बारिश बिन छतरी By Avinash Ranjan Gupta
बारिश बिन छतरी
मुझे याद है, मेरे जीवन में 16 जुलाई 2012 का वह ऐतिहासिक दिन जो अविस्मरणीय घटना के
रूप में मेरे मानस पटल पर मेरी अंतिम साँस तक अटल रहेगा। सोमवार का वह दिन जब मैं
घर से स्कूल के लिए निकला। आसमान पर बादलों का नामो-निशान तक नहीं था माँ के कहने
के बावजूद मैंने छाता लेने से मना कर दिया क्योंकि हर बरसात के मौसम में मुझसे कम
से कम एक या दो छाते मेरी लापरवाही की वजह से किसी और के सिर की शोभा बन जाते थे।
मैं घर से निकला ही था कि मानों बादलों ने मेरा पीछा करना शुरू कर दिया एक बार के
लिए तो मुझे लगा कि ये बादल मुझे एहसास दिला रहे थे कि माँ की बात न मानने का क्या
अंजाम हो सकता है। बादल बस मेरे ही बाहर निकालने का इंतज़ार कर रहे थे। स्कूल के लिए
देर हो रही थी इसलिए कहीं शरण लेना भी मेरे भाग्य में न था। भीगते-भीगते मैं स्कूल
तो पहुँच गया परंतु कपड़े गीले हो जाने की वजह से मुझे ठंड लग रही थी। ऊपर से गणित
का ब्लेकबोर्ड टेस्ट। गणित और ड्रायक्युला में मुझे इतना ही फ़र्क नज़र आता है कि
ड्रायक्युला की फिल्मों को मैं न चाहूँ तो न देखूँ पर गणित की पुस्तक को न चाहने
के बावजूद मुझे पिछले सात सालों से ढोना पड़ रहा है। ‘अविनाश
गुप्ता’, मेरा नाम पुकारा गया। गणित शिक्षक के सामने मेरी
जुबान न खुलती थी। वही हुआ जो मैं सोच रहा था। शिक्षक की आई ओपनिंग डाँट से मेरे
कपड़े कुछ सूख गए। अगले दिन मुझे स्कूल जाने का मन नहीं हो रहा था परंतु मेरी माँ
ने मुझे स्कूल भेजा और कहा कि तुम्हारे गणित शिक्षक ने फोन किया था आज टेस्ट में
पूरे नंबर लाना और ये लो छाता।
(पहला नमूना मुख्यतः स्मृति—आधारित है। बारिश
देख कर जो यादें मन में उभर आई हैं, उन्हें लेखक एक तरतीब (विशेष प्रकार से रखना)
दे रहा है। तरतीब देने के सिलसिले में ध्यान इस बात का रखा गया है कि वे स्मृतियाँ
पाठक को दिलचस्प जान पड़ें; साथ ही, यथासंभव उन स्मृतियों से कहीं एक—दो वाक्यों
में ऐसा निचोड़ निकाला जाए कि वे किसी सामान्य सत्य— यानी एक बड़े धरातल पर अनुभव किए जानेवाले
सत्य की ओर इशारा करने लगें। )
बारिश बिन छतरी
कभी-कभी मर्फ़ी सिद्धांत बिलकुल सही साबित होता है। मैं
पिछले 17 दिनों से छाते को अपने संग लेकर दफ़्तर आ-जा रहा था। परंतु एक दिन भी मुझे
इसके प्रयोग का सौभाग्य प्राप्त न हुआ परंतु 18वें सुबह 08:00 जब मैं घर से निकला
उस दिन मैं छाता लेना भूल गया और जब याद आया तो खुद से यह कहकर टाल दिया कि आज
बारिश नहीं होगी परंतु उस दिन बारिश हुई और वो भी मूसलधार। पहले तो मैं अपने भाग्य
पर बड़ा अफसोस करने लगा कि मेरा भाग्य बहुत खराब है, इसके बाद ज्यों-ज्यों मेरा शरीर बारिश की बूंदों से भीग रहा था
त्यों-त्यों मेरी पत्नी, भगवान, डीटीसी
की बसें, ऑटो रिक्शावाले सभी एक-एक करके कठघरे में खड़े दिखते
थे। सब पर आरोप था कि वे अपना काम सही से नहीं करते हैं। बाद मैं एहसास हुआ कि
मैंने भी तो अपना काम सही से नहीं किया। बारिश की बूंदें तेज़ हो रही थी ज़्यादा भीग
