Prashn 2

2 - निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए -
1. सहानुभूति चाहिएमहाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दयाप्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
2. रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँत्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
3. चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्तिविघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँबढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

1.  प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कह रहे है कि यदि मानव मानव से सहानुभूति रखता है तो यही उसके लिए बड़ी भारी पूँजी है। इस बात की पुष्टि के लिए कवि हमें यह भी बता रहे है कि धरती से अधिक त्याग की प्रेरणा भला हमें कौन दे सकता है? धरती तो प्रेमवश सदा दूसरों की अधीनता व सेवा करती है। अपनी गोद में सबको शरण देती हैं। गौतम बुद्ध ने भी जब अपने विचार आम लोगों के समक्ष रखे तो उनकी बातें आम लोगों को बहुत अच्छी लगीं मगर कुछ वर्ग ऐसा भी था जो उनके विरोध में अपनी दलीलें पेश किया करते थे परंतु बुद्ध के दया प्रवाह में विरोधी वर्ग भी विनीत बन उनके सामने झुक गया। कवि यह भी कह रहे हैं कि विशाल हृदय वाला वही व्यक्ति उदार व परोपकारी माना जाता है जो अपने लिए नहीं अन्य के लिए जीवनयापन करता है।

2.  कवि संसार की भौतिकता को अस्थायी दर्शाते हुए कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को धन के गर्व से उन्मत्त होकर स्वार्थी व्यवहार करना उपयुक्त नहीं है। मानवीय गुण स्थायी होते हैं तथा नश्वर वस्तुओं के आकर्षण में मानवता की उपेक्षा बिलकुल भी सही नहीं है। कभी भी अपनी क्षमताओंउपलब्धियों तथा समर्थता का गर्व करके अकार्य न करें। इस संसार का नियंत्रण प्रकृति के हाथ में हैं वही सबका रक्षक है। उस दयानिधानदीनबंधु विधाता के होते हुए भला कोई भी प्राणी असहाय तथा अनाथ कैसे हो सकता हैजो व्यक्ति अधीर होकर परार्थर भावना का भाव त्याग देता हैवह अत्यंत ही भाग्यहीन है। वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो जो पूरी मानवजाति के विकास के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर दे।

3.  कवि कहते हैं कि हमें जीवन में इच्छित व उचित मार्ग पर प्रसन्नता से कर्मरत होते हुए आगे बढ़ना  चाहिए। राह में जो भी विघ्न या बाधाएँ आएँ उन्हें अपने साहस व धैर्य से दूर कर देना चाहिए। आपस में भेद-भाव की भावना कभी भी नहीं पनपनी चाहिए तथा सबको मिलजुल कर रहना चाहिए। जीवन की राह  पर बिना भेद-भावतर्क-वितर्कईर्ष्या-द्वेष के एक साथ आगे बढ़ना चाहिए। सभी को सावधान यात्री के समान उन्नति के लिए सतत अग्रसर होना चाहिए। मनुष्य जीवन को सार्थक और सामर्थ्यवान तभी माना जा सकता है जब वह अपनी उन्नति के साथ-साथ दूसरों के हितार्थ व उत्थान के लिए प्रयत्नशील हों।  मनुष्य कहलाने का अधिकारी वही है जो मनुष्य जो लोगों की सेवासहायता और हितार्थ कार्य करता हो।

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