। आप 2 बजे सूरज की ओर मुँह करके चल रहे हैं, ललाट धूप
से जल रहा है और पीछे का कंधा बरफ़ हो रहा है। फिर हमने पीठ पर अपनी—अपनी चीज़ें
लादी, डंडा हाथ
में लिया और चल पड़े। यघपि सुमति के परिचित तिङ्री में भी थे, लेकिन वह एक
और यजमान से मिलना चाहते थे, इसलिए आदमी मिलने का बहाना कर शेकर विहार की
ओर चलने के लिए कहा। तिब्बत की ज़मीन बहुत अधिक छोटे—बड़े जागीरदारों में बँटी है। इन जागीरों का बहुत
ज़्यादा हिस्सा मठों (विहारों) के हाथ में है। अपनी—अपनी जागीर में हरेक जागीरदार कुछ खेती खुद
भी कराता है, जिसके लिए मज़दूर बेगार में मिल जाते हैं। खेती का इंतज़ाम
देखने के लिए वहाँ कोई भिक्षु भेजा जाता है, जो जागीर के आदमियों के लिए राजा से कम नहीं
होता। शेकर की खेती के मुखिया भिक्षु (नम्से) बड़े भद्र पुरुष थे। वह बहुत प्रेम से
मिले, हालाँकि उस
वक्त मेरा भेष ऐसा नहीं था कि उन्हें कुछ भी खयाल करना चाहिए था। यहाँ एक अच्छा
मंदिर था; जिसमें कन्जुर
(बुद्धवचन—अनुवाद) की हस्तलिखित 103 पोथियाँ रखी हुई थीं, मेरा आसन भी
वहीं लगा। वह बड़े मोटे कागज़ पर अच्छे अक्षरों में लिखी हुई थीं, एक—एक पोथी 15—15 सेर
से कम नहीं रही होगी। सुमति ने फिर आसपास अपने यजमानों के पास जाने के बारे में
पूछा, मैं अब
पुस्तकों के भीतर था, इसलिए मैंने उन्हें जाने के लिए कह दिया।
दूसरे दिन वह गए। मैंने समझा था 2—3 दिन लगेंगे, लेकिन वह उसी दिन दोपहर बाद चले आए। तिङ्री
गाँव वहाँ से बहुत दूर नहीं था। हमने अपना—अपना सामान पीठ पर उठाया और भिक्षु नम्से से
विदाई लेकर चल पड़े।
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