जाने के डर से मैंने एक नया छाता लेने का मन बना लिया। बहती गंगा में हाथ धोना की
कहावत तब चरितार्थ हो गई जब दुकानदार ने 250 रुपए के छाते की कीमत 320 रुपए ऐंठी। छाता
लेकर मैं घर की तरफ बढ़ ही रह था कि तेज़ हवा ने मेरे छाते की शक्ल केबल कनेक्शन के
छाते जैसी कर दी। जल से रक्षण की चाह में जल संरक्षण का महान कार्य मैं बिलकुल
नहीं करना चाहता था। भीगते-भीगते आखिर मैं घर पहुँच ही गया। मेरी पत्नी तौलिए से
मेरा सिर पोछने लगी और कहा सुबह आपको फोन तो किया था आपने फोन ही नहीं उठाया।
मैंने अपना फोन देखा स्वीट वाइफ़ 08:04 AM मिस्ड कॉल।
(दूसरा नमूना आत्म-मंथन पर आधारित है। इसमें
पाठक के निजी विचार वास्तविकता के धरातल पर आ पहुँचे हैं और जन सामान्य के विचारों
से मेल खाते हुए खप-से गए हैं। इसमें पाठक को शायद यह भ्रम हो कि वह किसी दूसरे की
नहीं अपितु अपने जीवन की घटना का ही लिखित रूप पढ़ रहा है।)
बारिश बिन छतरी
आज बारिश की बूँदें मुझे अतीत में ले गईं। मुझे वो दिन याद
आने लगे जब स्कूल से लौटने के दौरान अगर कभी तेज़ बारिश भी हो जाए तो घर तक पहुँचे
बिना न रुकने की मानों मैंने शपथ ले रखी हो। घर पहुँचने के बाद माता-पिता डाँट और
स्नेह भरी नसीहत कि कहीं रूक जाते, बारिश के थमने का इंतजार करते। फिर जब बड़ा हुआ तो हमारे विज्ञान के
शिक्षक ने बताया कि बारिश के दौरान पेड़ के नीचे कभी भी आश्रय नहीं लेना चाहिए
क्योंकि पेड़ बिजली को अपनी ओर आकर्षित करती है। और बड़े होने पर यह जान पाया कि
आजकल की वर्षा में अम्ल (Acid) की मात्रा बहुत अधिक होती है
इसलिए बारिश में छाते का इस्तमाल ज़रूरी है। वैवाहिक और पारिवारिक बंधनों में बँधने
के बाद यह जान पाया कि अगर बारिश में भीग गया तो ज़ुकाम हो जाएगा। ऊपर से प्राइवेट
नौकरी में गैर-हाज़िरी के हजारों कानून। आप अपने मन की चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते
हैं। परंतु बारिश की बूँदें मुझे अपने बचपन में लौटने का निमंत्रण दे रही थीं। तेज़
बारिश में छाता होने के बाद भी लोग भीग ही जाते हैं बस आत्म-संतुष्टि रहती है कि
हम छाते के अंदर हैं। मैंने अपनी सारी महत्त्वपूर्ण चीज़ों को एक प्लास्टिक में
समेटा और निकल पड़ा उस भीड़ से जो उस जल से बचने की कोशिश कर रही थीं जो असीम सुख
देने वाली होती है। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो लोग आश्चर्य भरी नज़रों से मेरी ओर
देख रहे थे कि जिसके पास छाता है वो क्यों भीग रहा है और मैं एक बच्चे की तरह किसी
की परवाह न करते हुए अपने बचपन में लौट रहा था।
(तीसरा नमूना दार्शनिक मिज़ाज का है। यहाँ लेखक बारिश की बूँदों
को देखता है और रोज़मर्रा की छोटी—मोटी
चीज़ों से ऊपर उठ कर कुछ ऐेसे गंभीर प्रश्नों की ओर उन्मुख हो जाता है, जिससे आप और हम शायद दूर-दूर ही रहते हैं।
वह स्वतंत्र रहना चाहता है परंतु सामाजिक, पारिवारिक और
व्यावसायिक बंधनों से सदैव खुद को जकड़ा हुआ पाता है। लेकिन बारिश की बूँदें उसे
स्वतंत्रता का सुख दी ही देती हैं।)
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