Shabdarthsahit Vyakhya
मनुष्यता
मैथिलीशरण गुप्त
मनुष्यता
1
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु—प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. विचार = सोच
2. मर्त्य = मरणशील (Mortal)
3. मृत्यु = मौत
4. सुमृत्यु = अच्छी मौत
5. वृथा = बेकार
6. जिया = जीना
7. पशु = जानवर
8. प्रवृत्ति = आदत
9. चरे = चरना
कवि चेतना शक्ति की प्रबलता वाले मनुष्य में परमार्थ भाव की कामना करते हुए कहते हैं कि यह सभी जानते हैं कि मनुष्य का जीवन नश्वर है। उसे मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए। उसे मानव के हित अपना जीवन व्यतीत कर अपने कर्मों से सदा अमर हो जाना चाहिए। उसे जनहित के लिए आजीवन प्रयास करना चाहिए ताकि उसकी मृत्यु के बाद भी लोग उसे याद करें। मरने के बाद यदि हमें याद किया जाए, वही मृत्यु व जीवन श्रेष्ठ कहलाता है, जो व्यक्ति सदा लोगों के लिए काम करता है वास्तव में वह मरकर भी नहीं मरता। जो लोग अपने स्वार्थ के लिए जीते हैं ऐसे मानव मनुष्य न होकर पशु ही हैं क्योंकि यह तो पशु प्रवृत्ति है कि वह मात्र स्वार्थ में जीवनयापन करता है। मनुष्य कहलाने का अधिकारी तो वही है जिसके जीवन का प्रत्येक पल दूसरों की भलाई में लगा हो।
मनुष्यता
2
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. उदार = विशाल हृदय वाला
2. कथा = कहानी
3. सरस्वती = किताबें
4. बखानती = वर्णन करना
5. धरा = पृथ्वी
6. कृतार्थ = आभारी
7. भाव = भावना
8. सदा = हमेशा
9. सजीव = जीवंत
10. कीर्ति = यश
11. कूजती = ध्वनित होना
12. समस्त = पूरी
13. सृष्टि = दुनिया
14. पूजती = पूजा जाना
15. अखंड = बिना टूटा हुआ
16. आत्म भाव = अपनेपन की भावना
17. असीम = जिसकी सीमा न हो
जो व्यक्ति औरों के सुख के लिए अपना तन, मन और धन न्योछावर कर देता है इतिहास में उसी के महानता की चर्चा होती है। पुस्तकों में उसी के अमरता के गीत गाए जाते हैं। जो व्यक्ति उदारतापूर्वक मानव सेवा करता है, धरती भी उसे पाकर स्वयं को धन्य मानती है। उदार एवं महान लोगों के महान कृत्यों की गाथा युगों तक गूँजती रहती है। ऐसे लोग जो परार्थ में जीवनयापन करते हैं उन्हें समस्त सृष्टि पूजती है। जो व्यक्ति पूरे संसार को अपना मानता है तथा विश्व व मानव सभ्यता के लिए निस्वार्थ भावना से सेवा करता है और विश्व कुटुंब की भावना से जनहित में जीवनयापन करता है। ऐसे ही प्राणी मनुष्य कहलाने योग्य हैं। वास्तव में वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए जीता है और मनुष्य के लिए मरता है।
3
क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. क्षुधार्त = भूख से व्याकुल
2. रंतिदेव = एक परम दानी राजा
3. करस्थ = हाथ का
4. थाल = थाली
5. दधीचि = एक ऋषि
6. परार्थ = दूसरों के हित में
7. अस्थिजाल = हड्डियों का समूह
8. उशीनर = गांधार देश का राजा
9. क्षितीश = राजा
10. स्वमांस = खुद का मांस
11. सहर्ष = खुशी से
12. कर्ण = कुंती पुत्र
13. शरीर-चर्म = Body Skin
14. अनित्य = जो हमेशा न रहे
15. देह = शरीर
16. अनादि = जिसके आरंभ का पता न हो
17. जीव = प्राणी
