‘मैं’ से बचें Main Se Bache By Avinash Ranjan Gupta
‘मैं’ से
बचें
मैं प्रतिदिन लोगों
को मेरे परिवार के सदस्यों की तरफ़ इशारा करके यह नहीं कहता कि ये मेरे पिताजी, माताजी, भाई और बहन हैं। अपनी
गाड़ी और अन्य चीज़ों की तरफ़ इशारा करके मैं लोगों को यह भी नहीं बताता कि इन सब चीज़ों
का मालिक मैं हूँ। मेरे और आपके आस-पास रहने वाले प्राय: सभी लोगों को यह पता चल ही
जाता है या चल ही जाएगा कि कौन क्या है? ठीक इसी प्रकार हमें भी किसी बात का ढिंढोरा नहीं
पीटना चाहिए कि मैंने ऐसा किया है, मैंने कई बार ऐसा किया था या मैं ऐसा करने वाला
हूँ। ऐसा करना न ही पहले के ज़माने में स्वीकार्य था और आज के ज़माने में तो ऐसा
करना निंदा और उपहास का पात्र बनने के बराबर है। (Action
Speaks Louder Than Words) आपके
कर्म आपके शब्दों से कहीं ज़्यादा और तेज़ बोलते हैं।
बगीचे में खिले
रजनीगंधा (Tuberose) के फूल की सुगंध रात्रि के समय भी आस-पास से गुजरने वाले
लोगों को यह बताने में समर्थ होती है कि यहीं कहीं आस-पास रजनीगंधा के फूल खिल चुके हैं। इसी प्रकार आपके
कर्म भी आपकी प्रसिद्धि का प्रचार करने के लिए पर्याप्त है। आज जिस कदर ‘मैं’ का पैमाना (Parameter) बढ़
रहा है यह उसी का परिणाम है कि एक संसार में कितने संसारों की उत्पत्ति हो चली है।
आज जनसंख्या तो बढ़ रही है परंतु आदमी अकेला होते जा रहा है। आज लोगों का सुख-दुख ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मैंने’ से ही मापा जाने लगा है। “मैं
यह कर सकता हूँ।” में आत्मविश्वास की जगह अहं का भाव ज़्यादा सामने आता है, मेरे बच्चे अच्छा पढ़ें, मेरा घर बड़ा हो, मेरे पास ज़्यादा धन हो। अब
लगभग किसी भी व्यक्ति के लिए सुख का कारण ‘मेरा’ से ही जुड़ा नज़र आता है। ‘मैंने’ का उच्चारण बार-बार कर एक
व्यक्ति यही बताना चाहता है कि वह कितना श्रेष्ठ है जबकि सत्य तो यह है कि हम जब
भी किसी व्यक्ति से मिलते हैं तो वह किसी न किसी रूप में हमसे श्रेष्ठ ही होता है।
एक जानवर अगर अपने तक सीमित रहे तो यह बात समझ में आती है क्योंकि वह पशु है परंतु
मनुष्य जिसमें सोचने और समझने की शक्ति है वह ऐसा करे तो बात कुछ जमती नहीं।
अपने और अपनों के
प्रति सभी का मोह होना स्वाभाविक है और होना भी चाहिए। कभी-कभी ‘मैं’, ‘मेरे’ और ‘मैंने’ की चिंता और प्रयोग
आवश्यक भी होता है परंतु एक सीमा तक। अपने आपको केवल ‘मैं’ और ‘मेरा’ के दायरे तक सीमित कर
लेना मानवीय मूल्यों के विरुद्ध है। गौतम
बुद्ध और स्वामी विवेकानंद ने कई कीर्तियाँ कायम की हैं पर उन्होंने ऐसा कभी भी
नहीं कहा होगा कि मेरे मंदिर बनवाएँ जाएँ, मेरी पूजा की जाए। आज अगर ऐसा हो रहा है तो ये
उनके कर्म थे जिस वजह से हम ऐसा कर रहे हैं और ऐसा करने से हमें हर्ष का अनुभव
होता है।
अंतिम वाक्यों में
यही कहा जा सकता है हम सभी को एक ऐसे नैतिक ढाँचे की ज़रूरत है जिसमें ‘मैं’, ‘हम’ और ‘हम सब’ का स्थान हो।
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