Baal Kavita Raat


रात
ओहो ! समय रात का आया ।
कैसा है सन्नाटा छाया ॥
अंधकार फैला है भारी।
सुप्त पड़े हैं सब नर-नारी ॥
जाग रहा है चाँद अकेला।
गुपचुप है तारों का मेला ॥
पर न मिलेगी कहीं मिठाई ।
सोए हैं सारे हलवाई ॥
जिसने दिन काटे आलस में।
नींद नहीं है उसके बस में ॥
जैसे उल्लू या चमगादर ।
भटक रहे हैं इधर से उधर ॥
सब ही देख रहे हैं सपने ।
पड़े पड़े बिस्तर पर अपने॥  
नहीं रात में काम सुहाता ।
मैं भी हूँ अब सोने जाता ।


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