Vyakhya

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!
मधुर मधुर मेरे दीपक जल!
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल गल!
पुलक पुलक मेरे दीपक जल!
1.      प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री अपने दीपक को हर पल जलने का आग्रह कर रही हैं। यहाँ दीपक अर्थात्  कवयित्री का हृदय, जो जीवन में सदैव सही रास्ते का ही चयन करे। सर्वदा अच्छे कर्म करके परमात्मा में लीन हो सके, ऐसी कवयित्री की मंशा है। वह अच्छे कर्मों के माध्यम से हर पल अपने प्रियतम अर्थात् ईश्वर का रास्ता प्रकाशित करन चाहती हैं।  वह अपने मन मंदिर में ईश्वरीय आस्था का दीप प्रज्ज्वलित करना चाहती है। उनकी आत्मा परमात्मा से मिलने को आतुर है। वह कहती हैं की ईश्वरीय तत्त्व का प्रकृति के प्रत्येक तत्त्वों में अनुभव किया जा सकता है। विस्तृत रूप से फैली दिन के धूप में परमात्मा की सुगंध फैली हुई है। मेरा तन भी इस उष्णता से कोमल मोम-सा घुल जाए और मन में छाया अंधकार दूर हो जाए। सब ओर असीम प्रकाश का सागर फ़ेल जाए। अर्थात् मनुष्य ने अपने शरीर को अपना मानकर मन में जो अभिमान पैदा कर लिया है, वह इस सूर्य के प्रकाश से प्रकाशमान हो जाए। क्योंकि यह शरीर भी तो ईश्वर के द्वारा बनाए गए इस प्रकृति के पंचतत्त्वों से ही बना है। कवयित्री अपने जीवन का एक-एक कण गलाकर भी अपने ईश्वर से मिलने कर मार्ग प्रशस्त करना चाहती है। वह आजीवन सर्वसाधारण की सेवा में व्यतीत करना चाहती है और अपने हृदय से सदा प्रसन्न रहने को कहती है।

सारे शीतल कोमल नूतन,
माँग रहे तुझसे ज्वालाकण
विश्वशलभ सिर धुन कहतामैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल’!
सिहर सिहर मेरे दीपक जल!
            प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री अपने हृदय से कहती हैं कि तेरे अच्छे कर्मों की वजह से सारे शीतल कण तुझसे ज्वाला-कण माँग रहे हैं अर्थात् जो भी व्यक्ति अपने जीवन में उदासीन है वे तेरे कर्मों से प्रभावित होकर तुझसे प्रेरणा माँग रहे हैं। विश्व-शलभ अर्थात् जिस प्रकार पतंगा दीपक की लौ में जलकर अपने प्राण गवाँ देता है और इस बात का उसे थोड़ा-सा भी पछतावा नहीं होता ठीक इसके विपरीत इस दुनिया के लोग आजीवन व्यर्थ की चिंताओं में अपना समय नष्ट करते हैं और जब मृत्यु उनके समीप होती हैं तो वे अपना सिर धुनने लगते हैं अपने किए पर पछताते हैं। कवयित्री अपने हृदय से कहती हैं कि बिना विचलित हुए सदैव लोकोपकार करते रहना।
       
जलते नभ में देख असंख्यक,
स्नेहहीन नित कितने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता,
विघुत ले घिरता है बादल!
विहँस विहँस मेरे दीपक जल!


            प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री अपने हृदय से कहती हैं कि जिस प्रकार आकाश में अनेक तारे दीपक की भाँति बिना किसी तेल के प्रकाशित होते रहते हैं ठीक उसी प्रकार तू भी बिना किसी कामना और यश के लोभ में न पड़कर लोकोपकार करता चल। कभी-कभी शांत सागर में भी ज्वारभाटा आलोड़न होता है। कभी-कभी बादलों में चमकती बिजली पीड़ा का पर्याय बनती है अर्थात् जीवन में अनेक परेशानियाँ आती ही रहती हैं। हे हृदय! तुम इन सब मुश्किलों में भी कभी भी मानवता का दामन मत छोड़ना। हँस-हँस कर परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते रहना।

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