प्रकृति से सीखिए Prakriti Se sikhiye By Avinash Ranjan Gupta
प्रकृति से सीखिए
इस पृथ्वी पर जीवन के लिए जो भी आवश्यक
तत्त्व (Elements) होते हैं वो हमें प्रकृति से बिल्कुल
मुफ़्त मिलती हैं, जैसे- हवा, सूर्य की
किरणें, जल आदि। ठीक इसी प्रकार उद्देश्य परक, मूल्य परक, प्रतिष्ठित और महान जीवन जीने के लिए जो
भी आवश्यक ज्ञान होता है, वो भी हमें सत्संगों और भले
मानुषों से मुफ़्त में ही मिलती हैं पर हम इन दोनों क्षेत्रों में सोचने और उस पर
कार्य करने के बजाय उन क्षेत्रों के बारे में सोचते हैं जिनका स्थायित्व (Permanence) अल्प समय के लिए होता है।
प्रकृति के सारे काम धीरे-धीरे और निश्चित
समय पर ही होते हैं। एक पेड़ में चाहे आप प्रतिदिन पानी दें फिर भी पर फल तभी
लगेंगे जब उपयुक्त मौसम आएगा। ये प्रकृति के धैर्य का परिचायक (Indication) है। दूसरी तरफ़ आज हम मनुष्यों के पास धैर्य नाम की चीज़ ही नहीं रही। हम
सभी में किसी न किसी रूप में उतावलापन (Impatience) देखने को
मिलता है और कभी – कभी धैर्य का हवाला (Reference) देते हुए
हम इतना आलस्य करने लगते हैं कि कार्य की निर्धारित और निश्चित अवधी (Duration) निकल चुकी होती है।
सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक प्रकृति ने
हमें केवल और केवल देने का ही काम किया है। प्रकृति की अमूल्य निधियों (Treasures) से हम पल्लवित (Budding) और पोषित (Nurtured) होते हैं। देखा जाए तो प्रकृति हमें देना सिखाती हैं। प्रकृति में
असीमित परोपकार की भावना भरी हुई है परंतु इसके ठीक विपरीत हम मनुष्य केवल चीज़ों को
बटोरने की स्पृहा (Desire) में लगे हुए हैं। इतिहास पर एक
बार नज़र दौड़ाएँ तो हम पाएँगे कि जिन्होंने भी समाज से लेने के बजाय समाज को देने
का काम किया है, वे आज तक अमर हैं,
पूजनीय हैं, श्रद्धेय हैं।
प्रकृति से हम सभी मनुष्यों को रोज़ाना 24
घंटे मिलते हैं और इसकी उदारता तो देखिए दरिद्र, कृपण, उद्यमी और आलसी सभी प्रकार के व्यक्तियों को
प्रकृति से समान व्यवहार मिलता है। प्रकृति से बेहतरीन समय का सदुपयोग कोई भी नहीं
करता। आज तक सौर-मंडल (Solar System) का कोई भी ग्रह विश्राम
हेतु 2 मिनट का भी विराम नहीं लिया है। और हममें से अधिकतर जैसे समय को पंसारी (Grocery) की दुकान में मिलने वाला कोई वस्तु मान बैठे हैं। हम आज समय की बर्बादी
करते हैं और एक दिन ऐसा आएगा जब हमारे पास पछताने के लिए भी समय नहीं होगा। दूसरी
महत्त्वपूर्ण बात यह कि प्रकृति में भेद-भाव नहीं है पर हम मनुष्यों में भेद-भाव
का आधुनिक रूप अर्थात् “जहाँ खीर वहाँ फिर” की भावना का प्राबल्य देखने को मिलता
है।
प्रकृति में अद्भुत सहन शक्ति है। आज जिस हिसाब
से प्रकृति का दोहन हो रहा है फिर भी प्रकृति सहती जाती है और सहन सीमा समाप्त
होने पर वह अपना रौद्र रूप सुनामी,
जलजले, सूखा, बाढ़ आदि के रूप में
दिखाती है और हमें चेताती है कि हम समय रहते सुधार जाएँ। हम मनुष्यों को भी अपने
अदंर सहन शक्ति बढ़ानी होगी। जो सहेगा वही रहेगा और जब मामला हद से पार हो जाए तो
हमें भी अपना उग्र (Violent) रूप दिखाना चाहिए। इसमें
ध्यातव्य (Notable) यह है कि गुस्सा सही समय और सही विषय को
लेकर ही आना चाहिए। हर छोटी बात पर गुस्सा होना मूर्खता है और किसी बड़ी बात पर न
होना भी। भीष्म पितामह को द्रौपदी चीरहरण के समय गुस्सा नहीं आया बस हाथ मलकर अपनी
विवशता दिखाते रह गए, उनकी मौत शर-शय्या में महीनों पड़े रहने
के उपरांत हुई और दूसरी तरफ़ एक अबला नारी के अपहरण का दृश्य देखकर जटायु ने जो
पराक्रम दिखाया वह सराहनीय और अतुलनीय है। उनकी सुमृत्यु श्रीराम के गोद में
हुई।
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