Baal Kavita On Winter Jaada


जाड़ा
अब तो ऋतु जाड़े की आई।
ठंडी हवा न भाती भाई !
ज्यादा नहीं नहाते हैं अब ।
बरफ न पीते-खाते हैं अब ।।
खुली हवा में ऊपर सोना।
सोने से पहिले छत धोना ।।
अब न किसी को यह भाता है।
मजा बंद घर में आता है।
तनती नहीं मसहरी भाई !
क्योंकि न मच्छर पड़े दिखाई ।।
मक्खी और पतंगे प्यारे ।
मरे सभी सर्दी के मारे ।
सूरज डूबा हुआ अँधेरा।
किसी पेड़ पर किया बसेरा ॥
बंद हुआ  चिड़ियों का गाना।
शाम सबेरे शोर मचाना ।
हैं जितने गरीब बेचारे।
सिकुड़ रहे सर्दी के मारे ॥
थर-थर काँप रहा तन सारा।
उन्हें न जाड़ा लगता प्यारा ॥
घास-फूस का ढेर लगाते ।
शाम-सबेरे आग जलाते ॥
वहीं बैठते मन बहलाते ।
किसी तरह से समय बिताते ।।
उन दुखियों के बच्चे प्यारे ।
चिथड़ों से तन ढंके दुलारे ॥
तरस कोट को वे जाते हैं।
कभी न सुख से सो पाते हैं।
खों ! खों! खाँस रही है नानी।
ओढ़ रजाई एक पुरानी ॥
कहती है नित नई कहानी।
फिर भी सर्दी पड़ती खानी ॥
अब कोई तरबूज न खाता ।
खरबूजे का जिक्र न आता ॥
आम और जामुन की भाई!
लड़कों ने है याद भुलाई ॥
कोई फली मटर की खाते ।
गन्ने, बेर किसी को भाते ॥
नारंगी, अमरूद निराले ।
जो जितना चाहे मँगवा ले ॥
पौधों पर पड़ता है पाला ।
हो मानों चाँदी का जाला ॥
हरी घास पर ओस मनोहर ।
लगती है मोती-सी सुंदर ।
कभी कभी जो कुहरा छाता ।
किसे नहीं वह बोलो भाता ?
मानों पहिन धुएँ की धोती।
हवा ठंड खा फिरती रोती ॥
उँगली जब सर्दी खाती है।
कलम नहीं पकड़ी जाती है ॥
कुछ का कुछ हम लिख जाते हैं।
मुट्ठी भी न बाँध पाते हैं ।
कपड़े ऊनी गए निकाले ।
पीले, लाल, बैंगनी, काले ।
नीले, हरे और मटमैले ।
तरह-तरह के कपड़े फैले ॥
कमरे में है आग जलाई।
गद्दी भी गुदगुदी बिछाई ।।
सोते ओढ़ लिहाफ़ रजाई ।
जब तक धूप न पड़े दिखाई ।।
लादे तन पर बड़ा लबादा।
चाय-चाय चिल्लाते दादा ।।
अब न कभी पीते ठंडाई ।
सिल-बट्टे की याद भुलाई ।।
जाड़ा भी क्या खूब बनाया।
देखो तो ईश्वर की माया ।।
ओहो, वहाँ धूप हो पाई।
चलो वहीं अब बैठे भाई ।।


Comments