कवि कहते है कि इतिहास ऐसे महान लोगों से भरा हुआ है जिन्होंने मानव सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। परमदानी राजा रंतिदेव ने स्वयं क्षुधा से व्याकुल होने पर भी अपना भरा थाल दान कर दिया था। महर्षि दधीचि ने वृत्रासुर से देवों की रक्षा करने हेतु वज्र बनाने हेतु अपनी हड्डियों का दान किया था। गांधार देश के राजा ने परमार्थ के लिए अपना मांस तक दान कर दिया था। दानवीर कर्ण ने तो अत्यंत प्रसन्नता से अपनी खाल तक दे दी थी। ऐसे वीर पुरुष अपने नश्वर शरीर की परवाह किए बगैर मानव जाति का कल्याण कर इतिहास के पन्नों में अमर हो गए हैं। ऐसे ही प्राणी मनुष्य कहलाने योग्य हैं जो मनुष्य के लिए जीता है और मनुष्य के लिए मरता है।
4
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. सहानुभूति = Sympathy
2. महाविभूति = भारी पूँजी
3. वशीकृता = वश में की हुई
4. सदैव = हमेशा
5. स्वयं = खुद
6. मही = पृथ्वी
7. विरुद्धवाद = विरोध करने की प्रवृत्ति
8. बुद्ध = गौतम बुद्ध
9. विनीत = Polite
10. लोकवर्ग = जन समूह
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कह रहे है कि यदि मानव मानव से सहानुभूति रखता है तो यही उसके लिए बड़ी भारी पूँजी है। इस बात की पुष्टि के लिए कवि हमें यह भी बता रहे है कि धरती से अधिक त्याग की प्रेरणा भला हमें कौन दे सकता है? धरती तो प्रेमवश सदा दूसरों की अधीनता व सेवा करती है। अपनी गोद में सबको शरण देती है। गौतम बुद्ध ने भी जब अपने विचार आम लोगों के समक्ष रखे तो उनकी बातें आम लोगों को बहुत अच्छी लगीं मगर कुछ वर्ग ऐसा भी था जो उनके विरोध में अपनी दलीलें पेश किया करते थे परंतु बुद्ध के दया प्रवाह में विरोधी वर्ग भी विनीत बन उनके सामने झुक गया। कवि यह भी कह रहे हैं कि विशाल हृदय वाला वही व्यक्ति उदार व परोपकारी माना जाता है जो अपने लिए नहीं अन्य के लिए जीवनयापन करता है।
5
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ है,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. मदांध = घमंड में अंधा
2. तुच्छ = मामूली
3. वित्त = धन
4. सनाथ = नाथ के साथ
5. गर्व = अभिमान
6. चित्त = मन
7. अनाथ = नाथ के बिना
8. त्रिलोकनाथ = तीनों लोकों के नाथ
9. दयालु = Kind
10. दीनबंधु = गरीबों के मसीहा
11. विशाल = बड़ा
12. अतीव = अत्यधिक
13. भाग्यहीन = जिसका भाग्य साथ न दे
14. अधीर = जिसमें धीरज न हो
कवि संसार की भौतिकता को अस्थायी दर्शाते हुए कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को धन के गर्व से उन्मत्त होकर स्वार्थी व्यवहार करना उपयुक्त नहीं है। मानवीय गुण स्थायी होते हैं तथा नश्वर वस्तुओं के आकर्षण में मानवता की उपेक्षा बिलकुल भी सही नहीं है। कभी भी अपनी क्षमताओं, उपलब्धियों तथा समर्थता का गर्व करके अकार्य न करें। इस संसार का नियंत्रण प्रकृति के हाथ में हैं वही सबका रक्षक है। उस दयानिधान, दीनबंधु विधाता के होते हुए भला कोई भी प्राणी असहाय तथा अनाथ कैसे हो सकता है? जो व्यक्ति अधीर होकर परार्थ भावना का भाव त्याग देता है, वह अत्यंत ही भाग्यहीन है। वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो जो पूरी मानवजाति के विकास के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दे।
