सुख" तू कहाँ मिलता है Sukh Ka Pata


प्यारी कविता
   "सुख"  तू  कहाँ   मिलता    है,
क्या   तेरा   कोई   पक्का   पता  है?
क्यों   बन   बैठा   है    अनजाना,
आखिर   क्या   है   तेरा   ठिकाना?
कहाँ   कहाँ     ढूँढ़ा   तुझको,
पर   तू     कहीं  मिला  मुझको?
ढूँढ़ा   ऊँचे   मकानों   में,
बड़ी  बड़ी   दुकानों   में,
स्वादिष्ट   पकवानों   में,
चोटी   के   धनवानों   में,
वो   भी   तुझको   ही   ढूँढ़   रहे   थे,
बल्कि   मुझको   ही   पूछ   रहे   थे,
क्या   आपको   कुछ   पता    है,
ये  सुख  आखिर  कहाँ  रहता   है?
मेरे   पास   तो   "दुख"  का   पता   था,
जो   सुबह   शाम   अक्सर   मिलता  था,
परेशान   होकर   शिकायत     लिखवाई,
पर   ये   कोशिश   भी   काम    आई,
उम्र   अब   ढलान    पर     है,
हौसला  अब  थकान   पर     है।
हाँ,   उसकी   तसवीर   है   मेरे   पास,
अब   भी   बची   हुई   है    आस,
मैं   भी   हार    नहीं   मानूँगा,
सुख   के   रहस्य   को    जानूँगा,
बचपन    में    मिला    करता    था,
मेरे    साथ   रहा    करता    था,
पर   जबसे    मैं    बड़ा   हो    गया,
मेरा   सुख   मुझसे   ज़ुदा   हो  गया।
मैं   फिर   भी   नहीं    हुआ    हताश,
जारी   रखी    उसकी    तलाश,
एक   दिन   जब   आवाज़ ये    आई,
क्या    मुझको   ढूँढ़ रहा  है   भाई।
मैं   तेरे   अंदर छुपा    हुआ     हूँ,
तेरे   ही   घर   में   बसा    हुआ    हूँ।
मेरा  नहीं  है   कुछ   भी    "मोल",
सिक्कों   में   मुझको      तोल।
मैं  बच्चों   की    मुस्कानों    में    हूँ,
पिता  के  साथ    चाय   पीने   में,
"परिवार"    के  संग   जीने    में,
माँ -  बाप   के   आशीर्वाद    में,
रसोईघर   के  पकवानों   में,
बच्चों   की   सफलता   में    हूँ,
माँ    की   निश्छल  ममता  में  हूँ,
तेरे  भीतर   की   क्षमता  में   हूँ।
हर   पल   तेरे   संग    रहता   हूँ,
और   अक्सर   तुझसे   कहता   हूँ,
मैं   तो   हूँ   बस   एक    "अहसास",
बंद कर   दे   तू   मेरी    तलाश।
जो   मिला   उसी   में   कर   "संतोष"
आज  को   जी   ले   कल  की न सोच।
कल  के   लिए   आज   को     खोना,
मेरे   लिए   कभी   दुखी       होना
मेरे   लिए   कभी   दुखी       होना ।।
                                  संकलित

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