6
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य अंक में आपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. अनंत = जिसका अंत न हो
2. अंतरिक्ष = Space
3. देव = भगवान
4. समक्ष = सामने
5. स्वबाहु = अपने हाथ
6. परस्परावलंब = आपस में मिल-जुल कर
7. अमर्त्य = अमरणशील (Immortal)
8. अंक = गोद
9. अपंक = कीचड़
10. सरे = समाप्त होना
कवि कहते हैं कि सृष्टि अनंत है। अंतरिक्ष में देवता बाँहें फैलाकर तुम्हारे शुभकर्मों के परिणामस्वरूप तुम्हारा अभिषेक और स्वागत करने के लिए लालायित हैं। कवि कहना चाहते हैं कि जो व्यक्ति शुभ कर्म करता है, मानव सेवा करता है, धरती ही नहीं स्वर्ग के देवता भी उसका स्वागत करते हैं। अतएव प्रत्येक मनुष्य को मनुष्य का सहारा बनाकर प्रगति की राह पर अग्रसर होना चाहिए। मनुष्य को मनुष्य के काम आना चाहिए। हमें अपना मानव जीवन कृतार्थ करना चाहिए तथा शुभ कर्म करके, कलंक रहित जीवनयापन करके देवताओं की गोद में स्थान प्राप्त करना चाहिए। किसी को भी इस प्रकार नहीं सोचना चाहिए कि उसके बिना किसी का काम रुक जाएगा। अहंकार भाव का त्याग कर सहयोग भावना से उन्नति की राह पर आगे बढ़ना चाहिए। मनुष्य कहलाने का अधिकार उसे ही है जो मनुष्य के लिए जीता है तथा उसी के लिए मरता है।
7
मनुष्य मात्र बंधु हा यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. मात्र = केवल
2. बंधु = मित्र
3. विवेक = बुद्धि
4. पुराणपुरुष = परमात्मा
5. स्वयंभू = जो खुद पैदा हुआ हो
6. पिता = परमात्मा
7. प्रसिद्ध = विख्यात
8. फलानुसार = फल के अनुसार
9. कर्म = कर्तव्य
10. अवश्य = ज़रूर
11. बाह्य = बाहरी
12. भेद = अंतर
13. अंतरैक्य = आत्मा की एकता
14. प्रमाणभूत = साक्षी
15. अनर्थ = बर्बाद
16. व्यथा = परेशानी
17. हरे = दूर करना
कवि कहते हैं कि मनुष्य को सदा विवेकशील व्यवहार करना चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जीवन व जगत में सदा एक-दूसरे के काम आना चाहिए। वेद-पुराणों में वर्णन है कि इस जगत का नियंता परमात्मा है। मनुष्य को अपने कर्मानुसार विभिन्न जन्म और जीवन मिलते हैं। बाह्य रूप से इस कर्मानुसार फल की विभिन्नता को देखा जा सकता है लेकिन प्रत्येक प्राणी में प्रकृति के गुणों का निवास है। यदि भाई ही भाई की पीड़ा दूर नहीं करेगा तो इससे बुरा कुछ अन्य नहीं हो सकता। प्रत्येक मनुष्य को एक-दूसरे के काम आना चाहिए। मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो मनुष्य के काम आता है तथा मानवता की राह पर चलकर जीवनयापन करता है।
मनुष्यता
8
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विघ्न जो पड़ें , उसे ढकेलते हुए।
घाटे ने हेलमेल हाँ, बढ़े ने भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
शब्दार्थ
1. अभीष्ट = इच्छित
2. मार्ग = राह
3. विपत्ति = समस्या
4. विघ्न = बाधा
5. हेलमेल = मेलजोल
6. भिन्नता = अंतर
7. अतर्क = तर्क से परे
8. पंथ = समूह
9. सतर्क = तर्क के साथ
10. समर्थ = योग्य
11. तारता = उपकार करना
12. तरे = मरना
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